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    Parsi Funeral Rituals: किस तरह किया जाता है पारसी धर्म में अंतिम संस्कार? जानें इस समुदाय से जुड़ी जरूरी बातें

    Updated: Thu, 10 Oct 2024 02:14 PM (IST)

    बुधवार 09 अक्टूबर को भारत के मशहूर उद्योगपति पद्म विभूषण रतन टाटा (Padma Vibhushan Ratan Tata) का 86 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। इस खबर से पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई है। रतन टाटा एक पारसी परिवार से ताल्लुक रखते थे लेकिन उनका अंतिम संस्कार (Ratan Tata Funeral) पारसी रीति-रिवाजों से नहीं किया जाएगा। इसके स्थान पर उनका अंतिम संस्कार इलेक्ट्रिक अग्निदाह द्वारा होगा।

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    Parsi Funeral Rituals अन्य धर्मों से किस प्रकार अलग है पारसी अंतिम संस्कार? (Picture Credit: twitter, Social Deception)

    धर्म डेस्क, नई दिल्ली। सभी धर्मों के अंतिम संस्कार करने के तरीकों में विभिन्नता देखी जाती है। जहां हिंदू धर्म में दाह संस्कार किया जाता है, वहीं इस्लाम में शव को दफनाने की परम्परा है। इसी तरह पारसी धर्म में भी अंतिम संस्कार का एक अलग तरीका देखने को मिलता है। आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि पारसी धर्म में अंतिम संस्कार किस प्रकार किया जाता है और यह अन्य धर्म के अंतिम संस्कारों से किस प्रकार अलग है।

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    क्या है पारसी अंतिम संस्कार का तरीका

    पारसी धर्म में अंतिम संस्कार का एक बहुत ही अलग तरीका देखने को मिलता है। जिसमें शव को जलाने या दफनाने के स्थान पर उसे टॉवर ऑफ साइलेंस (Tower of Silence) के ऊपर रख दिया जाता है। यह टावर एक गोलाकार इमारत की तरह होता है, जिसे दखमा भी कहते हैं। इस दौरान शव को खुले आसमान के नीचे सूरज की धूप में रख दिया जाता है। जिसके बाद गिद्ध, चील और कौवे आदि उस शव को खा जाते हैं। पारसी अंतिम संस्कार के इस तरीके को  ‘दोखमेनाशिनी’ कहा जाता है।

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    क्या हैं अंतिम संस्कार से जुड़ी मान्यताएं

    पारसी धर्म (Parsi Funeral Rituals Rules) में दोखमेनाशिनी की परम्परा सदियों से चली आ रही है। जिसमें व्यक्ति के मरने के बाद उनके शव को प्रकृति की गोद में छोड़ दिया जाता है। इसे लेकर पारसी अनुयायियों का यह मानना है कि शव को जलाने से या फिर दफनाने से प्रकृति गंदी होती है, अर्थात प्रकृति को नुकसान पहुंचता है। वहीं पारसी धर्म के अनुसार, अंतिम संस्कार करने से चील और गिद्ध जैसे पक्षियों का पेट भी भरता है और प्रकृति को कोई नुकसान नहीं होता।

    कहां बना पहला 'टॉवर ऑफ साइलेंस'

    भारत में पहला 'टॉवर ऑफ साइलेंस' कोलकाता में सन् 1822 में बना था। पारसी धर्म में माना गया है कि यदि शव को जलाया जाए तो इससे वायु प्रदूषण बढ़ सकता है, वहीं शवों को नदी में बहाया जाए तोतो इससे पानी प्रदूषित की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए पारसी समुदाय अंतिम संस्कार के लिए यह खास तरीका अपनाया जाता है।

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    अब किस तरह किया जाता है अंतिम संस्कार

    अब पारसी धर्म के अंतिम संस्कार के लिए 'टॉवर ऑफ साइलेंस' में शवों को रखने का चलन कम हुआ है। चलन हालांकि अब कम हो गया है। क्योंकि इस टॉवर के पास अब आबादी बढ़ने लगी है, तो ऐसे में यहां शव को प्राकृतिक तौर पर डिकम्पोज़्ड नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि अब पारसी धर्म में भी शवों को जलाया या फिर दफनाया जाने लगा है।

    कौन होते हैं पारसी समुदाय के लोग?

    मान्यताओं के मुताबिक पारसी धर्म को दुनिया के सबसे पुराने धर्मों में से एक माना जाता है। इस धर्म की स्थापना प्राचीन ईरान में 3500 साल पहले जरथुस्त्र ने की थी। यह काफी समय तक दुनिया का ताकतवर धर्म माना जाता रहा। इतना ही नहीं ईरान में तो इसे आधिकारिक मजहब माना जाता था। इस धर्म को मानने वाले लोगों को पारसी या जोराबियन कहा जाता है।

    हालांकि, पिछले कुछ समय से पारसी धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या में गिरावट आई है। दुनियाभर में करीब 2 लाख पारसी ही बाकी हैं। वर्ल्ड पॉपुलिशेन रिव्यू की मानें तो इनकी संख्या अब सवा लाख से ज्यादा नहीं है। भारत के अलावा ईरान, अमेरिका, इराक, उजबेकिस्तान और कनाडा में भी पारसी धर्म के लोग बसे हुए हैं।

    अस्वीकरण: इस लेख में बताए गए उपाय/लाभ/सलाह और कथन केवल सामान्य सूचना के लिए हैं। दैनिक जागरण तथा जागरण न्यू मीडिया यहां इस लेख फीचर में लिखी गई बातों का समर्थन नहीं करता है। इस लेख में निहित जानकारी विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/मान्यताओं/धर्मग्रंथों/दंतकथाओं से संग्रहित की गई हैं। पाठकों से अनुरोध है कि लेख को अंतिम सत्य अथवा दावा न मानें एवं अपने विवेक का उपयोग करें। दैनिक जागरण तथा जागरण न्यू मीडिया अंधविश्वास के खिलाफ है।