Jeevan Darshan: जीवन में रहना चाहते हैं सुखी और प्रसन्न, तो इन बातों का जरूर रखें ध्यान
समस्या यह नहीं है कि संसार में दुख है। समस्या यह है कि हम उसे बिना समझे बिना रुके भागते हुए जीते हैं। समाधान एक ही है रुको। भीतर देखो। समझो। ध्यान करो जैसे कोई कोड ठीक किया जाता है। विचारों को देखो लेकिन उनका न्याय मत करो। हर अनुभव से पहले स्वयं से पूछो क्या यह स्थायी है? अगर नहीं है तो जाने दो।

श्री श्री रवि शंकर (आर्ट आफ लिविंग के प्रणेता आध्यात्मिक गुरु)। हमें देखने के लिए आंखें मिलीं हैं, सुनने के लिए कान और सोचने के लिए दिमाग। पर क्या यह सच में हमें वास्तविकता दिखाते हैं? कभी आपने सोचा है कि एक ही घटना को दो लोग दो बिल्कुल अलग तरह से क्यों देखते हैं?
कोई आपको घूरता है, तो आप सोचते हैं कि वह क्रोधित है। जबकि हो सकता है वह बस किसी चिंता में डूबा हो। असली सच्चाई क्या है- आपकी व्याख्या या उसकी साधारण मौन उपस्थिति?
वस्तुत: हम संसार को वैसे नहीं देखते, जैसा वह है। हम उसे वैसे देखते हैं, जैसे हम हैं। हमारा मन एक कैमरा नहीं, एक प्रोजेक्टर है। हमारी भावनाएं, डर, इच्छाएं आदि सब कुछ इस प्रोजेक्टर की लाइट के माध्यम से दुनिया पर पड़ता है। जो हम देखते हैं, वह हमारी ही मानसिक छाया होती है। मनोविज्ञान इसे प्रोजेक्शन कहता है। वेदांत इसे मन की गति कहता है। जब तक हम अपनी भीतर के संसार को नहीं समझते, बाहर की कोई वस्तु पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो सकती।
हमारे ऋषियों ने इसे संक्षेप में इस तरह समझाया : “जब चेतना बाहर जाती है, तो वह मन कहलाती है और जब भीतर लौटती है, तो वह ‘नम:’ बन जाती है। नम: अर्थात मन का न होना।” यह सिर्फ दर्शन नहीं, एक अभ्यास करने योग्य वास्तविकता है।
हमारी पूरी अनुभूति मापन पर टिकी है। हम हर वस्तु, घटना, स्थिति को मापते हैं- प्रकाश कितना तेज, स्वर कितना ऊंचा, व्यक्ति कितना अच्छा या बुरा। लेकिन क्या माप ही सच्चाई है? आप आज किसी परीक्षा में फेल हो जाते हैं, क्या आप असफल हैं? नहीं। यह एक अस्थायी स्थिति है। जो बदलता है, वह सत्य नहीं हो सकता। वेदांत इस संसार को माया कहता है, जिसका अर्थ है: जो मापा जा सके, वह माया है। माया का स्वभाव ही है बदलना।
तो फिर सत्य क्या है? सत्य वह चेतना है, जो देखती है, सोचती है, अनुभव करती है, लेकिन स्वयं कभी नहीं बदलती। वही हर अनुभव के पीछे वर्तमान स्थायी सत्ता है। वही साक्षी है और वही ब्रह्म। तकनीकी भाषा में सोचें तो इंटरनेट पर भेजा गया डाक्युमेंट बटन दबाते ही हजारों मील दूर पहुंच जाता है।
किस माध्यम से जा रहा है, आप उसको नहीं देख सकते, लेकिन वह होता है। वैसी ही हमारी चेतना है: एक अदृश्य नेटवर्क, जो सब जगह है और सब कुछ जोड़ता है। ईश्वर कोई ऊपर आकाश में बैठा न्यायाधीश नहीं है। ईश्वर वह चेतना है, जो सबमें है, बिना कोलाहल के, बिना आकार के, लेकिन हर जगह उपस्थित है।
समस्या यह नहीं है कि संसार में दुख है। समस्या यह है कि हम उसे बिना समझे, बिना रुके, भागते हुए जीते हैं। समाधान एक ही है : रुको। भीतर देखो। समझो। ध्यान करो, जैसे कोई कोड ठीक किया जाता है। विचारों को देखो, लेकिन उनका न्याय मत करो। हर अनुभव से पहले स्वयं से पूछो : क्या यह स्थायी है? अगर नहीं है, तो जाने दो। जो बदलता है, वह टिकेगा नहीं। जो टिकता है, वही सत्य है।
यह संसार एक स्क्रीन (पर्दा) है, मन उसका प्रोजेक्टर और चेतना ही वह प्रकाश है, जिसमें चित्र दिखता है। चित्र धुंधला लगे तो स्क्रीन मत बदलो, प्रकाश के स्रोत तक लौटो। वही यात्रा सबसे गहरी है- स्वयं की ओर। मन सागर में उठती लहरों की तरह है। लहरें आती हैं, जाती हैं, पर सागर वैसा ही रहता है। वैसे ही क्रोध, ईर्ष्या, वासना, एवं मोह : ये सब मन की तरंगें हैं। जब हम ध्यान में बैठते हैं, तो तरंगें शांत हो जाती हैं और वही गहरा सागर दिखाई देता है।
किसी को देखकर आप कहते हैं, “वह गुस्से में है।” पर असल में गुस्सा किसका है? क्या यह आपका ही मन नहीं, जो उस पर रंग चढ़ा रहा है, उसे गुस्सा बता रहा है? जब आप यह पहचान लेते हैं कि आप देखने वाले हैं, अनुभव करने वाले हैं, पर भावनाएं आपके असली स्वरूप नहीं हैं, तभी मुक्ति मिलती है। वेदांत कहता है — सच्चिदानन्द स्वरूपोऽहम्। मैं शुद्ध चेतना हूं- जो चेतना हमेशा है, जो हमेशा जानती है और जो आनंद स्वरूप है। जब यह अनुभव गहरा होता है, तब दुख और सुख दोनों खेल जैसे लगते हैं।
दूसरों में जो भी गुण दिखते हैं, वे कहीं-न-कहीं हमारे भीतर भी छिपे रहते हैं। जो दोष आप बाहर देखते हैं, वह भीतर की परछाईं हैं। इसलिए दूसरों को बदलने की जल्दी मत करो। अपने भीतर लौटो, वहीं शांति मिलेगी। जीवन का सौंदर्य इसी में है कि हर क्षण को साक्षी भाव से देखो।
एक पर्दे पर फिल्म चल रही हो, उसमें आग लगी दिखे तो क्या पर्दा जलता है? नहीं। पर्दा वैसा का वैसा रहता है। जब यह समझ गहरी होती है, तब भय नहीं रहता। उपालंभ नहीं रहते। तब संसार जैसा भी है, वह बोझ नहीं लगता। वही संसार एक उत्सव बन जाता है।
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