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    द्वेष और कामना मुक्त जीवनयापन सबसे बड़ा संन्यास है

    Updated: Mon, 10 Nov 2025 02:30 PM (IST)

    मोरारी बापू के अनुसार, अत्यधिक कामनाएं और संग्रह शरीर, आयु व बुद्धि को क्षीण करते हैं। विवेक और राम नाम के आश्रय से इन्हें नियंत्रित किया जा सकता है। कलियुग में नाम का बहुत महत्व है। अत्यधिक संग्रह पाप है और हमें दूसरों के हिस्से का ध्यान रखना चाहिए। ईर्ष्या, निंदा और द्वेष जीवन के संगीत में बाधक हैं; इनसे मुक्त होना ही सच्चा मोक्ष है। द्वेष और अपेक्षा रहित जीवन ही सच्चा संन्यास है, जिसके लिए हिमालय जाने की आवश्यकता नहीं। दान और दूसरों की सेवा भी महत्वपूर्ण है।  

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    अत्यधिक कामनाओं से व्यक्ति में कुछ चीजें क्षीण होने लगती हैं

    मोरारी बापू (कथा वाचक)। अत्यधिक कामानाएं या महत्वाकांक्षाएं सही नहीं होतीं। विवेक द्वारा इनको नियंत्रित करने का प्रयास किया जाना चाहिए। राम नाम या कोई भी नाम जो आपको पसंद हो, उसका आश्रय कर अत्यधिक कामनाओं से मुक्ति पाई जा सकती है। मानस में कहा गया है- कलयुग केवल नाम अधारा।

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    नाम की बहुत महिमा है। कलियुग में तो सिर्फ नाम को ही आधार बताया गया है। जो नाम को अपना आधार बनाते हैं, केंद्र बनाते हैं, उनमें इतना विवेक जाग्रत होने लगता है कि वे समझ सकें कि किस हद से ज्यादा की कामनाएं ठीक नहीं होतीं।

    हमारे प्रयासों को और गति मिल सकती है, जब हम जान लें कि अत्यधिक कामनाओं से हानि क्या है? अत्यधिक कामनाओं से व्यक्ति में कुछ चीजें क्षीण होने लगती हैं। पहला है शरीर। अत्यधिक कामनाओं से व्यक्ति का शरीर क्षीण होने लगता है। दूसरी है उम्र। उम्र क्षीण होने लगती है और अत्यधिक कामनाओं से बुद्धि भी क्षीण पड़ने लगती है। हमें विचार करना चाहिए, अगर इतनी महत्व की वस्तुएं क्षीण हो रही हैं तो अत्यधिक कामनाओं को मन में पाला ही क्यों जाए?

    आगे बढ़ने से पहले बता दूं कि चोरी करना तो पाप है ही, मगर अधिक संग्रह भी पाप है। अगर किसी के पास बहुत कुछ है, वह चाहे किसी भी रूप में हो, याद रखिए, उसमें किसी और का हिस्सा अवश्य शामिल होगा। वह किसी और के प्रारब्ध का भी होगा, जो आपके पास किसी रूप में और किसी तरह से आ गया है। अत्यधिक कामनाओं में खतरा है कि हम किसी और के हिस्से का संग्रह कर लें।

    हमारे शास्त्रों में इसीलिए कहा गया है कि हर पल विवेक आवश्यक है। जिसको पल का विवेक आ जाए वह शाश्वत को जीत लेता है। अत्यधिक कामनाएं व्यक्ति को सत्य से भी थोड़ा हटा देती हैं। अत्यधिक कामनाएं आत्मबल और स्मृति को भी क्षीण करती हैं। इतना ही नहीं, अत्यधिक कामनाओं से घिरे रहने वाले के शरीर में भी कंपन आने लगता है और शब्द की धारा इधर-उधर होने लगती है।

    जितना व्यक्ति कामनारहित होगा, उसके शब्दों में उतना ही अधिक असर होगा। याद रखें, हम शिव के जैसे नीलकंठ भले ही न बन सकें, मगर हम शीलकंठ तो बनें। गले से क्या बोलना है, क्या नहीं बोलना है, इसका ध्यान रखें। अत्यधिक कामनाएं व्यक्ति को यह ध्यान नहीं रखने देतीं। अत्यधिक कामनाएं व्यक्ति को शांत नहीं बैठने देतीं। शांत वही रह सकता है, जो कामनाओं से रहित है।

    दान को लेकर हमारे शास्त्रों में बहुत सी बातें की गई हैं। धन के दान के साथ-साथ विद्या का दान या जो भी कला हममें है, उसका दान भी करना चाहिए, ये सब बातें कहीं जाती हैं। अत्यधिक संग्रह से बाहर आकर जो आपके पास है, उसे दूसरों को देकर तो देखिए। जो आपकी सेवा में लगे हैं, सहयोगी हैं अथवा जो जरूरतमंद हैं, क्या त्योहारों पर एक जोड़ी कपड़े भी उनके लिए नहीं बनवा सकते? आपके पास जो भी कुछ है, क्या उसमें उसका कुछ भी नहीं है? आप खुशनसीब हैं तो अपने नसीब का थोड़ा सा अंशदान तो दूसरों को भी करें।

    हमारे ग्रंथों में मोक्ष का उल्लेख है। लगभग प्रत्येक व्यक्ति मोक्ष के बारे में जानना चाहता है। मोक्ष और मुक्ति संबंधी बहुत सी जिज्ञासाएं मेरे पास आती हैं। मेरा इतना ही कहना है कि आज के समय में ईर्ष्या, निंदा और द्वेष से मुक्त हो जाना ही मोक्ष है। आज के दौर में हम देख रहे हैं कि एक-दूसरे से ईर्ष्या, द्वेष और निंदा पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ गए हैं। इनसे मुक्ति पाकर हम भी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

    मैंने बार-बार कहा है कि तीन चीजें जीवन का संगीत पाने में बाधक है- ईर्ष्या, निंदा और द्वेष। काम, क्रोध और लोभ की तो जीवन में सम्यक मात्रा में जरूरत है। आयुर्वेद कहता है शरीर में वात पित्त कफ सम्यक मात्रा में होता है। सम्यक मात्रा न होने पर रोग होता है। मैं आपसे पूछूं, गौर करके देखिएगा कि ईर्ष्या, निंदा और द्वेष की क्या हमें आवश्यकता है? कोई कारण दे सकते हैं आप? ये हमारे जीवन संगीत के लिए बाधक हैं। इनकी कोई जरूरत नहीं है।

    ईर्ष्या की जगह हम सामने वाले के लिए शुभ की इच्छा क्यों न करें? निंदा की जगह निदान क्यों न कर सकें? वैद्य निंदक नहीं, निदानी होता है और उसी पर हमारा आरोग्य निर्धारित होता है। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि केवल दो बातें अपनाने से कोई भी व्यक्ति संन्यासी हो सकता है। एक, जो व्यक्ति किसी से द्वेष ना करे और दो, किसी से कुछ भी अपेक्षा न करे। द्वेष मुक्त जीवन और कामना मुक्त जीवन नित संन्यास है। विवेक के साथ धीरे-धीरे ऐसा हो सकता है।

    ये ऐसा संन्यास है, जिसके लिए हिमालय पर जाने की जरूरत नहीं है। साधक चाहे तो यह हो सकता है। मेरा अनुभव है कि अगर आप किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखते हैं तो पूरा अस्तित्व ही आपकी सेवा के लिए तत्पर रहता है। महाभारत में लिखा है कि आप जितनी मेहनत करते हैं, उसकी कमाई को खर्च करने का आपका अधिकार है, लेकिन मेहनत कम करके बहुत ज्यादा अगर पैसा आया है तो उस पर प्रजा का अधिकार है। वह यज्ञ संपदा है, वह प्रजा की संपदा है।

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