ध्यान के कितने हैं मार्ग और कैसे पाएं इनसे लाभ? यहां जानें महत्व
पांचवां और बहुत ही सूक्ष्म मार्ग है- मंत्र। एक दिव्य ध्वनि जिसे गुरु द्वारा शिष्य को व्यक्तिगत रूप से दिया जाता है। यह कोई आम शब्द नहीं होता यह एक तरंग होती है जो भीतर बीज की तरह अंकुरित होती है। इसे गुप्त रखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि जैसे बीज मिट्टी में छिपकर ही पनपता है वैसे ही मंत्र भी गोपनीयता में विकसित होता है।

श्री श्री रवि शंकर (आर्ट आफ लिविंग के प्रणेता आध्यात्मिक गुरु)। ध्यान के पांच मार्ग हैं। पहला शारीरिक अभ्यास, जैसे योग। शरीर को खींचने-सिकोड़ने से जो सजगता आती है, उसे ध्यान की अवस्था कहा जा सकता है। दूसरा तरीका है प्राणायाम, जिसमें श्वास के साथ मन भी शांत होता है।
तीसरा है संवेदी अनुभव। यदि हम किसी एक इंद्रिय को पूरी तन्मयता से प्रयोग करें, जैसे कि गहराई से संगीत सुनना या खुले आकाश की ओर एकटक देखना, तो विचार रुक जाते हैं और हम शुद्ध होने का अनुभव करते हैं। ध्यान केवल सुखद अनुभवों से नहीं, बल्कि गहरी भावनाओं से भी जन्म ले सकता है। चाहे वे आश्चर्य, करुणा अथवा यहां तक कि क्रोध या हताशा ही क्यों न हों।
जब हम किसी भावना के चरम पर पहुंचते हैं और कहते हैं- "बस, अब और नहीं!" तो मन एक क्षण के लिए रुक जाता है। अगर हम उस पल में होश बनाए रखें और अवसाद या हिंसा में न गिरें, तो यह रुकावट ध्यान का द्वार बन सकती है। चौथा मार्ग है- ज्ञान। जब हम ब्रह्मांड के रहस्य को समझते हैं या विज्ञान के अद्भुत तथ्यों को जानते हैं, तो हमारी पहचान सीमित शरीर से हटकर व्यापक चेतना में विलीन हो जाती है। जैसे क्वांटम भौतिकी बताती है कि "पदार्थ जैसा कुछ होता ही नहीं, सब ऊर्जा है", वैसे ही वेदांत कहता है- "जो दिखाई दे रहा है, वह वास्तव में है नहीं।"
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पांचवां और बहुत ही सूक्ष्म मार्ग है- मंत्र। एक दिव्य ध्वनि, जिसे गुरु द्वारा शिष्य को व्यक्तिगत रूप से दिया जाता है। यह कोई आम शब्द नहीं होता, यह एक तरंग होती है, जो भीतर बीज की तरह अंकुरित होती है। इसे गुप्त रखना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि जैसे बीज मिट्टी में छिपकर ही पनपता है, वैसे ही मंत्र भी गोपनीयता में विकसित होता है।
मंत्र का अर्थ नहीं, उसका कंपन महत्वपूर्ण होता है। वह भीतर के सूक्ष्म स्तरों को स्पर्श करता है। ध्यान की सबसे सुंदर बात यह है कि यह किया नहीं जाता, यह घटता है। हम केवल ऐसा वातावरण बना सकते हैं, जिसमें यह सहज रूप से प्रकट हो। इस वातावरण में सहायक होती है सही शारीरिक मुद्रा- रीढ़ सीधी, शरीर सहज। न बहुत कठोर, न बहुत ढीला। ध्यान कोई गंभीर प्रयास नहीं, बल्कि सहज उपलब्धि है।
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ध्वनि का ध्यान से गहरा संबंध है। जब आप ‘हां’ कहते हैं (दर्द के समय), तो ऊर्जा नीचे जाती है। जब आप ‘हो’ कहते हैं (आश्चर्य के समय), तो ऊर्जा हृदय में होती है। और जब आप ‘ही’ कहते हैं (सच्चे हास्य में), तो ऊर्जा सिर के ऊपरी हिस्से में पहुंचती है। यही ‘ही’ वह ध्वनि है, जिससे मन का संकुचन समाप्त होता है और आनंद का विस्तार होता है। सच्चा ध्यान वहीं है, जहां ‘मैं’ नहीं रहता। केवल शांति और मौन रहता है। यही मौन हमारे जीवन को नई दिशा देता है, जहां बाहर की स्थितियां चाहे जैसी हों, भीतर एक अमिट मुस्कान बनी रहती है।
आज के समय में, जहां मन हर क्षण भटकाव से घिरा है, वहां ध्यान की यह कला केवल एक साधना नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला है। चाहे आप किसी भी उम्र के हों, किसी भी पृष्ठभूमि से हों, ध्यान आपके लिए है। बस एक शर्त है- ‘करना’ छोड़कर ‘होना’ सीखिए। बाकी सब अपने आप घटेगा।
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