Mahabharata Story: देवता की संतान होने के बाद भी कुंती के किस बेटे में था असुर का अंश?
महाभारत की कथा (Mahabharat katha) के अनुसार कुंती की सेवा से प्रसन्न होकर महर्षि दुर्वासा ने उसे देवताओं के आवाहन का एक मंत्र दिया था जिससे द्वारा वह किसी भी देवता का आवाहन कर उनकी संतान प्राप्त कर सकती थी। पांचों पांडवों का जन्म इसी वरदान के फलस्वरूप हुआ था। इसी के साथ कर्ण भी इसी वरदान की देन था।

धर्म डेस्क, नई दिल्ली। महाभारत ग्रंथ (Mahabharata mystery) में ऐसी कई घटनाएं मिलती हैं, जो व्यक्ति को प्रेरित तो करती ही हैं, साथ ही हैरान भी कर देती हैं। इस कथा को तो लगभग सभी जानते होंगे कि कुंती के सभी पुत्र उसे एक वरदान के कारण प्राप्त हुए थे और सभी किसी-न-किसी देवता की संतान थे। लेकिन क्या आप जानते हैं कि कुंती के एक पुत्र में असुर का अंश था। चलिए जानते हैं इसके बारे में।
पूर्वजन्म से जुड़ी है कथा
हम बात कर रहे हैं कर्ण की। कथा के अनुसार, कुंती ने जिसे कुंती ने विवाह से पहले महर्षि दुर्वासा द्वारा दिए गए आवाहन मंत्र को आजमाने के लिए सूर्य देव का आवाहन किया। इससे सूर्य देव प्रकट हो गए और उन्होंने कुंती को एक पुत्र प्रदान किया। तब कुंती ने लोकलाज के डर से उस पुत्र का त्याग कर दिया। हालांकि कर्ण, सूर्य देव के पुत्र हैं, लेकिन उसमें एक राक्षस का अंश भी पाया जाता है, जिसकी कथा कर्ण के पूर्व जन्म से जुड़ी हुई है।
नर-नारायण से मांगी सहायता
महाभारत के आदि पर्व में कथा मिलती है कि दुरदुम्भ (दम्बोद्भव) नाम के एक राक्षस ने देवताओं को बहुत परेशान किया हुआ था। ऐसे में सभी देवता, भगवान विष्णु से मदद मांगने पहुचे। तब श्री हरि ने सुझाव दिया कि आपको नर और नारायण से सहायता मांगनी चाहिए। असल में इस राक्षस को वरदान मिला हुआ था कि उसका वध सिर्फ वही कर सकता है, जिसने हजार साल तपस्या की हो। इसी के साथ दुरदुम्भ सूर्य देव से भी 100 दिव्य कुंडल और कवच मिले थे, जिसे अगर कोई तोड़ने को कोशिश करता है, तो उसकी मृत्यु हो जाती है।
कई वर्षों तक चलता रहा युद्ध
देवताओं की विनती स्वीकार कर नर और नारायण ने दुरदुम्भ से युद्ध शुरू कर दिया। सबसे पहले नर ने राक्षस से युद्ध किया और इस दौरान नारायण तपस्या करने लगे। कई दिनों तक युद्ध के बाद जब नर ने राक्षस का कवच तोड़, तो इससे उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन नारायण की तपस्या से नर पुनः जीवित हो गए। यह क्रम लगातार चलाता और इस तरह नर-नारायण ने तपस्या कर 99 बार राक्षस का कवच तोड़ दिया।
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सूर्य के पीछे जा छिपा राक्षस
इसके बाद दुरदु्म्भ को अपनी मृत्यु का डर सताने लगा, जिससे वह सूर्य देव के पीछे जा छुपा। तब सूर्य देव ने नर-नारायण से कहा कि यह मेरी शरणागत आया है, इस कारण मेरा कर्तव्य है कि मैं इसकी रक्षा करू। तब नर-नारायण ने सूर्य देव से कहा कि इसकी रक्षा करने का परिणाम आपको भी झेलना होगा।
तब दुरदुम्भ को यह श्राप मिला कि सूर्य देव के तेज से वह कवच-कुंडल के साथ अगला जन्म लेगा, लेकिन समय आने पर यह उसके किसी काम नहीं आएंगे। परिणाम स्वरूप सूर्य के तेज से राक्षस का ही जन्म दिव्य कवच-कुंडल के साथ कर्ण के रूप में हुआ। परिणाम स्वरूप सूर्य के तेज से राक्षस का ही जन्म दिव्य कवच-कुंडल के साथ कर्ण के रूप में हुआ।
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