एनआरसी: बांग्लादेशी शरणार्थियों को देश की सुरक्षा के लिए खतरा मानती थीं इंदिरा गांधी!
देशों के बीच सरहदें शायद इसीलिए खींची गईं कि सभी देश अपनी-अपनी चहारदीवारी के भीतर रह रहे लोगों के कल्याण के प्रति जवाबदेह रह सकें।
नई दिल्ली (जागरण स्पेशल)। देशों के बीच सरहदें शायद इसीलिए खींची गईं कि सभी देश अपनी-अपनी चहारदीवारी के भीतर रह रहे लोगों के कल्याण के प्रति जवाबदेह रह सकें। कोई भी व्यक्ति अपने देश की सरहद दो ही वजहों से लांघता है। एक तो अगर उसके धर्म, मान-सम्मान और जीवन जीने के मूल अधिकार को दबाया ता है तो फिर वह उस देश की शरण लेता है जहां उसे लगता है कि वह सम्मानपूर्वक जीवन जी सकेगा। सीमा लांघने वाली दूसरी किस्म उन लोगों की है जो कारोबार या अच्छे मौकों की तलाश में किसी दूसरे देश आते हैं और वहीं के होकर रह जाते हैं। इस दौरान अपनी नागरिकता साबित करने के लिए वे तमाम प्रमाण-पत्र जुटा भी लेते हैं।
शरणार्थी बनाम घुसपैठिये
संदर्भ में पहली किस्म शरणार्थी कहलाती है, जो सहानुभूति का पात्र हो सकती है, लेकिन घुसपैठिया कहलायी जाने वाली दूसरी किस्म बिल्कुल भी रियायत की पात्र नहीं है। इसी का पहचान करने के लिए असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का मसौदा तैयार किया गया जिसके अनुसार 40 लाख लोग प्रदेश में शरणार्थी और घुसपैठिया हो सकते हैं। कुछ पार्टियां इस चिह्नीकरण प्रक्रिया का राजनीतिक लाभ लेने के चक्कर में बवाल काटे हुए हैं तो कुछ प्रक्रियागत खामियों पर सवाल खड़े हो रहे हैं। ऐसे में भारत में गैरकानूनी घुसपैठियों और शरणार्थियों के निपटने के तरीके की पड़ताल आज बड़ा मुद्दा है।
कांग्रेस का रुख तब और अब
जो कांग्रेस पार्टी आज असम में अवैध तरीके से रह रहे प्रवासियों को वापस उनके देश भेजे जाने के सरकार के फैसले पर अपना रुख स्पष्ट नहीं कर पा रही है, वह यह भूल रही है कि 1971 में बांग्लादेशी शरणार्थियों के बारे में उन्हीं की पार्टी की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की क्या राय थी। इंदिरा देश की आंतरिक सुरक्षा को जबरदस्त रखने के लिए इन शरणार्थियों को वापस इनके देश भेजने के पक्ष में थीं। कांग्रेस के ही दूसरे प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने असम समझौते पर दस्तखत किए थे, जो एनआरसी के दूसरे व अंतिम मसौदे का आधार है।
इंदिरा गांधी की सोच
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से पहले जब दोनों देशों की सेनाएं सीमा पर तैनात थीं तो इंदिरा गांधी एक इंटरव्यू में बांग्लादेशी प्रवासियों के बारे में अपना रुख साफ किया था। उन्होंने कहा, ‘भारत हमेशा शांति और समझौते की बात करता है लेकिन इस घड़ी में हम अपनी आंतरिक सुरक्षा को खतरे में नहीं डाल सकते। पाकिस्तान के साथ युद्ध के हालात बन रहे हैं ऐसे में वह भारत के अंदर अपने लोगों को एकजुट करके देश को अंदर से नुकसान पहुंचा सकता है। पूर्वी पाकिस्तान खुद को अलग राष्ट्र घोषित करना चाहता है। ऐसे में वहां से जो शरणार्थी आ रहे हैं हमारे लिए उन्हें अपने यहां रखना मुश्किल हो रहा है। पिछले कुछ महीनों से हम बर्दाश्त कर रहे हैं लेकिन अब पानी सिर के ऊपर जा चुका है। लेकिन एक बात में साफ कर दूं कि सब धर्मों के सभी शरणार्थियों को वापस जाना ही होगा। भारत उन्हें अपने यहां समाहित नहीं करेगा।’
राजीव गांधी की राजनीति
1979 में असम से विदेशियों को बाहर खदेड़ने के लिए असम स्टूडेंट्स यूनियन ने राज्य में आंदोलन छेड़ दिया, जो देखते ही देखते हिंसक हो उठा। छह साल बाद यह आंदोलन तब रुका जब 1985 में देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने असम समझौते पर दस्तखत किए। इस समझौते के जरिए सरकार ने लोगों को यह दिलासा देने की कोशिश की वह राज्य में घुसपैठियों की समस्या का संतोषजनक हल निकालने के लिए पूरा जोर लगा रही है। सरकार ने इसके लिए कुछ प्रस्तावों की सूची भी तैयार की। इस समझौते का प्रमुख बिंदु यह था कि जो विदेशी 25 मार्च, 1971 के बाद असम मे दाखिल हुए थे, उनकी जांच होगी और उन्हें देश से बाहर करने के सभी कदम उठाए जाएंगे।
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन
असम में रह रहे घुसपैठियों की पहचान कर उन्हें देश से बाहर भेजने के लिए 1951 में नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजन (एनआरसी) बनाया गया था। इसमें संशोधन किए जा रहे हैं। बीते सोमवार को एनआरसी का दूसरा और अंतिम मसौदा जारी किया गया। इस लिस्ट में सिर्फ उन लोगों के नाम शामिल किए गए हैं, जो 25 मार्च 1971 के पहले से असम में रह रहे हैं।
घुसपैठियों का आंकड़ा
30 लाख 10 अप्रैल, 1992 को असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया ने यह आंकड़ा बताया। दो दिन बाद उन्होंने अपना बयान वापस ले लिया।
01 करोड़ 6 मई, 1997 को तत्कालीन गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्ता ने देश में रह रहे कुल अवैध अप्रवासियों की अनुमानित संख्या संसद में बताई।
50 लाख 2004 में गृह मंत्रालय ने असम के लिए यह आंकड़ा बताया।
41 लाख 2009 में असम पब्लिक वर्क्स एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में यह आंकड़ा बताया था। चुनाव आयोग ने इस पर प्रतिक्रिया नहीं दी।
क्या है मसला
1947 में भारत-पाकिस्तान का बंटवारा होने के बाद कई लोग असम से पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) चले गए। लेकिन लोगों के घर-परिवार वहीं रह गए और अवैध तरीके से भारत में लोगों का आना-जाना इसके बाद भी जारी रहा। ऐसे में 1979 में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (एएएसयू) और ऑल असम गण संग्राम परिषद (एएजीएसपी) ने असम में अवैध रूप से रह रहे प्रवासियों के खिलार्फ ंहसक आंदोलन छेड़ दिया। यह आंदोलन छह वर्ष तक जारी रहा। अगस्त, 1985 में भारत सरकार और इन दोनों संगठनों के बीच असम समझौता हुआ जिसके बार्द ंहसा पर रोक लगी और असम में नई सरकार का गठन हुआ। इस समझौते का एक अहम भाग यह था कि 1951 की एनआरसी सूची में संशोधन किया जाएगा।
1971 का महत्व
1971 से 1991 के बीच असम में बड़ी संख्या में मतदाता बढ़े, जिसने असम में अवैध तरीके से लोगों के प्रवेश की तरफ इशारा किया।
40 लाख लोग संकट में
इस आधार पर एनआरसी में करीब 2.89 करोड़ लोगों को भारत का नागरिक माना गया है। वहीं 40 लाख लोगों को भारतीय नागरिकता नहीं दी गई है। ऐसे में इन लोगों का अस्तित्व खतरे में आ गया है।
असम इसलिए गिन रहा अपने नागरिक
पूर्वी पाकिस्तान से भारत में अवैध प्रवेश करने वाले लोगों और भारतीय नागरिकों की पहचान करने के लिए पहली बार नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजन तैयार किया गया।
1971 से 1978 तक असम में मतदाताओं की संख्या में हुआ इजाफा
1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के सात साल बाद असम में मतदाताओं की संख्या 50 फीसद तक बढ़ी। असम के मंगलदोई लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में ही पचास हजार अधिक मतदाता पाए गए। 1979 में असम में अवैध तरीके से आने वाले लोगों के खिलाफ शुरू हुआ हिंसक प्रदर्शन 1985 में असम समझौते के बाद बंद हुआ। इसका एक मुख्य बिंदु यह था कि 1951 का एनआरसी संशोधित किया जाए और इसमें वर्ष 1971 को मानक वर्ष माना गया। सर्वोच्च न्यायालय ने 2009 में दायर एक जनहित याचिका के बाद इस प्रक्रिया की निगरानी शुरू की। इसके बाद 2015 में एनआरसी पर काम किया जाना शुरू हुआ।
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