Devshayani Ekadashi 2025: कब और क्यों होता है सृष्टि के पालनहार का निद्रा काल आरंभ, पढ़ें धार्मिक महत्व
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार हरि शब्द का प्रयोग सूर्य चंद्रमा वायु और विष्णु जैसे अनेक दिव्य तत्वों के लिए किया गया है। हरिशयन का तात्पर्य इस कालखंड में सूर्य व चंद्रमा के प्रभाव में क्षीणता और ऋतुचक्र में विश्राम की स्थिति को दर्शाता है। वर्षा ऋतु में अग्नि तत्व की गति मंद हो जाने से शारीरिक ऊर्जा भी प्रभावित होती है।

डा. चिन्मय पण्ड्या (प्रतिकुलपति, देवसंस्कृति विश्वविद्यालय)। भारतीय संस्कृति में एकादशी तिथियां विशेष आध्यात्मिक महत्व रखती हैं। इनमें भी देवशयनी एकादशी का स्थान अत्यंत पवित्र और पुण्यदायी माना गया है। यह तिथि भगवान श्रीविष्णु की आराधना, आत्मचिंतन और साधना का एक श्रेष्ठ अवसर प्रदान करती है। साथ ही यह समय समाजसेवा, लोककल्याण और आत्मशुद्धि की ओर नवप्रेरणा का शुभारंभ भी होता है।
आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी, पद्मा एकादशी तथा हरिशयनी एकादशी के नामों से जाना जाता है। धार्मिक परंपराओं के अनुसार, इसी दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में प्रवेश करते हैं और आगामी चार मासों तक उसी स्थिति में रहते हैं। कार्तिक शुक्ल एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी) के दिन भगवान पुनः जाग्रत होते हैं। यह चार महीनों की अवधि चातुर्मास कहलाती है, जिसमें व्रत, तप, संयम और सत्कर्मों का विशेष महत्व होता है।
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धार्मिक ग्रंथों के अनुसार 'हरि' शब्द का प्रयोग सूर्य, चंद्रमा, वायु और विष्णु जैसे अनेक दिव्य तत्वों के लिए किया गया है। 'हरिशयन' का तात्पर्य इस कालखंड में सूर्य व चंद्रमा के प्रभाव में क्षीणता और ऋतुचक्र में विश्राम की स्थिति को दर्शाता है। वर्षा ऋतु में अग्नि तत्व की गति मंद हो जाने से शारीरिक ऊर्जा भी प्रभावित होती है। आधुनिक वैज्ञानिक शोध भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि इस समय अनेक प्रकार के रोगजनक जीवाणु उत्पन्न होते हैं, जिनका कारण है- जल की अधिकता और सूर्यप्रकाश की न्यूनता।
प्राचीन काल में संत-महात्मा इस अवधि में यात्रा नहीं करते थे, अपितु एक स्थान पर ठहरकर ध्यान, मनन और शास्त्रचिंतन करते थे। यह काल आत्मसाधना, संयम और लोकमंगल की भावना को पुष्ट करने वाला होता है। गृहस्थ जीवन में भी लोग व्रत, उपवास, संयम और परोपकार को अपनाकर अपने जीवन में सात्विकता एवं शांति का संचार करते हैं। यही कारण है कि यह समय धर्मप्रवचन, सामाजिक सुधार और पर्यावरण संरक्षण जैसे उद्देश्यों की सिद्धि का उपयुक्त काल माना जाता है।
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हरिशयनी एकादशी केवल एक धार्मिक तिथि नहीं, अपितु सामाजिक चेतना को जाग्रत करने का माध्यम भी है। यह दिन चातुर्मास के शुभारंभ के साथ-साथ सत्संगों, सेवा कार्यों और आध्यात्मिक आयोजनों की शृंखला का शुभ संकेत है। यह समय संयमित जीवनशैली, शाकाहार और आत्मनिरीक्षण को जीवन में अपनाने की प्रेरणा देता है। यह व्रत ईश्वर भक्ति, सेवा, साधना और संयम - इन चार स्तंभों पर आधारित जीवन को पुष्ट करता है। देवशयनी एकादशी भारतीय धर्म-संस्कृति की उस गहराई को प्रकट करती है, जहां ईश्वर के साथ आत्मा का जुड़ाव और समाज के प्रति उत्तरदायित्व समान रूप से महत्व रखते हैं।
इस दिन व्रत करने वाले श्रद्धालु भगवान विष्णु की पूजा, विष्णु सहस्रनाम का पाठ, भगवद्गीता का स्वाध्याय, मंत्रजप और कीर्तन करते हैं। यह व्रत न केवल आध्यात्मिक बल प्रदान करता है, अपितु जीवन में सात्विकता और आत्मबल की वृद्धि का भी माध्यम बनता है। अतः आइए, इस पावन तिथि पर श्रद्धा, संयम और साधना के साथ संकल्प लें कि हम अपने जीवन को लोककल्याण, आत्मविकास और आध्यात्मिक उत्थान की दिशा में ले जाएंगे।
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