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    कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति नंदा की जात

    नंदा राजजात महज धार्मिक यात्रा नहीं, संस्कृति का प्रतिबिंब भी है। यह ऐसी यात्रा है, जो उत्तराखंडी लोक से ही परिचित नहीं कराती, उसके वैशिष्ट्य को भी उजागर करती है। नंदा के जागरों में गढ़वाल की सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना के साथ ही लोकजीवन की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं, कठिनाइयों आदि का यथ्

    By Edited By: Updated: Tue, 12 Aug 2014 03:55 PM (IST)

    देहरादून, जागरण संवाददाता। नंदा राजजात महज धार्मिक यात्रा नहीं, संस्कृति का प्रतिबिंब भी है। यह ऐसी यात्रा है, जो उत्तराखंडी लोक से ही परिचित नहीं कराती, उसके वैशिष्ट्य को भी उजागर करती है। नंदा के जागरों में गढ़वाल की सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना के साथ ही लोकजीवन की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं, कठिनाइयों आदि का यथातथ्य चित्रण हुआ है। नंदा कभी भावों और संवेदनाओं में सहेलियों के साथ अठखेली करती है तो कभी हिमालय जैसी ससुराल की कठिनाइयों का रुदन करती है। वह मां-बाप को साधिकार ताना भी देती है। इसीलिए नंदा के जागरों में मायके की बेटी का रुदन देखने को मिलता है। वे खुदेड़ गीत जैसे लगते हैं।

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    लोक मान्यता है कि हिमवंत और मैणा की सात पुत्रियों में सबसे छोटी नंदा का विवाह कैलासवासी शिव से किया गया था। बारह वर्ष तक जब पिता हिमवंत ने नंदा की कोई सुध नहीं ली तो उसने माता-पिता को पुकारा। इस दौरान उसके कुछ अश्रु धरती पर गिर पड़े, जिससे पिता के देश में उथल-पुथल मच गई। वह चिंतित होकर महर्षि नारद के पास पहुंचे। नारद ने उन्हें सलाह दी कि शारदा (हेमंत) ऋतु में सौगात लेकर नंदा को मनाने जाएं। इन्हीं स्मृतियों को जीवित रखने के लिए तब से वार्षिक जात नंदा कुरुड़ का आयोजन किया जाता है। बारह वर्ष में निकलने वाली वाली नंदा राजजात 'कुरुड़ जात' के निमंत्रण पर ही आयोजित की जाती है।

    राजजात की विशेषता यह है कि वह गढ़वाल की राज परंपराओं के अनुसार होती है। गढ़वाल राज तो नहीं रहा, लेकिन परंपरा वही है। जात नौटी गांव से ही मुख्य छतौली व चौसिंग्या खाडू के साथ विधिवत प्रस्थान करती है। कांसुवा के कुंवर ही राजजात का शुभारंभ करते हैं और अन्य देवियों की छतौलियां एवं प्रतीक चिह्न इसमें शामिल होते हैं। ये सभी देवियां कुरुड़ बधाण की नंदा के आमंत्रण पर बारहवें वर्ष कैलाश प्रस्थान करती हैं। नंदा गढ़वाल-कुमाऊं में एक आराध्य देवी ही नहीं, अपितु रक्षक के रूप में भी पूजी जाती हैं। इसके बावजूद उनकी लोक स्वीकार्यता बहिन, बेटी व बहू के रूप में ही है।

    साहित्यकार डॉ.दिनेश चंद्र पुरोहित के अनुसार गढ़वाल की लोकाभिव्यक्ति पर विचार करते हुए 'खुद' का उल्लेख न हो तो एक अधूरापन रह जाएगा। कदाचित यह कथन अतिरंजनापूर्ण नहीं होगा कि गढ़वाल के सांस्कृतिक परिवेश में 'खुद' का एकांतिक महत्वपूर्ण स्थान है और हिंदी समेत किसी भी अन्य लोकभाषा में इसका सटीक समानार्थी शब्द नहीं मिलता। डॉ.पुरोहित कहते हैं कि गढ़वाली 'खुद' शब्द स्मृत्यात्मक क्षुधा का द्योतक है, जिसमें प्रमुख रूप से नव विवाहिता की कोमलता, भावुकता, विवशता एवं ससुराल की कष्टजन्य पीड़ा के साथ मायके की मधुर स्मृतियां समाहित हैं। लगभग प्रत्येक पार्वती को इस विकट एवं करुण स्थिति का सामना करना पड़ता है। इन्हीं तमाम चुनौतियों से पार पाने का नाम है श्री नंदा देवी राजजात।

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