'बिना कुछ कहे सब कुछ कह देना', क्यों मौन को ही परमात्मा का शुद्धतम रूप माना गया है?
गोस्वामी तुलसीदास जी की लेखनी ही मौन और वाणी के प्राकट्य का अधिष्ठान है। जहां पर श्रीराम विदेहनगर में विदेहरूप हो गए और सीता के स्वरूप का वर्णन अपनेही ...और पढ़ें

मौन और वाणी का सर्वोच्च भाष्य यहीं पर रचा गया

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अभी पढ़ेंस्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। वाणी से न बोलना मौन नहीं है, क्योंकि न बोलने के संकल्प को पूर्ण होने में मौनी अपने संकल्प को साकार होते देखता है। वाणी से न बोलने से व्यक्ति केवल मुखरित नहीं होता है, पर उसकी इंद्रियां मौन नहीं होती हैं, अपितु वे मौन रहकर बोलते रहने की इच्छा तथा अपने मन का कार्य कराते रहने के लिए कि किन्हीं सुशुप्त उपायों के जागरण का अहंकार प्रेरित उपाय निकालती हैं, जिससे हमारे मौन का वास्तविक स्वरूप खंडित हो जाता है।
मौन प्रतिकूल स्थिति में उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रिया का परिणाम भी नहीं है, न ही क्रोध को छिपाने या दिखाने का विकल्प है। मौन तो उदय और अस्त की भांति घट और मठ के लोककल्याणकारी सूक्ष्मतम तरंगों के सुगंधित पलों का नाम तथा परम लक्ष्य की एक सहज-सुखद प्रक्रिया है, जिसमें वृत्तियों का दमन नहीं होता है।
जहां वृत्तियां अपने अधिष्ठान के प्रति बिल्कुल सहज समर्पित रहती हैं, जहां न तो उदय होते समय प्रकाश करने का संकल्प है और न ही अस्त में अंधकार फैला देने का प्रतिहिंसक कुभाव है। मौन एक प्रकृति है, जो सूर्य चंद्र, आकाश, तारागण, वायु, पृथ्वी और रसों की तरह फलित तो है पर मुखर नहीं है, किंतु प्रकृति की गतिविधियों और क्रियाकलापों में प्रदर्शित है। मौन स्थिति में साधक अपनी चित्तवृत्तियों का शोषण न करके अपने ही स्वरूप में स्थित रहता है।
मौन वह शुद्ध स्वर्ण है, जिसको किसी धातु या गुण के साथ मिलकर आभूषण बनकर प्रदर्शित होने की कोई इच्छा नहीं है। मौन शुद्ध दृष्टा है, जहां क्रिया होती है पर कर्ता कोई नहीं होता है। मौन एक प्रकाश है, शीतलता है, गति, प्रवाह और परम लक्ष्य है, जो सर्वथा निर्विकल्प है। वह संकल्पित नहीं है, आकाश की तरह व्यापक है, उसमें दाहकता है पर उपादान के रूप में लकड़ी और घी आदि नहीं है। मौन में अगाधता और पवित्रता है। मौन ईश्वर का निराकार और निर्गुण स्वरूप है। आत्मा है।
चुप रहना, न बोलने का संकल्प, समय का निर्धारण यह सब उस अधिष्ठान में स्थित होने या रहने के साधन हैं, जिसमें बाह्य अशांति से बचने और पुन: उसी में संलग्न हो जाने का संकल्प भी सुसुप्त रूप से सन्निहित है।
मौन की एक व्यावहारिक, पारमार्थिक और लोककल्याणकारी प्रक्रिया का दर्शन हमें श्रीरामचरितमानस के एक ऐसे पात्र के जीवन में होता है, जो कभी मौन नहीं रहा।साथ ही उस पात्र की वंदना, स्तुति और प्रशंसा मानस के उन पात्रों ने की, जो अपने पवित्र चरित्र की अलौकिक ख्याति के लिए स्वनामधन्य हैं।
दशरथनंदन, माता कौशल्या के वात्सल्य की गरिमामय मूर्ति श्रीराघवेद्र के साथ सौमित्र लक्ष्मण का नाम रामराज्य की नींव से लेकर ध्वजा पताका तक मौन रहा।जिन्होंने मौन को व्याख्या दी और पुनर्भाषित तथा व्याख्यायित किया। अज्ञान की निवृत्ति के लिए दिया गया भाषण ही प्राची दिसि में उदित सूर्योदय है।प्रेम में मर्यादामय स्थिति, जनकपुर में पुष्पवाटिका प्रसंग में वर्णित उस महारास में, जहां पर प्रकृति पुरुष श्रीराम अपनी ही शक्ति जनकनंदिनी सीता के अलौकिक स्वरूप और शोभा पर विमोहित होकर अपने मौन व्रत का पारण करते हुए कहते हैं कि लक्ष्मण यह देखो, इस वाटिका को सुगंध और सौंदर्य प्रदान करने वाली जो दिखाई दे रही हैं, उनको देखकर मेरा सहज मन आज असहज हो गया है।
कदाचित धनुषयज्ञ का आयोजन भी इन्हीं के कारण हो रहा है। पुष्प वाटिका में श्रीराम के मौन भंग के ही परिणाम स्वरूप शंकर जी का धनुर्भंग हुआ, पर आश्चर्य की बात तो यह है कि मानस में जो पात्र सर्वाधिक बोलनेके लिए सुप्रसिद्ध हैं, वे हैं श्रीलक्ष्मण, वे श्रीराम के इतने बोलने पर भी मौन रहे, कुछ नहीं बोले।
मौन और वाणी का सर्वोच्च भाष्य यहीं पर रचा गया। गोस्वामी तुलसीदास जी की लेखनी ही मौन और वाणी के प्राकट्य का अधिष्ठान है। जहां पर श्रीराम विदेहनगर में विदेहरूप हो गए और सीता के स्वरूप का वर्णन अपनेही अनुज लक्ष्मण से करने लगे। तब रामायण के आदर्शों की वास्तविक प्राणप्रतिष्ठा हो गई। लक्ष्मण बिल्कुल चुप हो गए। एक वाक्य के द्वारा उन्होंने श्रीराम की वाणी का उत्तर नहीं दिया।
यही है संपूर्ण भूमंडल के बसे मनुष्यों के लिए शिक्षा कि न तो मौन आदर्श है, न तो हमेशा बोलते रहना ही कोई वाणी की सिद्धि है। सिद्धि तो यह है कि कहां बोलना है, कहां नहीं बोलना है। बस इसी का विवेक ही परम मौन है। जिसमें व्यवहार और परमार्थ, प्रेय और श्रेय दोनों का अद्वितीय निर्वहन होता रहता है।
लक्ष्मण 14 वर्ष के वनवास की पृष्ठभूमि और षड्यंत्र में भी महारानी कैकेयी के प्रति एक वाक्य बोलकर भी न तो समर्थन और न ही विरोध प्रकट करते हैं। वे पूरी तरह मौन हैं, कहीं पर कुछ नहीं बोले। श्री भरत ने तथास्वयं श्रीसीता जी ने श्रीलक्ष्मण के चरणों की वह दिव्य भाव वंदना की है, जो त्रैलोक्य में किसी पात्र की नहीं की गई। उद्देश्य केवल एक है कि हमारे बोलने और न बोलने के मूल में राम के आदर्शों के प्रति संपूर्ण निष्ठा है कि नहीं!
भक्तों को रामनिष्ठ करना लक्ष्मण की वाणी का मौन है तथा राम को सीता में निष्ठ रखना लक्ष्मण के मौन का प्रतिफल है। यही ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की वह त्रिपुटी है, जो राम की लीला में आद्योपांत है।
श्रीराम चरितमानस के जो पात्र बिल्कुल बोलते नहीं दिखाई देते हैं, उसका अंतरंग रहस्य यही है कि कहां, किसको, कितना और क्या बोलना है? वाणी और लेखनी का यही अतुल्य संगम राम का वह राज्य निर्माण करता है, जहां छोटा अपने को छोटा समझता है और बड़ा तब बड़ा होता है, जब वह छोटे की भावना का सम्मान करता है।
14 वर्ष के वनवास काल की दीर्घ अवधि में एक वाक्य या प्रसंग में वनवास की मुख्य हेतु महारानी कैकेयी का रानी सुमित्रा और कौशल्या के बीच व्यक्तिगत मतभेद का वर्णन नहीं हुआ। जब देश, परिवार, व्यवस्था तथा समाज के सब लोग वाणी के संयम और मौन के उद्देश्य को समझकर उसका पालन और सदुपयोग करते हैं।
तब चाहे राम के भाई लक्ष्मण हों या रावण के भाई विभीषण हों, सभी पात्र अपनी वाणी और मौन व आचरण के द्वारा रामराज्य का ही सृजन करते हैं। रामराज्य कोई ईंट, गारा, पत्थर और पानी, लोहे से बनने वाला महल नहीं है। जो किसी अन्य की तुलना में श्रेष्ठ हो। रामराज्य तो व्यक्ति के हृदय की वह आत्मस्थिति है जो संन्यासी, वानप्रस्थ, ग्रहस्थ, ब्रह्मचारी सबके जीवन में संभव है।
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मौन एक दिव्य अलौकिक संसार है, जिसमें वह आनंद है, जो न देखा जा सकता है, न सुना जा सकता है, न ही मन में समा सकता है। वह तो केवल अनुभव की वस्तु है। कोई भी व्यक्ति इस अनंत सुख में अवगाहन कर सकता है।

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