मन एक मंदिर है
मंदिर हमारे भीतर ही है। इस मंदिर में प्रतिमा, आरती, प्रसाद, शिखर, ध्वजा आदि क्या हैं? मोरारी बापू का चिंतन.. गोस्वामी तुलसी दास ने शास्त्र सम्मत मंदिर हमारे सामने रखा और वह है मन-मंदिर। प्रत्येक व्यक्ति का मन एक मंदिर है। अब मंदिर है, तो मूर्ति भी होनी चाहिए। पुजारी भी होना चाहिए, शिखर होना चाहिए, ध्वजा, आरती व प्रसाद भी होना चाहिए
मंदिर हमारे भीतर ही है। इस मंदिर में प्रतिमा, आरती, प्रसाद, शिखर, ध्वजा आदि क्या हैं? मोरारी बापू का चिंतन..
गोस्वामी तुलसी दास ने शास्त्र सम्मत मंदिर हमारे सामने रखा और वह है मन-मंदिर। प्रत्येक व्यक्ति का मन एक मंदिर है। अब मंदिर है, तो मूर्ति भी होनी चाहिए। पुजारी भी होना चाहिए, शिखर होना चाहिए, ध्वजा, आरती व प्रसाद भी होना चाहिए। अपने जीवन के विकास के लिए, अंतर प्रकाश के लिए हमें विचार करना चाहिए कि मन-मंदिर में मूर्ति, पुजारी, शिखर, ध्वजा, आरती, प्रसाद आदि क्या हैं?
परमात्मा का कोई भी रूप मन-मंदिर की मूर्ति है। चाहे वह नारायण हों, लक्ष्मी नारायण हों, शिव हों, दुर्गा हों, गणेश हों, हनुमान हों, सीता-राम या राधा-कृष्ण हों। ईश्वर के प्रति हमारी आस्था का कोई भी आकार मन-मंदिर की मूर्ति है। सद्गुरु के प्रति हमारा भाव भी हमारे मन-मंदिर की मूर्ति है। दूसरी बात, इस मंदिर का पुजारी कौन? पुजारी सदैव भगवान के सामने रहता है। जैसे हनुमान सदैव राम के सम्मुख रहते हैं। हनुमान पुजारी हैं। अगर एक विग्रह (आकार) के रूप में हनुमान को न देखें, तो हनुमान यानी सेवा। सेवा करने वाला ही हनुमान है, सच्चा पुजारी है। वैष्णव तो पूजा शब्द ही नहीं बोलते, सेवा ही बोलते हैं। सेवा जितनी वैरागी कर सकता है, उतनी रागी कभी नहीं कर सकता। सेवा करने वाला वैरागी होना चाहिए। मतलब, उसकी वृत्ति वैरागी होनी चाहिए। जिसकी लोभवृत्ति होगी, तो वह पुजारी नहीं होगा।
अब बात आती है कि मन-मंदिर का शिखर कौन? निरंतर उच्चतम चिंतन ही मनमंदिर का शिखर है। आज जो चिंतन है, कल थोड़ा और ऊपर उठे। मन को निरंतर ऊर्ध्वगामी बनता शुभ-संकल्प ही शिखर है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आप शुभ चिंतन करें, तो आपके रोग कम होंगे। चरक का भी ऐसा ही मानना है। आदमी जितना शुभ चिंतन करता है, शरीर को स्वस्थ रखने में मदद करता है। शुभ चिंतन के साथ हरि स्मरण तो औषधि की भी औषधि है। सबके प्रति हमारे मन का प्रेम मन-मंदिर की ध्वजा है। ध्वजा लहराती रहती है, मगर स्थान नहीं बदलती। प्रेम सबके प्रति हो, मगर उसकी नींव कमजोर नहीं होनी चाहिए। मैं अक्सर कहता हूं कि सत्य खुद के लिए, प्रेम दूसरों के लिए और करुणा सबके लिए होनी चाहिए। सत्य एकवचन, प्रेम द्विवचन और करुणा बहुवचन। मन का शिखर है शुभचिंतन, ध्वजा है प्रेम और प्रसाद का अर्थ है कृपा। प्रसाद कभी थाली भरकर नहीं खाया जाता। इसलिए तुलसी कहते हैं- जाकी कृपा लवलेस। एक छोटी सी कृपा ही पर्याप्त है। अब बात आती है कि मन-मंदिर की आरती क्या है? मुझे लगता है कि अद्वैतभाव ही आरती है। अद्वैत का सरल उपाय है आर्तभाव। जब आर्तभाव होता है, तब सब एक लगता है। सुख में सब विलग हो जाते हैं, मगर दुख में सब एक हो जाते हैं। परिवार में कष्ट आता है, तो सब एक हो जाते हैं। एक आर्तभाव, एक गदगद भाव, एक कसक, एक पीड़ा, एक दीनता का भाव, यह आरती है।
भक्तिमार्ग में दीनता का बहुत बड़ा पड़ाव है। एक ऐसी दीनता जहां दीनबंधु को आना पड़ता है। हमारे स्वभाव में दीनता हो। घी में रूई की बाती भीगी न हो तो ज्योति प्रज्ज्वलित नहीं होती। रूई कुछ क्षणों में जल जाती है, लेकिन ज्योति नहीं बनती। घी यानी स्नेह अथवा स्निग्धता। यही आर्तभाव है। अंत:करण को धोने के लिए चाहिए आर्तभाव। द्रौपदी का आर्तभाव तत्क्षण हरि को प्रकट कर गया।
मन-मंदिर में मूर्ति, पुजारी, शिखर, ध्वजा, आरती व प्रसाद के साथ जो सातवीं चीज होनी चाहिए, वह है मानवता। मंदिरों में जब-जब धर्म के नाम पर भेद हुआ, बहुत कटु फल समाज ने भोगे। मूर्ति हमें सिखाती है कि मानव भी पूजा जाए। मानव अस्पृश्य न हो। मानव की जिंदगी की भी महिमा समझी जाए।
[प्रस्तुति: राज कौशिक]
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