Chaitra Navratri: मां पार्वती ने क्यों लिया स्कंदमाता का रूप, यहां जानिए उनकी कथा
हिंदू धर्म में नवरात्र की अवधि का एक विशेष महत्व माना गया है जो मां दुर्गा के नौ रूपों की आराधना के लिए समर्पित है। चैत्र नवरात्र की पावन अवधि चल रही है। नवरात्र के पांचवें दिन देवी स्कंदमाता की पूजा का विधान है। स्कंदमाता को भगवान स्कंद यानी कार्तिकेय की माता के रूप में जाना जाता है। चलिए जानते हैं देवी स्कंदमाता की कथा।

धर्म डेस्क, नई दिल्ली। इस बार नवरात्र की चतुर्थी और पंचमी तिथि की पूजा एक ही दिन की जाएगी। इनके स्वरूप की बात करें, तो भगवान स्कंद बालरूप में माता की गोद में बैठे हुए हैं। देवी की चार भुजाएं हैं, जिसमें से दाहिनी ऊपरी भुजा में भगवान स्कंद को गोद में पकड़े हैं और दाहिनी निचली भुजा में कमल पकड़ा हुआ है। माता स्कंद को गौरी, माहेश्वरी, पार्वती और उमा के नाम से भी जाना जाता है।
नवरात्र के पांचवें दिन स्कंदमाता की पूजा-अर्चना द्वारा उनकी कृपा प्राप्त की जाती है। साथ ही यह भी माना जाता है कि स्कंदमाता की विधिवत रूप से पूजा-अर्चना करने से निसंतान व्यक्ति को संतान सुख की प्राप्ति हो सकती है। तो चलिए पढ़ते हैं स्कंदमाता की उपासना के मंत्र।
क्यों लिया स्कंदमाता का रूप (Maa Skandmata Ki Katha)
प्राचीन कथा के अनुसार तारकासुर नामक एक राक्षस को ब्रह्मा जी से यह वरदान प्राप्त था कि उनकी मृत्यु केवल शिव जी की संतान के हाथों ही होगी। तारकासुर का आतंक अत्यधिक बढ़ गया था। इस स्थिति में मां पार्वती ने स्कंदमाता का रूप धारण किया और अपने पुत्र स्कंद अर्थात कार्तिकेय को युद्ध के लिए तैयार करने लगी। स्कंदमाता से युद्ध की शिक्षा प्राप्त करने के बाद कार्तिकेय जी ने तारकासुर का संहार किया।
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मां स्कंदमाता के मंत्र
स्कंदमाता का ध्यान -
वंदे वांछित कामार्थे चंद्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा स्कंदमाता यशस्वनीम्।।
धवलवर्णा विशुद्ध चक्रस्थितों पंचम दुर्गा त्रिनेत्रम्।
अभय पद्म युग्म करां दक्षिण उरू पुत्रधराम् भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानांलकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल धारिणीम्॥
प्रफु्रल्ल वंदना पल्लवांधरा कांत कपोला पीन पयोधराम्।
कमनीया लावण्या चारू त्रिवली नितम्बनीम्॥
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देवी स्कंदमाता कवच-
ऐं बीजालिंका देवी पदयुग्मधरापरा।
हृदयम् पातु सा देवी कार्तिकेययुता॥
श्री ह्रीं हुं ऐं देवी पर्वस्या पातु सर्वदा।
सर्वाङ्ग में सदा पातु स्कन्दमाता पुत्रप्रदा॥
वाणवाणामृते हुं फट् बीज समन्विता।
उत्तरस्या तथाग्ने च वारुणे नैॠतेअवतु॥
इन्द्राणी भैरवी चैवासिताङ्गी च संहारिणी।
सर्वदा पातु मां देवी चान्यान्यासु हि दिक्षु वै॥
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अस्वीकरण: इस लेख में बताए गए उपाय/लाभ/सलाह और कथन केवल सामान्य सूचना के लिए हैं। दैनिक जागरण तथा जागरण न्यू मीडिया यहां इस लेख फीचर में लिखी गई बातों का समर्थन नहीं करता है। इस लेख में निहित जानकारी विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/मान्यताओं/धर्मग्रंथों/दंतकथाओं से संग्रहित की गई हैं। पाठकों से अनुरोध है कि लेख को अंतिम सत्य अथवा दावा न मानें एवं अपने विवेक का उपयोग करें। दैनिक जागरण तथा जागरण न्यू मीडिया अंधविश्वास के खिलाफ है।
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