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    Jeevan Darshan: बेहद निराला है भगवान शिव का स्वरूप, जानिए उनसे जुड़ी प्रमुख बातें

    स्वामी अवधेशानन्द गिरि कहते हैं कि भय भ्रम और अज्ञान जैसी आंतरिक दुर्बलताएं उन्नति में बाधक हैं जिनका निवारण मृत्युंजय महादेव की कृपा से संभव है। श्रावण मास जप ध्यान और संयम द्वारा दिव्यता को चैतन्य करने का समय है। भगवान शिव की आराधना जितनी सरल है उतना ही रहस्यमय भी। शिव के स्वरूप में जीवन-मृत्यु का रहस्य छिपा है।

    By Jagran News Edited By: Vaishnavi Dwivedi Updated: Mon, 07 Jul 2025 01:03 PM (IST)
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    Jeevan Darshan: शिव जी की पूजा का महत्व।

    स्वामी अवधेशानन्द गिरि (आचार्यमहामंडलेश्वर, जूनापीठाधीश्वर)। हमारी आंतरिक दुर्बलताएं जैसे भय, भ्रम, अवसाद अर्थात अज्ञानजन्य अनेक क्लेश और द्वंद्व ही उन्नयन और उत्कर्ष की बड़ी बाधाएं हैं, जिनका निराकरण मृत्युंजय महादेव के अनुग्रह से ही संभव हैं। भगवान आशुतोष देवाधिदेव महादेव शिव आपकी लौकिक पारलौकिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करें। श्रावण जप-ध्यान योग, आत्मानुशासन एवं ऐंद्रिक संयम द्वारा अपने शाश्वत स्वरूप और अंत:करण में समाहित दिव्यता को चैतन्य करने का मास है। सावन की सार्थकता तभी है, जब निर्मल मन से भगवान शिव की आराधना की जाए।

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    भगवान शिव की आराधना जितनी सरल है, उतना ही गूढ़ रहस्‍य भी उसमें समाया हुआ है। शिवरूप में जीवन से लेकर मृत्‍यु तक का रहस्‍य है। यदि शिवरूप को समझते हुए आराधना की जाए तो भक्ति की शक्ति अनंत गुणा बढ़ जाती है।

    भगवान भोलेनाथ का स्वरूप

    यह सारा विश्व ही भगवान भोलेनाथ का स्वरूप है। शंकर की गोल पिंडी दर्शाती है कि यह विश्व-ब्रह्मांड गोल है, इसको हम भगवान का स्वरूप मानें और विश्व के साथ वह व्यवहार करें, जो हम अपने लिए चाहते हैं। शिवलिंग से लेकर त्रिशूल तक भगवान शिव के स्‍वरूप की हर वस्‍तु का विशेष महत्‍व और गहरा रहस्‍य है। शिव का वाहन वृषभ यानी नंदी शक्ति का पुंज भी है। सौम्य-सात्त्विक बैल शक्ति का प्रतीक है। चंद्रमा मन की मुदितावस्था का प्रतीक है।

    चंद्रमा पूर्ण ज्ञान का प्रतीक भी है। शिव भक्त का मन सदैव चंद्रमा की भांति प्रफुल्ल और उसी के समान खिला निःशंक होता है। भगवान शिव के सिर से गंगा की जलधारा बहने से आशय ज्ञानगंगा से है। गंगा जी यहां ज्ञान की प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अवतरित होती हैं। महान आध्यात्मिक शक्ति को संभालने के लिए शिवत्व ही उपयुक्त है।

    सशक्त और पूर्ण

    उनका तीसरा नेत्र ही ज्ञानचक्षु है, जो दूरदर्शी विवेकशीलता का प्रतीक है। जिससे कामदेव जलकर भस्म हो गए। यह तृतीय नेत्र सृष्‍टा ने प्रत्येक मनुष्य को दिया है। सामान्य परिस्थितियों में वह विवेक के रूप में जाग्रत रहता है, पर वह अपने आप में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि कामवासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उन्हें भी जला डालने की क्षमता उसके विवेक में बनी रहती है। शिव ने उस हलाहल विष को अपने गले में धारण कर लिया, न उगला और न पीया।

    उगलते तो वातावरण में विषाक्तता फैलती, पीने पर पेट में कोलाहल मचता। शिक्षा यह है कि विषाक्तता को न तो आत्मसात करें, न ही विक्षोभ उत्पन्न कर उसे उगलें। उसे कंठ तक ही प्रतिबंधित रखें। योगी पुरुष पर संसार के अपमान, कटुता आदि दुख-कष्टों का कोई प्रभाव नहीं होता।

    विश्व-कल्याण की अपनी आत्मिक वृत्ति

    उन्हें वह साधारण घटनाएं मानकर आत्मसात कर लेता है और विश्व-कल्याण की अपनी आत्मिक वृत्ति निश्चल भाव से बनाए रहता है। स्वयं विष पीता है, परंतु औरों के लिए अमृत लुटाता रहता है। यही योगसिद्धि है। मुंडों की माला हमें यह बोध कराती है कि राजा व रंक समानता से इस शरीर को छोड़ते हैं। वे सभी एकसूत्र में पिरो दिए जाते हैं। यही समत्व योग है। जिस चेहरे को हम बीस बार दर्पण में देखते हैं, सजाते संवारते हैं, वह मुंडों की हड्डियों का टुकड़ा मात्र है। जिस बाहरी रंग के टुकड़ों को हम देखते हैं, उसे उघाड़कर देखें तो मिलेगा कि मनुष्य की जो खूबसूरती है उसके पीछे सिर्फ हड्डी का टुकड़ा जमा हुआ पड़ा है।

    शिव डमरू बजाते हैं और मस्ती में नृत्य भी करते हैं। यह प्रलयंकर की मस्ती का प्रतीक है। व्यक्ति उदास, निराश और खिन्न, विपन्न बैठकर अपनी उपलब्ध शक्तियों को न खोए, पुलकित-प्रफुल्लित जीवन जीये। शिव यही करते हैं, इसी नीति को अपनाते हैं।

    शिव कल्याण के देवता

    उनका डमरू ज्ञान, कला, साहित्य और विजय का प्रतीक है। यह पुकार-पुकारकर कहता है कि शिव कल्याण के देवता हैं। उनके हर शब्द में सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् की ही ध्वनि निकलती है। डमरू से निकलने वाली सात्त्विकता की ध्वनि सभी को मंत्रमुग्ध सा कर देती है और जो भी उनके समीप आता है अपना सा बना लेती है। त्रिशूल धारण का अर्थ है कि लोभ, मोह, अहंता के तीनों भवबंधन को ही नष्ट करने वाला। साथ ही हर क्षेत्र में औचित्य की स्थापना कर सकने वाला एक ऐसा अस्त्र है – त्रिशूल।

    यह शस्त्र त्रिशूल रूप में धारण किया गया - ज्ञान, कर्म और भक्ति की पैनी धाराओं का है। शिव बाघ का चर्म धारण करते हैं। जीवन में बाघ जैसे ही साहस और पौरुष की आवश्यकता है, जिसमें अनर्थों और अनिष्टों से जूझा जा सके। शिव बिखरी भस्म को शरीर पर मल लेते हैं, ताकि ऋतु प्रभावों का असर न पड़े।

    जीवन के साथ गुंथा हुआ

    मृत्यु को जो भी जीवन के साथ गुंथा हुआ देखता है, उस पर न आक्रोश के तप का आक्रमण होता है और न भीरुता के शीत का। वह निर्विकल्प व निर्भय बना रहता है। उन्हें मरघटवासी कहा जाता है। वे प्रकृति क्रम के साथ गुंथकर पतझड़ के पीले पत्तों को गिराते तथा बसंत के पल्लव और फूल खिलाते रहते हैं। जीवन के कष्ट कठिनाइयों से जूझकर शिवतत्व सफलताओं की ऊंचाइयों को प्राप्त करता है।

    गृहस्थ होकर भी पूर्ण योगी होना शिवजी के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया है कि गृहस्थ रहकर भी आत्म-कल्याण की साधना असंभव नहीं है।

    सद्ज्ञान को मनन और ग्रहण करने का प्रयत्न करें, परमार्थ के पथ पर अग्रसर होने की चेष्टा से सर्वश्रेष्ठ संसार मे कुछ भी नहीं है। सच्चे शिव के उपासक वही हैं, जो अपने मन में स्वार्थ भावना को त्यागकर परोपकार की मनोवृत्ति अपनाते हैं। भगवान शिव की आराधना, साधना, उपासना से मनुष्य अपने पापों एवं संतापों से इसी जन्म में मुक्ति पा सकता है। मुक्ति की अभिलाषा के लिए हमारे धर्म शास्त्रों में 'महामृत्युंजय मंत्र' को सबसे उपयुक्त बताया गया है, जिसे 'त्रयंबकम् मंत्र' भी कहा जाता है।

    श्री महामृत्युंजय महादेव मंदिर

    यजुर्वेद के रूद्र अध्याय में, भगवान शिव की स्तुति हेतु की गई एक वंदना है। इस मंत्र में शिव को 'मृत्यु को जीतने वाला' (मृत्युंजय) बताया गया है। यह गायत्री मंत्र के समकक्ष हिंदू धर्म का सबसे व्यापक रूप से जाना जाने वाला मंत्र है। 'श्री महामृत्युंजय महादेव मंदिर' दक्षनगरी कनखल के श्री हरिहर आश्रम में है। महाशिवरात्रि, श्रावण मास में यहां भगवान शंकर के महामृत्युंजय स्वरूप की विशेष पूजा होती है। आश्रम प्रांगण में ही पारे (मर्करी) का शिवलिंग भी है। यहीं पर सिद्धिदाता 'रुद्राक्ष वृक्ष' है, जिसके नीचे द्वादश ज्योर्तिलिंग के दर्शन भी होते हैं। भगवान महामृत्युंजय का स्वरूप अत्यंत सरल व ध्यान मुद्रा में है।

    भगवान महामृत्युंजय अष्ठ भुजाओं वाले हैं। जिनके दो हाथों में अमृत कलश, चार हाथों में स्नान के लिए जल कलश, एक हाथ में रुद्राक्ष माला व दूसरे हाथ में ज्ञान मुद्रा है। महामृत्युंजय भगवान मात्र जलाभिषेक से ही सारी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। शिव संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है - कल्याणकारी या शुभकारी। यजुर्वेद में शिव को शांतिप्रदाता बताया गया है।

    पापों का नाश करने वाला

    'शि' का अर्थ है- पापों का नाश करने वाला; जबकि 'व' का अर्थ है - देने वाला यानी दाता। भगवान शिव के नाम का उच्चारण करने से ही दुखों का निवारण हो जाता है। भगवान शिव सृष्टि के प्रकट देव हैं, जो सूक्ष्म आराधना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान शिव हम सभी के इष्ट हैं। भगवान शिव के सिर पर गंगा है, उनके सिर पर चंद्रमा विराजते हैं, अतः उन्हें 'चन्द्रमौलि' कहते हैं। भगवान शिव को भक्तों ने बहुत से नाम दिए हैं, जिनमें महादेव, आशुतोष, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र और नीलकंठ आदि शामिल हैं।

    वेद में इनका नाम रुद्र है, यह व्यक्ति की चेतना को पढ़ लेते हैं। श्रावण मास की त्रयोदशी तिथि में 'शिव तत्व' अत्यन्त चैतन्य होता है और आशुतोष भगवान शिव सम्पूर्ण जगत को अपनी करुणा व कृपा से आप्लावित करने को सहज ही तत्पर रहते हैं। अंतःकरण में 'शिव-तत्व' के जागरण की महनीय बेला 'श्रावणी शिवरात्रि' आप सभी के लिए मंगलमय हो। भगवान मृत्युंजय त्रैलोक्य का कल्याण करें।

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