Mahashivratri 2025: पौराणिक कथाओं से लेकर लोक परंपरा तक व्याप्त है शिव-पार्वती का विवाह
पंचांग के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी पर महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। इस बार महाशिवरात्रि (Maha Shivratri 2025) का पावन पर्व बुधवार 26 फरवरी 2025 को मनाया जाएगा। भारत में पौराणिक कथाओं से लेकर लोक परंपरा तक व्याप्त है शिव-पार्वती का विवाह। नई पीढ़ी के लिए शिवरात्रि के विविध प्रसंगों पर सांस्कृतिक चेतना का प्रकाश डाल रही हैं मालिनी अवस्थी।
पद्मश्री सम्मानित लोकगायिका, मालिनी अवस्थी। वसंत अपने उत्कर्ष पर है। रंग-बिरंगे फूलों से सजे उपवन, खेतों में खिली सरसों, बौराये हुए आम के झूमते वृक्षवृंद, पवन में बहती उन्मत सुगंध, दिग-दिगंत में उत्सव गान गाते हुए भौंरे, कुहू-कुहू की तान छेड़ती कोकिलाएं देख कर ऐसा लगता है कि पूरे मनोयोग से अनंग अर्थात कामदेव प्रकृति को वासंतिक आभा से रंग रहे हैं। अनंत काल से अनंग इसी तरह प्रेम रस घोलते आ रहे हैं। यह अनंत प्रक्रिया है, अनवरत चलती ही रहेगी, महादेव का आशीर्वाद जो है।
महादेव का आशीष है वसंत
कामदेव को भस्म करने के बाद महादेव का रति को दिया फलित आशीर्वाद ही तो वसंत है। शिवपुराण में कथा है कि जब सती ने अपने पिता दक्ष के हवन कुंड में देह त्याग दी थी तो भगवान शिव वैराग्य भाव से अटूट ध्यान में बैठ गए। तारकासुर नामक राक्षस ने यह जानकर- कि न भगवान शिव का ध्यान टूटेगा और न ही सती के वियोग में वे दूसरा विवाह करेंगे- तप करके ब्रह्मा से वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु सिर्फ शिवजी का पुत्र ही कर सके।
इस वरदान से तारकासुर ने सभी देवताओं को पराजित कर स्वर्ग तक छीन लिया। देवताओं के अनुरोध पर कामदेव ने शिवजी का तप भंग करने के लिए वसंत ऋतु को उत्पन्न किया। कामदेव के बाणों से ध्यान टूटने से क्रोधित भगवान शिव ने तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भस्म कर दिया। जब उनका क्रोध शांत हुआ तो देवताओं ने उन्हें तारकासुर के अत्याचार के बारे में बताया। कामदेव की पत्नी रति ने भगवान शिव से अपने पति को जीवित करने की प्रार्थना की। तब शिवजी ने रति को वरदान दिया कि कामदेव अब उस रूप में तो नहीं आ सकेंगे किंतु प्रतिवर्ष इसी वसंत ऋतु में प्रकृति में व्याप्त रहकर सृष्टि का स्तवन करेंगे।
पग-पग पर हैं प्रसंग
यह देखिए किस तरह संपूर्ण भारतवर्ष में भगवान शिव की लीला पसरी हुई है। कामदेव का मर्दन करने के कारण महादेव मन्मथनाथ कहलाए। उनका विवाह माता पार्वती से हुआ। कार्तिकेय स्वामी का जन्म हुआ और कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया। उत्तराखंड में गोपेश्वर मंदिर है, जिसे गोस्थल मंदिर भी कहते हैं। मंदिर के पास ही एक वृक्ष है, जो हर मौसम में फूलों से भरा रहता है। केदारखंड के अनुसार भगवान शिव ने अपने तीसरे नेत्र से कामदेव को इसी क्षेत्र में भस्म किया था। इसीलिए उनको इस क्षेत्र में झषकेतुहर भी कहा जाता है। झष का अर्थ है-मीन, मछली और केतु का अर्थ है-ध्वज।
कामदेव के ध्वज पर मीन का चिह्न होता है। इसीलिए कामदेव का वध करने वाले महादेव को यह नाम मिला। इस क्षेत्र में शिवजी को एक नाम रतीश्वर भी मिला है, क्योंकि कामदेव के भस्म होने के बाद रति ने यहां तप किया था। वसंत ऋतु में शिव पुरुष तत्व में प्रकृति को अंगीकार करते हैं, इसीलिए शिव महेश्वर अर्थात माया के अधीश्वर हैं। पूर्वी भारत में लोकमान्यता है कि वसंतपंचमी के दिन भगवान शिव का तिलक हुआ और चौबीस दिन बाद शिवरात्रि के दिन उनका विवाह। देवघर के बैजनाथ ज्योतिर्लिंग में धूमधाम से तिलक चढ़ाया जाता है। यह तिलक मिथिला से आकर चढ़ाया जाता है।
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लोकसंस्कृति में व्याप्त शिव विवाह
लोक में शिव और पार्वती प्रथम युगल माने गए हैं। धूनी रमाने वाले औघड़ जोगी शिव से पार्वती जी के विवाह का विचार ही अदभुत है। पार्वती आदिशक्ति हैं, उनके प्रेम और समर्पण ने उन शिव को गृहस्थी के संसार में बांध लिया है, जो मृत्युंजय हैं, भैरव हैं, महायोगी हैं। शिव-पार्वती का विवाह सबको आनंद देने का अवसर है। सभी देवी-देवता शिव-पार्वती विवाह को लेकर अच्छे-खासे उत्साहित थे। लेकिन शिवजी के सामने एक समस्या थी। भोले बाबा तो मसानवासी औघड़ ठहरे। तो वो बरात में किसको ले जाते? अंततः भगवान शिव, जिन्हें बाबा भूतनाथ भी कहते हैं, वो भूतों और प्रेतों की बरात ले कर चल पड़े विवाह करने के लिए, ‘बरातिया लई के आई गए बम बन भोला।’
शिव-पार्वती के विवाह के प्रसंग से मैथिली, भोजपुरी, अवधी लोकसहित्य भरा हुआ है। जब ये बरात माता पार्वती के दरवाजे पर पहुंची तो डर के मारे भगदड़ मच गई। बाराती के नाम पर भूत-प्रेत और दूल्हे के श्रृंगार के नाम पर भस्म का लेपन और गले में नरमुंड-हड्डियों की माला। लोकमान्यता है कि शिव की बरात देख पार्वती की माता मैनावती मूर्छित हो गई -
अरे रामा दूल्हा बने त्रिपुरारी
भईल दुर्गतिया री हारी
हाथ पकड़ी समझाए मैना
भोला से नाही बियहबो रामा
अरे रामा भोला त्रिलोक के स्वामी
भईल दुर्गतिया री हारी
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सृष्टि के प्रारंभ का पर्व
यह भी कहा जाता है कि महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव ने समुद्र मंथन से निकले कालकूट नामक विष को पिया था। भोलेनाथ ने संसार की रक्षा के लिए इसको अपने कंठ में धारण किया और नीलकंठ कहलाए। इसीलिए शिवलिंग पर जल अर्पण करना महादेव को शांति-शीतलता प्रदान करना है। शिवरात्रि की रात्रि से सृष्टि की शुरुआत मानी गई है। इसी दिन भगवान शिव का निराकार से साकार रूप में अवतरण हुआ था। वसंत के चरमोत्कर्ष पर शिवरात्रि का आगमन शिवत्व की प्राप्ति की कामना में लीन मनुष्यता की अदम्य कामना को समर्पित विश्व प्रार्थना है!
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