Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    श्रीमद्भागवत के इस श्लोक से जानें जीवन का सार, सभी दुखों का होगा अंत

    Updated: Mon, 08 Sep 2025 02:13 PM (IST)

    श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कंध में भगवान ने ब्रह्मा जी को चार श्लोकों में संपूर्ण धर्मशास्त्रों के मूल आध्यात्मिक तत्वों को उपदेशित किया गया है। प्रस्तुत है तृतीय श्लोक के दार्शनिक तथ्य का विवेचन जिसमें जगत और जगदीश का एकत्व बताया गया तो आइए इसके बारे में विस्तार से जानते हैं।

    Hero Image
    Shrimad Bhagwat: श्रीमद्भागवत से जुड़ी प्रमुख बातें।

    आचार्य नारायण दास (आध्यात्मिक गुरु, श्रीभरत मिलाप आश्रम, मायाकुंड, ऋषिकेश)। हे ब्रह्मन्! जिस प्रकार सर्वव्यापी परमात्म तत्व समस्त ब्रह्मांड प्रवेश करते हुए भी प्रवेश नहीं करते हैं, उसी प्रकार मैं जगन्ननियंता जगदीश्वर स्वयं सृजन सृष्टि में स्थित होते हुए भी, उसमें नहीं रहता। जैसे घट का निर्माण करते समय उसका पूर्वरूप मिट्टी ही है और घड़ा बनने के बाद भी वह मिट्टी ही है, केवल उसके आकार में परिवर्तन है, मूल तत्व में नहीं। जो वस्तु मिट्टी, जल, वायु, अग्नि और वायु से निर्मित हुई, उसमें यह पंचमहाभूत पहले ही विद्यमान हैं, उसमें प्रवेश नहीं करते हैं, उसी प्रकार संसार प्रभु से ही बनता है, उन्हीं में रहता है।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    भगवान उपदेशित करते हैं, जैसे समत प्राणियों के शरीर की दृष्टि से मैं उनमें आत्मा के रूप से प्रवेश किए हुए हूं और आत्मदृष्टि से मेरे अतिरिक्त कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट भी नहीं हूं। यहां दार्शनिक तथ्य यह है कि भगवान के ही तेज से सारी सृष्टि प्रकाशित है। इस शाश्वत सिद्धांत के अनुरूप भगवान किसी में नहीं, अपितु सभी भगवान से प्रभावित हैं।

    यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।

    प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्।।

    सार यह कि यह संसार प्रभु से ही बनता है, उन्हीं में रहता है। उन्हीं की शक्ति और सत्ता से ही सृष्टि का निर्माण होता है तथा सृष्टि के सभी तत्व प्रभु में ही विद्यमान हैं। जैसे मिट्टी और घड़े के उदाहरण में मूल तत्व मिट्टी ही है, उसी प्रकार सृष्टि का मूल तत्व प्रभु ही हैं। पृथ्वी पर जितने भी संप्रदाय या मत-मतांतर हैं, उनके अनुयायिओं को यह तथ्य विचारपूर्वक समझ लेना चाहिए, सबका प्रकाशक एक परमात्मा है। हमने अपनी-अपनी समझ के अनुसार सर्वव्यापक सार्वभौम ईश्वर को नामरूपादि की उपाधि से महिमामंडित कर दिया है।

    मूल अवधारणा

    उक्त श्लोक अद्वैत वेदांत की मूल अवधारणा को आलोकित करता है, जिसमें ब्रह्म के सर्वव्यापी होने और उनके अखंड स्वरूप का वर्णन किया गया है। ‘भूतेषु’ यहां यह भी प्रकार के भौतिक तत्वों का संकेत देता है और ‘महान्ति भूतानि’ से तात्पर्य बड़े और छोटे सभी प्रकार के जीवों से है, जो इन भौतिक तत्वों में प्रविष्ट होते हैं और साथ ही साथ उनसे अलग भी होते हैं।

    इस श्लोक का दार्शनिक संदेश यह है कि ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है- सभी जीवों में, सभी वस्तुओं में। यहां यह भी कहा गया है कि ब्रह्म सबमें ‘प्रविष्टानि’ प्रवेश करने वाला है और ‘अप्रविष्टानि’ अर्थात प्रवेश न करने वाला भी है, यानी कि ब्रह्म इनमें परिव्याप्त है, लेकिन फिर भी स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध है।

    अखंड सत्यस्वरूप परमात्मा

    इस श्लोक के माध्यम से, अद्वैत वेदांत का दार्शनिक तथ्य हमें यह बोध करता है कि ब्रह्म इस संसार में सर्वत्र समान रूप से परिव्याप्त होते हुए भी सबसे पृथक है। सर्वव्यापी दिव्य सत्ता सृष्टि के अस्तित्व पूर्व में भी विद्यमान रहती है। हमें सदा यह अनुभव करना चाहिए कि हम एक ही अखंड सत्यस्वरूप परमात्मा से प्रकाशित हैं।

    यह यथार्थ ज्ञान हमें अपने जीवन को एक नए दृष्टिकोण से देखने और जीने की प्रेरणा देता है, जहां हम स्वयं को और अपने आसपास की दुनिया को एक ही अखंड सत्यस्वरूप परमात्मा के प्रकाश में देखते हैं।

    यह भी पढ़ें: Jeevan Darshan: जीवन में सुखी और प्रसन्न रहने के लिए इन बातों का जरूर रखें ध्यान

    यह भी पढ़ें: Pitru Paksha 2025: कब और क्यों मनाया जाता है पितृ पक्ष? यहां जानें धार्मिक महत्व