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    Pitru Paksha 2025: कब और क्यों मनाया जाता है पितृ पक्ष? यहां जानें धार्मिक महत्व

    Updated: Mon, 01 Sep 2025 12:54 PM (IST)

    महाभारत के खिलपर्व हरिवंश के 16वें अध्याय में भीष्म एवं युधिष्ठिर के संवाद में एक रोचक प्रसंग वर्णित है। भीष्म पितामह कहते हैं कि मैं अपने पिता शांतनु का श्राद्ध कर रहा था उस समय पिताजी का दाहिना हाथ प्रकट हो गया और गंभीर ध्वनि में पिता ने कहा कि पिंड मेरे हाथ पर ही दे दो। मैंने श्राद्ध कराने वाले आचार्यों से पूछा कि शास्त्र का विधान क्या है?

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    Pitru Paksha 2025: पितृ पक्ष का धार्मिक महत्व

    प्रो. गिरिजा शंकर शास्त्री (अध्यक्ष, ज्योतिष विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय)। श्राद्ध एवं तर्पण, ये दोनों शब्द पितृ कर्म में प्रयुक्त होते हैं। जिस क्रिया से सत्य धारण किया जाता है, उसको श्राद्ध कहते हैं। जो भी श्रद्धापूर्वक पितरों को लक्ष्य करके दिया अथवा किया जाता है, उसे भी श्राद्ध कहते हैं। जिससे पितर तृप्त होते हैं, उसे तर्पण कहते हैं।

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    आपस्तंब ऋषि ने कहा है कि जैसे देवताओं के लिए हवनीय पदार्थ अग्नि में स्वाहा बोलकर डाला जाता है, उसी प्रकार पितरों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक स्वधा बोलते हुए जो प्रदान किया जाता है, उसे श्राद्ध कहते हैं। स्कंदपुराण कहता है कि श्राद्ध में श्रद्धा ही मूल है।  

    अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या किया गया श्राद्ध पितरों को प्राप्त होता है? यदि हां तो इसका प्रमाण क्या है? इस विषय में योगज प्रत्यक्ष करने वाले आचार्यों, ऋषियों की मान्यतानुसार, मृत्यु के पश्चात जीव का स्थूल शरीर से नाता टूट जाता है, किंतु सूक्ष्म शरीर तो तब भी बना रहता है। अतः स्थूल शरीर के स्वभावानुसार भूख, प्यास, इच्छा, प्रयत्न, तुष्टि, रोष, कष्ट आदि बने रहते हैं।

    स्थूल शरीर में रहता हुआ व्यक्ति जैसे अपने अनेक कार्य प्रतिनिधि के माध्यम से करता है, उसी तरह सूक्ष्म शरीर में आ जाने पर अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रतिनिधि को चाहता है। प्रतिनिधि वहीं हो सकता है, जो योग्य हो, विश्वासपात्र हो और उससे ममत्व भी हो। प्रत्येक जीव अपनी संतानों से अपेक्षा करता है कि वे सदाचारी हों, अतः शास्त्रों में श्राद्ध करने का अधिकार भी उसी को दिया है, जो योग्य पात्र हों।

    शास्त्रों में पितरों की संख्या अनेक कही गई है, उनमें मुख्य सात दिव्य पितर होते हैं- सुकाला, आंगिरस, सुस्वधा, सोम, वैराज, अग्निष्वात तथा वर्हिषद। आरंभ के चार मूर्त रूप में हैं तथा बाद के तीन अमूर्त। शास्त्रों के अनुसार, ये काम रूप होते हैं, स्मरण करते ही कहीं भी पहुंच जाते हैं। ये तृप्त होने पर संतानों की पुष्टि करते हैं और उस वंश परंपरा की वृद्धि भी करते हैं।

    आदित्यपुराण कहता है कि पितर नहीं हैं, ऐसा मानकर जो श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करता है, वह इस जीवन के पश्चात् भी वायुरूप से भटकता रहता है। महाभारत का कथन है जिस दिन मास पक्ष तिथि को पिता, पितामह, माता आदि की मृत्यु हुई हो, उसी दिन बिना आवाहन के भी वे अपने स्थान पर श्राद्ध ग्रहण करने की इच्छा से आते हैं।  

    आदिकाल से ही श्राद्ध की परंपरा रही है। वाल्मीकीय रामायण में अयोध्याकाण्ड के 77वें सर्ग में वर्णन है कि राजा दशरथ के दाहकर्म के पश्चात भरत जी ने 12 दिन पर्यंत श्राद्ध किया था। पुनः 103वें सर्ग में वर्णन है कि भरत द्वारा पिता की मृत्यु का समाचार सुनने के पश्चात भगवान श्रीरामचंद्र जी ने मंदाकिनी नदी में जाकर पिता के निमित्त पिंडदान एवं जलदान किया था।

    महाभारत के खिलपर्व हरिवंश के 16वें अध्याय में भीष्म एवं युधिष्ठिर के संवाद में एक रोचक प्रसंग वर्णित है। भीष्म पितामह कहते हैं कि मैं अपने पिता शांतनु का श्राद्ध कर रहा था, उस समय पिताजी का दाहिना हाथ प्रकट हो गया और गंभीर ध्वनि में पिता ने कहा कि पिंड मेरे हाथ पर ही दे दो। मैंने श्राद्ध कराने वाले आचार्यों से पूछा कि शास्त्र का विधान क्या है?

    आचार्यों की सम्मति थी कि पिंड तो कुश पर ही देना चाहिए। कारण यह कि यदि हाथ पर पिंड रख दूं तो श्राद्ध करने वाले सभी लोग यह अपेक्षा करेंगे कि उनके पिता-माता का हाथ आए तब पिंड दूं, जो कि संभव नहीं होगा। भीष्म जी कहते हैं कि मेरी शास्त्रनिष्ठा देखकर पिता जी गद्गद हो गए और मुझे इच्छा मृत्यु का वरदान देकर स्वर्ग लौट गए।

    गरुडपुराण के प्रेतकल्प में भगवान विष्णु ने गरुड जी से दाहकर्म के पूर्व से लेकर संपूर्ण श्राद्ध संबंधी विवरण को विस्तारपूर्वक उपस्थापित किया है। श्राद्ध के पांच मुख्य भेद हैं - काम्य श्राद्ध, नैमित्तिक श्राद्ध, वृद्धि श्राद्ध, एकोदिष्ट, पार्वण। संतान की इच्छा से अथवा अन्य कामनाओंवश जो श्राद्ध किया जाता है, उसे काम्य श्राद्ध कहते हैं।

    जब किसी कारणवश कोई निमित्त उपस्थित होने पर श्राद्ध किया जाता है, तब नैमित्तिक श्राद्ध कहते है। नांदीमुख श्राद्ध प्रायः प्रत्येक संस्कारों में किया जाता है। इसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। केवल एक को उद्देश्य करके किया गया श्राद्ध एकोदिष्ट है, जबकि आश्विन कृष्ण पक्ष तथा चैत्रकृष्ण पक्ष के पंद्रह-पंद्रह दिन में किया गया तर्पण एवं श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहा जाता है।

    अब प्रश्न आता है कि गया में ही क्यों पितरों का पिंडदान किया जाए। यद्यपि पुराणों में अनेक कथाएं आती हैं। भगवान विष्णु द्वारा ‘गय’ नामक असुर का वध करने के कारण वह स्थान गया हुआ। वही स्थान पितरों को उपयुक्त लगा। कहा जाता है कि गया में कन्या राशि एवं मीन राशि के सूर्य में ऐसा प्राकृतिक संयोग उपस्थित होता है कि इस समय फल्गु नदी विशेष पुण्यदायी बन जाती है। अतः इस काल में पितरों के निमित्त गया श्राद्ध हेतु सर्वोत्तम बन जाता है।

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