तेल की कीमतों से लोगों को राहत देने का मिल गया तरीका
बढ़ी कीमतें जहां एक ओर उपभोक्ताओं का बजट बिगाड़ रही हैं, वहीं सरकार का भी। सरकार को जल्द ही इसका समाधान करना होगा।
[प्रो. लल्लन प्रसाद]। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में लगातार वृद्धि देश की अर्थव्यवस्था के लिए चिंता का विषय बनती जा रही है। डीजल की कीमतें 16 वर्षों के रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। पेट्रोल की कीमतें भी 2013 के बढ़े स्तर से आगे निकल गई हैं। कर्नाटक चुनाव के कुछ दिनों पहले से तेल कंपनियों ने कीमतों पर जो लगाम लगाई थी उसे चुनाव समाप्त होते ही ढीला कर दिया। उसके बाद से कीमतें लगातार चढ़ रही हैं। बढ़ी कीमतें जहां एक ओर उपभोक्ता का बजट बिगाड़ती हैं, वहीं सरकार का भी। उत्पादन लागत एवं यातायात के खर्चे में बढ़ोतरी चीजों की कीमतें चढ़ती है।
आयात का बिल बढ़ने से विदेशी मुद्रा के भंडार पर जोर पड़ता है। केंद्र सरकार की बजट का संतुलन बिगड़ता है, वित्तीय घाटा बढ़ता है। भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कच्चे तेल का आयातक देश बन चुका है। अस्सी प्रतिशत कच्चे तेल की आवश्यकता आयात पर निर्भर है। वर्ष 2009- 2010 में लगभग 159 मिलियन टन कच्चा तेल आयात होता था जो आज बढ़कर 220 मिलियन टन के ऊपर पहुंच गया है। इस बीच आयात बिल 3.75 लाख करोड़ रुपये बढ़कर 5.65 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गया है।
कीमत निर्धारण का तरीका
पेट्रोल और डीजल की कीमतों में उतार चढ़ाव आम बात है। जहां अधिकांश उपभोक्ता वस्तुएं एक कीमत स्तर पर काफी दिनों तक रह जाती हैं, वहीं पेट्रोल और डीजल की कीमतें बहुत थोड़े अंतराल में ही परिवर्तित होती रहती हैं। 16 जून, 2017 के पहले देश के बाजार में इनकी कीमतों में हर पंद्रहवें दिन बदलाव का प्रावधान था जो अब नहीं है। अब हर दिन कीमतें बदली जा सकती हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत और रुपये की क्रय शक्ति कीमत निर्धारण के प्रमुख आधार हैं। विशेषज्ञों को मानना है कि कच्चे तेल की कीमत में एक डॉलर प्रति बैरल की बढ़ोतरी आयात बिल 823 करोड़ रुपये बढ़ा देती है यही असर रुपये की कीमत कम होने पर भी देखा जाता है।
इस समय भारतीय रुपया ढलान पर है जिससे संकट गहराता जा रहा है। भारत में कच्चे तेल का उत्पादन और व्यापार मात्र पांच कंपनियों के हाथों में है, कीमत भी वे ही निर्धारित करती हैं। 95 प्रतिशत कारोबार सरकारी कंपनियों- बीपीसीएल, आइओसीएल एवं एचपीसीएल के नियंत्रण में है। बाकी 5 प्रतिशत दो निजी कंपनियों रिलायंस एवं एस्सर के हाथों में है। ये कंपनियां कच्चा तेल अंतरराष्ट्रीय कंपनियों और तेल के व्यापारियों से खरीदती हैं, रिफाइन करती हैं और पेट्रोल पंपों तक पहुंचाती हैं। केंद्र सरकार निर्धारित दर पर इनसे एक्साइज चार्ज करती है जिसमें बदलाव भी उसके ही अधिकार क्षेत्र में है। पेट्रोल और डीजल पर वैट राज्य सरकारें लेती हैं, वे ही दर भी तय करती हैं।
भर रहा सरकार का खजाना
पेट्रोल और डीजल की जो कीमत उपभोक्ता देता है उसमें एक्साइज ड्यूटी, राज्य कर के साथ- साथ पेट्रोल पंप के डीलर का मुनाफा, पर्यावरण सेस, सरचार्ज आदि शामिल होते हैं। पेट्रोल की कीमत में लगभग आधा भाग टैक्सों और अन्य मदों का होता है, डीजल में यह लगभग 45 प्रतिशत होता है। कीमतें जैसे-जैसे बढ़ती हैं केंद्र और राज्य सरकारों को अधिक टैक्स मिलता है। बोझ जनता को उठाना पड़ता है। 2014-2015 में केंद्र सरकार को पेट्रोल व डीजल पर लगी एक्साइज और टैक्सों से 1.72 लाख करोड़ रुपये का लाभ हुआ था जो 2016-2017 में बढ़कर 3.34 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया।
समय-समय पर सरकार टैक्स दरों में बदलाव करती रहती है, किंतु आमतौर पर यह बदलाव कभी भी उपभोक्ताओं को अंतरराष्ट्रीय कीमतों में बदलाव के अनुपात में लाभ नहीं देता। राज्य सरकारों को भी टैक्सों से भारी लाभ होता है, टैक्स की दरों पर वे अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहती हैं। 2014-2015 में राज्य सरकारों को पेट्रोल व डीजल पर लगाए टैक्सों से 1.40 लाख करोड़ रुपये की प्राप्ति हुई जो 2016- 2017 में बढ़कर 1.89 लाख करोड़ रुपये पहुंच गई। यही वजह है कि पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के अंतर्गत लाने का अधिकांश राज्य सरकारें विरोध कर रही हैं।
राज्य सरकारों द्वारा टैक्स दरों में विभिन्नता होने के कारण पूरे देश में पेट्रोल व डीजल की कीमतों में समानता संभव नहीं है। कहीं उपभोक्ताओं को कम दाम देना पड़ता है तो कहीं अधिक। 21 मई 2018 को मुंबई में पेट्रोल की कीमत 80.40 रुपये प्रति लीटर थी जबकि चेन्नई, कोलकाता और दिल्ली में क्रमश: 79.47 रुपये, 79.24 रुपये और 76.57 रुपये प्रति लीटर थी। जिन शहरों में उस दिन पेट्रोल की कीमत 80 रुपये के ऊपर थी उनमें पटना, पुदुचेरी, त्रिवेंद्रम, भोपाल, जालंधर एवं श्रीनगर शामिल थे। वहीं पूर्वोत्तर के अधिकांश शहरों में उस दिन पेट्रोल 73 रुपये प्रति लीटर से कम पर बिक रहा था।
पिछले सत्तर वर्षों में हमारे नीति निर्धारकों ने ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के लिए गंभीर प्रयास नहीं किए, क्योंकि तेल के आयात में उन्हें कठिनाई नहीं थी। मोदी सरकार ने वैकल्पिक ऊर्जा जैसे सोलर एनर्जी के विकास पर जोर देना शुरू किया है। जो एक साहसिक कदम है। कच्चे तेल की संपदा भारत को भी प्रकृति ने अच्छी मात्रा में दी है। किंतु एक्सप्लोरेशन और रिफाइनिंग के लिए जिन साधनों को विकसित किया जाना चाहिए था उन पर ध्यान नहीं के बराबर दिया गया। उसका एक कारण तेल उत्पादक देशों का दबाव भी माना जा सकता है।
राहत के इंतजार में जनता
आम उपभोक्ताओं को पेट्रोल और डीजल की जो कीमत भारत में चुकानी पड़ती है वह कई और देशों की तुलना में अधिक है। अमेरिका में औसतन एक दिन के गैस की कीमत जो उपभोक्ता देता है वह उसकी आमदनी का लगभग 0.5 प्रतिशत आता है। यूरोपीय देशों में यह 2 से 4 प्रतिशत के करीब होता है, जबकि भारत में यह 20 प्रतिशत के आसपास आ जाता है। यह सच है कि विकसित देशों में आमदनी का स्तर विकासशील देशों की अपेक्षा काफी ज्यादा है, किंतु इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि क्रय शक्ति समानता (परचेजिंग पावर पैरिटी) के सिद्धांत पर भारत जैसे देश में चीजों की कीमतें विकसित देशों की अपेक्षा काफी कम हैं विशेषकर जीवन की आवश्यकता से जुड़ी चीजें। पेट्रोल और डीजल भी आवश्यक पदार्थ में हैं फिर क्यों देशवासियों को इनकी भारी कीमत देने के लिए मजबूर किया जाता है। केंद्र और राज्य सरकारें पेट्रोल और डीजल पर लगाए जाने वाले करों में कटौती करें और जनता को कम दाम पर इन्हें मुहैया कराएं तो यह जनतांत्रिक सरकार की उपलब्धि मानी जाएगी।
पेट्रोलियम मंत्री ने टैक्सों को कम करने और सरकारी तेल कंपनियों को हानि से बचाने के लिए सब्सिडी देने के बारे में सोचने की बात कही है। आशा है यह सोच कार्यान्वित भी की जाएगी। देश में जीएसटी लागू हो चुका है, किंतु पेट्रोल और डीजल को उससे बाहर रखा गया है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और विश्व के अनेक देशों में ये पदार्थ जीएसटी के दायरे में हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर शीघ्र निर्णय लेने की आवश्यकता है। अलग-अलग राज्यों में अभी उपभोक्ता को अलग-अलग कीमतें देनी पड़ रही हैं। जीएसटी व्यवस्था के अंतर्गत पेट्रोल और डीजल को लाने से एक टैक्स एक बाजार का लाभ सामान रूप से सभी उपभोक्ताओं को मिल सकेगा। जब तक यह नहीं होता टैक्स की दरों में कम से कम 10 से 15 प्रतिशत कटौती करके सरकार उपभोक्ताओं को राहत दे सकती है।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी देश की अर्थव्यवस्था के लिए चिंता का विषय बनती जा रही है। वहीं कर्नाटक चुनाव के कुछ दिनों पहले से तेल कंपनियों ने देश में पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर जो लगाम लगाई थी उसे चुनाव समाप्त होते ही ढीला कर दिया है। उसके बाद से तेल की कीमतें लगातार ऊपर चढ़ रही हैं। बढ़ी कीमतें जहां एक ओर उपभोक्ताओं का बजट बिगाड़ रही हैं, वहीं सरकार का भी। सरकार को जल्द ही इसका समाधान करना होगा।
[पूर्व प्रमुख एवं डीन, बिजनेस इकोनॉमिक्स विभाग, दिल्ली विवि]