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कुछ नेताओं को घुसपैठियों के मानवाधिकार की चिंता और समस्‍याओं से जूझ रहा देश

दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के दावों के बीच सामाजिक न्याय की स्थापना सबसे बड़ी चुनौती है।लेकिन चुनावी राजनीति के दौर में राजनीतिक दल वास्तविक मसलों की ओर शायद रुख नहीं करना चाहते

By Kamal VermaEdited By: Published: Tue, 07 Aug 2018 10:35 AM (IST)Updated: Tue, 07 Aug 2018 04:30 PM (IST)
कुछ नेताओं को घुसपैठियों के मानवाधिकार की चिंता और समस्‍याओं से जूझ रहा देश
कुछ नेताओं को घुसपैठियों के मानवाधिकार की चिंता और समस्‍याओं से जूझ रहा देश

डॉ. ब्रहमदीप अलूने। संविधान के अनुच्छेद 42 और 43 से स्पष्ट है कि राज्य के द्वारा काम के न्यायपूर्ण और उचित माहौल के निर्वाह, मजदूरी, अच्छा जीवन स्तर तथा सामाजिक- सांस्कृतिक अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाएगा। साथ ही भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को मुहैया कराने की जिम्मेदारी भी राज्य की है। खुशहाल जीवन की उचित अवस्थाएं राज्य उपलब्ध कराएं ऐसा हमारा संविधान भी कहता है। यह विडंबना है कि देश के करोड़ो लोगों के सामाजिक न्याय की रक्षा बड़ी चुनौती बनी हुई है, जबकि घुसपैठियों के मानव अधिकारों की रक्षा के नाम पर बवाल मचाया जा रहा है। इस मामले में भारत के अनेक सियासी दलों का असामान्य रुख और आम चुनाव के मुहाने पर खड़ी सरकार की प्राथमिकता से आम नागरिक ठगा सा महसूस कर रहा है।

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समस्‍याओं के प्रति संजीदा नहीं राजनीतिक दल
देश में बहुत समस्याएं हैं, लेकिन सियासी दल उनके प्रति संजीदा नहीं दिखाई देते है। संविधान के अनुच्छेद 39 ख और ग में यह साफ तौर पर निर्देशित किया गया है कि राज्य अपनी नीति का क्रियान्वयन इस प्रकार करेगा ताकि भौतिक संसाधनों पर स्वामित्व और नियंत्रण का बंटवारा उचित तरीके से हो, जिससे सभी समूहों के हितों का सवरेत्तम ध्यान रखा जा सके और आर्थिक व्यवस्था के अंतर्गत धन और उत्पादन के साधनों का जनसाधारण के विरुद्ध संकेंद्रण न हो। भारत में प्रवासियों, शरणार्थियों और यहां तक की घुसपैठियों के मानव अधिकारों और मूल अधिकारों पर सियासत जग जाहिर है। विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा संकीर्ण दलीय स्वार्थो के आधार पर शरणार्थी और घुसपैठी का सियासी बंटवारा किया जा रहा है। अवैध नागरिकों के जीवन की कठिनाइयों को लेकर संसद से सड़क तक चिंता भी जताई जा रही है जबकि भारत के मूल नागरिक बेहाल हैं।

भारत में 12 करोड़ लोग बेरोजगार
भारत की 1.3 अरब आबादी में से 12 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, नागरिक और राजनीतिक क्षेत्र में युवा बदहाल हैं। इस समय वैश्विक युवा विकास सूचकांक में भारत 183 देशों की सूची में 133 नंबर पर है। भारत सरकार के श्रम विभाग के आंकड़े ही इसकी पुष्टि भी करते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बाजार में हावी होने से स्वरोजगार के अवसर समाप्त हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 2001 में भोजन के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी यह कहा है। राज्यों को ऐसी नीति बनाने का संविधान द्वारा निर्देश है कि प्रत्येक नागरिक को समान रूप से जीविका के समुचित साधन प्राप्त करने का अधिकार हो तथा राज्य नागरिकों के पोषाहार और जीवन स्तर को उठाने व जन स्वास्थ्य में सुधार का प्रयास करें।

क्‍या है अनुच्‍छेद 39-ए और 47
अनुच्छेद 39-ए तथा 47 में कहा गया है कि यह राज्य का प्राथमिक दायित्व होगा। भुखमरी के शिकार लोगों के बदतर देशों में शुमार 119 देशों में हम अंतिम पायदान से थोड़े ही कम हैं, जबकि तकरीबन 20 करोड़ लोग रोज भरपेट भोजन नहीं कर पाते है। दुनिया में 86 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं जिसमें 21 करोड़ भारत के हैं। देश में 40 प्रतिशत बच्चें और 50 फीसद युवा कुपोषण के शिकार हैं। दक्षिण एशिया में भारत अपनी जीडीपी का सबसे कम स्वास्थ्य पर खर्च करता है और गर्भावस्था में स्वास्थ्य कारणों से प्रत्येक 12 मिनट में एक महिला की मौत हो जाती है। आर्थिक विकास में दुनिया में अग्रणी होने का दावा करने वाले इस देश की यही हकीकत है। स्वास्थ्य सेवा सुलभ होने के मामले में भारत दुनिया के 195 देशों में 154वें स्थान पर हैं। देश में स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे और इस क्षेत्र में काम करने वालों की बेतहाशा कमी है।

बदहाल होती शिक्षा व्‍यवस्‍था 
शिक्षा के अधिकार कानून के साथ खिलवाड़ ऐसा कि देशभर में लगभग एक लाख स्कूल या तो बंद किये जा चुके हैं या बंद होने के कगार पर हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार 5 से 9 साल आयु के 25.33 लाख बच्चे तीन महीने से लेकर बारह महीने तक काम करते हैं, जबकि 1.53 लाख लाख बच्चे भीख मांगते हैं। देश में लगभग 48.5 फीसद आबादी महिलाओं की है, लेकिन महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों के बावजूद सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में भेदभाव बदस्तूर जारी है। छह से 10 साल की करीब 25 प्रतिशत और 10 से 13 साल की 50 प्रतिशत लड़कियां स्कूल छोड़ने को मजबूर हैं। देश की आधी आबादी के लिए कृषि से जुड़े क्रियाकलाप जीविकोपार्जन का प्रमुख साधन हैं, रोजगार में कृषि की भागीदारी कुल कार्यबल का 48.9 प्रतिशत है, लेकिन किसान बद से बदतर स्थिति में जी रहे हैं। कृषि लागत बढ़ने और फसलों की क्षति से भयभीत अब वे शहरों की ओर रोजगार के लिए पलायन कर रहे हैं।

रोजगार के लिए पलायन
पिछलें 20 वर्षो से हर दिन 2,052 किसान रोजगार के लिए शहरों की ओर जा रहे हैं। स्वच्छता की चुनौती से रूबरू देश के महज दो प्रतिशत शहरों में ही सीवेज सिस्टम ठीक है, जबकि विश्व प्रवासन की एक रपट के अनुसार भारत की शहरी जनसंख्या 2050 तक 81.4 करोड़ तक पहुंचने की संभावना है। देश में 2011 की जनसंख्या के अनुसार अनुसूचित जाति की जनसंख्या 20.14 करोड़ व अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या 10.43 करोड़ है। इसमें से लगभग 10 करोड़ लोग मलिन बस्तियों में रहते हैं। भारत की आधी आबादी की जीवन रेखा कृषि है, जो कुल कार्यबल का 48.9 प्रतिशत है। 17 राज्यों में किसानों की सालाना आय 20 हजार रुपये से कम है।

मानव तस्करी की दशा भयावह
थॉमसन रॉयटर्स फांउडेशन के सर्वे के मुताबिक भारत में मानव तस्करी की दशा भयावह है। बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था- कैम्पेन अगेंस्ट चाइल्ड ट्रैफिकिंग ने मानव तस्करी के कारणों का खुलासा करते हुए कहा है कि भारत की भौगोलिक और सामाजिक विविधता इसके लिए बेहद मुफीद है। दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के दावों के बीच सामाजिक न्याय की स्थापना सबसे बड़ी चुनौती है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में नीति निर्माताओं के सामने एक बड़ा सवाल यह होना चाहिए कि वे देश के नागरिकों की बेहतरी के लिए ऐसी नीतियां बनाएं जिससे लोगों का जीवन स्तर बेहतर हो सके। अफसोस सरकारें और सियासी दल चुनाव के समय भी देश की मूलभूत समस्याओं के लिए इतने मुखर कभी नहीं होते जितने वे अन्य मुद्दों को लेकर संजीदा दिखाई देते हैं।

(लेखक विक्रम विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं)

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