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    रूप का रहस्य, रहस्य का रूप

    हिमालयी महाकुंभ श्री नंदा देवी राजजात का अद्भुत, अलौकिक, अतुलनीय, अति प्राचीन, अविस्मरणीय और अति दुर्लभ पड़ाव है रूपकुंड। चमोली जनपद के सीमांत देवाल विकासखंड में समुद्रतल से 477

    By Edited By: Updated: Fri, 15 Aug 2014 01:58 PM (IST)

    देहरादून, [दिनेश कुकरेती]। हिमालयी महाकुंभ श्री नंदा देवी राजजात का अद्भुत, अलौकिक, अतुलनीय, अति प्राचीन, अविस्मरणीय और अति दुर्लभ पड़ाव है रूपकुंड। चमोली जनपद के सीमांत देवाल विकासखंड में समुद्रतल से 4778 मीटर की ऊंचाई पर नंदाकोट, नंदाघाट और त्रिशूल जैसे विशाल हिमशिखरों की छांव में चट्टानों और पत्थरों के विस्तार के बीच अवस्थित रूपकुंड एक ऐसा मनोरम स्थल है, जो अपनी स्वास्थ्यवर्धक जलवायु, दिव्य, अनूठे रहस्यमय स्वरूप और नयनाभिराम दृश्यों के लिए जाना जाता है। मान्यता है कि एक बार कैलाश जाते समय देवी नंदा को प्यास लगी। नंदा के सूखे होंठ देख भगवान शिव ने चारों ओर देखा, परंतु कहीं पानी नहीं दिखाई दिया। सो उन्होंने अपना त्रिशूल धरती पर गाड़ दिया और वहां से कुंडाकार में जलधारा फूट पड़ी। नंदा ने कुंड से पानी पिया और उसके स्च्च्छ जल में स्वयं को शिव के साथ एकाकार देख आनंदित हो उठी। तब से यह कुंड रूपकुंड और शिव अ‌र्द्धनारीश्वर कहलाए। यहां का पर्वत त्रिशूल और नंदा-घुंघटी, उससे निकलने वाली जलधारा नंदाकिनी कहलाई।

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    इतिहासकार डॉ. शिवप्रसाद नैथानी लिखते हैं कि 40 गुणा 30 फीट लंबाई-चौड़ाई में सिमटी भयानक हिमकगारोंयुक्त कुंड आकृति वली इस हिमानी झील का नाम सर्वप्रथम 1898 में ब्रिटिश अन्वेषकों को ज्ञात हुआ। 1907 में त्रिशूली अभियान पर निकले लौंगस्टाफ होमकुंड गली (पास) तक पहुंचे थे। उन्होंने वहां अस्थि-पंजर, चप्पल आदि वस्तुओं का उल्लेख अपनी पुस्तक में किया है। 1927 में अल्मोड़ा के डिप्टी कमिश्नर रटलेज ने आधुनिक पर्वतारोहण उपकरणों से लैस होकर त्रिशूली अभियान किया, परंतु वे भी होमकुंड गली से आगे नहीं बढ़ सके। 1883 में पुन: ग्राह्मा ने भी इसी रास्ते से एक असफल पर्वतारोहण अभियान किया था। 1942 में वन विभाग के एक अधिकारी मधवाल और स्कॉटिश ले.हेमिल्टन जब रूपकुंड पहुंचे तो उन्हें भी चप्पलें और अस्थि अवशेष प्राप्त हुए थे। 1955 में मधवाल को फिर तत्कालीन उपवन मंत्री जगमोहन सिंह नेगी के साथ वहां जाने का अवसर मिला और तब रूपकुंड के कंकालों के नृवंश का और ऐतिहासिकता का अन्वेषण आरंभ हुआ। निष्कर्ष यह निकला कि ये अवशेष कम से कम 650 वर्ष पुराने हैं, जिसमें 150 वर्ष की वृद्धि या कमी की जा सकती है।

    हालांकि, नंदा पथ से जुड़ी लोक मान्यताओं और कथाओं में कन्नौज के राजा यशधवल की सेना के साथ कैलाश की यात्रा देवी के कुपित होने से सैकड़ों सैनिकों एवं लोगों के हिमशिखरों के नीचे रूपकुंड के समीप दब जाने से मौत होने का जिक्र है। ये नरकंकाल उन्हीं लोगों के हैं। साहित्यकार यमुना दत्त वैष्णव कहते हैं कि गढ़वाल के कुछ सीमांत गांवों में मुर्दो को ऊंचे-ऊंचे हिमकुंडों तक ले जाकर विसर्जित करने की प्रथा है। माणा (12 हजार फीट) गांव के लोग अपने मृतकों को सतोपंथ कुंड (18 हजार फीट) तक ले जाकर विसर्जित करते हैं। संभव है कि रुद्रकुंड (रूपकुंड) ऐसा ही श्मशान हो, जहां प्राचीनकाल में कत्यूर के लोग भी अपने मुर्दो को उनकी सद्गति के लिए वैतरणी को पार कराकर डाल जाते हों। बहरहाल नर कंकालों का रहस्य जो भी हो, लेकिन इस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि रूपकुंड नंदा पथ का अलौकिक पड़ाव है।

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