दूसरों की राह आसान करना ही है सतयुग की सच्ची परिभाषा, जियो और जीने दो के सिद्धांत पर काम करता है नियम
ग्रह-नक्षत्रों से हम आशा करते हैं कि वे हमारे अनुकूल हो जाएं, जबकि वे प्रतिकूल हैं ही नहीं। वे अपने अनुसार चल रहे हैं। उनको न आपसे राग है न द्वेष। ग्र ...और पढ़ें

हमारे विचार व क्रियाकलाप ही युग का निर्माण करते हैं

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स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन, ऋषिकेश)। नया और पुराना, युवा और वृद्ध, जीव और ईश्वर की तरह अभिन्न हैं हम। हमें चाहिए कि अतीत से असत को निकाल दें, फिर दुख के समस्त कारणों का विच्छेदन स्वत: ही हो जाएगा। व्यक्ति की प्रकृति है कि वह हमेशा कुछ नया और पहले की तुलना में कुछ सुखद की कल्पना और प्रयास करता है।
हमें यह स्मरण रहे कि व्यक्ति, प्रकृति, ऋतु, धान्य, फल, पुष्प, पशु, पक्षी, ग्रह, नक्षत्र, खगोल, भूगोल सबकी अपनी प्रकृति है। स्वाभाविक रूप से वे अपने स्वरूप, स्वाद तथा स्वभाव से ही पहचाने भी जाते हैं। परिवर्तन का प्रारंभ अपनी प्रकृति बदलने से ही संभव है, क्योंकि जो मांग हमारी दूसरों से है, वही इच्छा दूसरों की हमसे भी है। इसी कारण नित्य नए सुख की इच्छा शाश्वत और पुरातन दुख के रूप में हमें प्राप्त होती है।
ग्रह-नक्षत्रों से हम आशा करते हैं कि वे हमारे अनुकूल हो जाएं, जबकि वे प्रतिकूल हैं ही नहीं। वे अपने अनुसार चल रहे हैं। उनको न आपसे राग है न द्वेष। ग्रह-नक्षत्र इसीलिए प्रसन्न और शाश्वत हैं, क्योंकि वे सबसे असंग हैं। अपेक्षा रहित पुरुषार्थ, निरंतर चलते रहना श्रुतिसम्मत है।
जिस फल का रस होता है, उसे पिया जाता है, जिसमें गूदा होता है, उसे खाया जाता है, कुछ को चूसा जाता है। यदि हम खाने वाली वस्तु को पीने वाली बनाना चाहते हैं तो उसकी पद्धति है। यदि हम कर सकें तो उसका रस बना लें, पर सबमें मात्रा, प्रकृति, काल, अवधि का ध्यान रखना होगा।
हर वर्ष एक जैसा होता है। ईश्वर के जितने उपादान हैं, वे सब सुख लेने के साधन हैं। हमें सुख लेने के लिए सुख देने का विवेकपूर्ण आयोजन करना होगा। हर दिन, महीने, वर्ष, युग, कल्प में सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग होता है। पुन: सतयुग आता है। यह काल की प्रकृति है। किंतु ध्यान रहे कि हर युग को नाम मनुष्य की प्रकृति ने दिया है। दूसरों के विकास में अवरोध न बनने की इच्छा ही सतयुग है।
केवल हमारा विकास हो और हमारी वासनाओं की पूर्ति हो, हम दूसरों के अवरोध बनें, यह कलियुग है। कोई काल बुरा या अच्छा नहीं होता है। हमारे विचार व क्रियाकलाप ही युग का निर्माण करते हैं। हमें श्रेष्ठ रहना है, सुखी रहना है और आनंद लेना है तो आइए बढ़ाएं कदम दिव्यता की ओर। अपनी मूल सनातन प्रकृति में अवस्थित हो जाएं और श्रेष्ठ सोचें, श्रेष्ठ करें और श्रेष्ठ हो जाएं, यही आदि-मध्य-अंत त्रिकाल सत्य है।

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