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    Shani Jayanti 2025: शनिदेव की पूजा के समय कर लें इस स्तोत्र का पाठ, मिलेगा दोगुना फल

    By Pravin KumarEdited By: Pravin Kumar
    Updated: Thu, 22 May 2025 10:30 PM (IST)

    सनातन धर्म में मंगलवार का दिन हनुमान जी को समर्पित है। इस दिन हनुमान जी की पूजा की जाती है। साथ ही मंगलवार का व्रत रखा जाता है। हनुमान जी की पूजा करने से शनि की बाधा ((Shani Jayanti 2025) ) दूर हो जाती है। साथ ही शुत्र भय समाप्त होता है।

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    Shani Jayanti 2025: शनिदेव को कैसे प्रसन्न करें?

    धर्म डेस्क, नई दिल्ली। Shani Jayanti 2025: वैदिक पंचांग के अनुसार, मंगलवार 27 मई को शनि जयंती है। इस शुभ अवसर पर न्याय के देवता शनिदेव की पूजा की जाएगी। साथ ही उनके निमित्त व्रत रखा जाएगा। यह पर्व हर साल ज्येष्ठ अमावस्या के दिन मनाया जाता है। इसके लिए शनि जयंती के दिन भगवान शिव की विशेष पूजा की जाएगी।

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    भगवान शिव की पूजा से साधक पर शनिदेव की कृपा बरसती है। उनकी कृपा से जीवन में मंगल ही मंगल होता है। अगर आप भी शनिदेव की कृपा पाना चाहते हैं, तो शनि जयंती के दिन भक्ति भाव से महादेव की पूजा करें। साथ ही पूजा के समय गंगाजल से भगवान शिव का अभिषेक करें। वहीं, जलाभिषेक के समय शिव मृत्युंजय स्तोत्र का पाठ करें।

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    शिव मृत्युञ्जय स्तोत्र

    रत्नसानुशरासनं रजताद्रिश‍ृङ्गनिकेतनं

    शिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युतानलसायकम्।

    क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदशालयैरभिवन्दितं

    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥

    पञ्चपादपपुष्पगन्धिपदाम्बुजद्वयशोभितं

    भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम्।

    भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशिनं भवमव्ययं

    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥

    मत्तवारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीयमनोहरं

    पङ्कजासनपद्मलोचनपूजिताङ्घ्रिसरोरुहम्।

    देवसिद्धतरङ्गिणी करसिक्तशीतजटाधरं

    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥

    कुण्डलीकृतकुण्डलीश्वरकुण्डलं वृषवाहनं

    नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम्।

    अन्धकान्तकमाश्रितामरपादपं शमनान्तकं

    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥

    यक्षराजसखं भगाक्षिहरं भुजङ्गविभूषणं

    शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेवरम्।

    क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं

    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥

    भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं

    दक्षयज्ञविनाशिनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम्।

    भुक्तिमुक्तिफलप्रदं निखिलाघसङ्घनिबर्हणं

    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥

    भक्तवत्सलमर्चतां निधिमक्षयं हरिदम्बरं

    सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनूपमम्।

    भूमिवारिनभोहुताशनसोमपालितस्वाकृतिं

    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥

    विश्वसृष्टिविधायिनं पुनरेव पालनतत्परं

    संहरन्तमथ प्रपञ्चमशेषलोकनिवासिनम्।

    क्रीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथसमाव्रतं

    चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥

    रुद्रं पशुपतिं स्थाणुं नीलकण्ठमुमापतिम्।

    नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥

    कालकण्ठं कलामूर्तिं कालाग्निं कालनाशनम्।

    नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥

    नीलकण्ठं विरुपाक्षं निर्मलं निरूपद्रवम्।

    नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥

    वामदेवं महादेवं लोकनाथं जगद्गुरुम्।

    नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥

    देवदेवं जगन्नाथं देवेशमृषभध्वजम्।

    नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥

    अनन्तमव्ययं शान्तमक्षमालाधरं हरम्।

    नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥

    आनन्दं परमं नित्यं कैवल्यपदकारणम्।

    नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥

    स्वर्गापवर्गदातारं सृष्टिस्थित्यन्तकारिणम्।

    नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥

    दशरथकृत शनि स्तोत्र

    नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च ।

    नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ॥

    नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।

    नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ॥

    नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम: ।

    नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते ॥

    नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।

    नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ॥

    नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते ।

    सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ॥

    अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते ।

    नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ॥

    तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।

    नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ॥

    ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।

    तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥

    देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा: ।

    त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत: ॥

    प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे ।

    एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ॥

    दशरथ उवाच:

    प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम् ।

    अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित् ॥

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