'जज को शर्मिंदा नहीं करना चाहते थे...', इलाहाबाद HC के जज के खिलाफ आदेश पर सुप्रीम कोर्ट का यूटर्न
इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश प्रशांत कुमार के खिलाफ की गई टिप्पणियों को सुप्रीम कोर्ट ने वापस ले लिया। कोर्ट ने कहा कि उनका उद्देश्य न्यायाधीश को शर्मिंदा करना नहीं था। CJI के हस्तक्षेप के बाद पीठ ने अपने आदेश से उन अंशों को हटाने का आदेश दिया जिनमें जस्टिस प्रशांत कुमार को सेवानिवृत्त होने तक आपराधिक मामलों की सुनवाई न सौंपने के निर्देश थे।

माला दीक्षित, नई दिल्ली। भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआइ) के हस्तक्षेप के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश प्रशांत कुमार के खिलाफ की गई टिप्णियां और उन्हें आपराधिक मामलों की सुनवाई न सौंपे जाने का अपना आदेश शुक्रवार को वापस ले लिया।
न्यायमूर्ति जेबी पार्डीवाला और आर महादेवन की पीठ ने अपने गत चार अगस्त के आदेश से वे अंश मिटाने के आदेश दिये हैं जिनमें जस्टिस प्रशांत कुमार को सेवानिवृत होने तक आपराधिक मामलों की सुनवाई न सौंपे जाने के निर्देश दिए गए थे।
शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया है कि उस आदेश में उनका उद्देश्य संबंधित न्यायाधीश को शर्मिंदा करने या उन पर आक्षेप लगाने का नहीं था, हालांकि जब मामला हद पार कर जाता है और संस्था की गरिमा खतरे में पड़ जाती है, तो इस अदालत का संवैधानिक कर्तव्य है कि वह हस्तक्षेप करे।
न्यायाधीश को क्रिमनल मामले सुनवाई के लिए न दिये जाएं: SC
सुप्रीम कोर्ट ने गत चार अगस्त को दीवानी मामले में आपराधिक कार्यवाही की अनुमति देने वाले इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश प्रशांत कुमार के आदेश पर कड़ी आपत्ति जताते हुए न सिर्फ वह आदेश रद किया था बल्कि हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से कहा था कि आदेश देने वाले संबंधित न्यायाधीश को क्रिमनल मामले सुनवाई के लिए न दिये जाएं।
उन्हें किसी वरिष्ठ जज के साथ खंडपीठ में बैठाया जाए और अगर वह एकलपीठ में भी बैठते हैं तो उन्हें आपराधिक मामले सुनवाई के लिए न सौंपे जाएं। उन्हें सेवानिवृत होने तक आपराधिक मामले सुनवाई के लिए न दिए जाएं। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर बड़ी प्रतिक्रिया हुई और इलाहाबाद हाई कोर्ट के 13 न्यायाधीश इसके खिलाफ खुल कर सामने आ गए थे उन्होंने हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को पत्र लिख कर फुल कोर्ट बैठक बुलाने का आग्रह किया था।
इसी बीच भारत के प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई ने फैसला देने वाली पीठ को पत्र भेजकर आदेश पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया था। सीजेआइ के दखल के बाद ये मामला शुक्रवार को फिर सुनवाई पर लगा और पीठ ने चार अगस्त के आदेश के पैराग्राफ 25 और 26 को हटाने का आदेश दिया जिसमें हाई कोर्ट के जस्टिस प्रशांत कुमार पर टिप्पणियां थीं और उन्हें सेवानिवृति तक क्रिमनल केस नहीं सौंपने के निर्देश थे।
पीठ ने मामले पर पुनर्विचार के अनुरोध वाले सीजेआइ के पत्र का संदर्भ देते हुए चार अगस्त के आदेश से उन अंशो को हटाते हुए कहा कि उनका इरादा संबंधित जज को शर्मिंदा करने या उन पर आक्षेप लगाने का नहीं था और न ही वह ऐसा करने की सोच सकते हैं। हालांकि जब मामला हद पार कर जाता है और संस्था की गरिमा खतरे में पड़ जाती है, तो इस अदालत का संवैधानिक कर्तव्य है कि वह हस्तक्षेप करे। कोर्ट ने कहा कि उस आदेश के पैराग्राफ 25 और 26 में दिए गए निर्देश पैराग्राफ 27 की गई टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए जारी किये गए थे।
इसके साथ ही कोर्ट ने चार अगस्त के आदेश का पैराग्राफ 27 उद्धत किया जिसमें कहा गया था कि कोर्ट पैराग्राफ 22,23,24,25और 26 में दिए गए निर्देश जारी करने को बाध्य है, यह ध्यान रखते हुए कि विवादित आदेश संबंधित न्यायाधीश का एकमात्र गलत आदेश नहीं है जिस पर हमने पहली बार गौर किया है, हमने समय समय पर ऐसे कई गलत आदेशों पर गौर किया है।
हाई कोर्ट कोई अलग द्वीप नहीं है जिन्हें इस संस्था से अलग रखा जा सके: SC
पीठ ने कहा कि इसी तरह जब कभी उन्हें कानूनी रूप से निर्विवाद और पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने वाले आदेश दिखते हैं तो वे उसके लिए उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सराहना भी करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट कोई अलग द्वीप नहीं है जिन्हें इस संस्था से अलग रखा जा सके। पीठ ने कहा कि उन्होंने आदेश में जो भी कहा वह ये सुनिश्चित करने के लिए था कि लोगों के मन में न्यायपालिका की उच्च गरिमा कायम रहे, क्योंकि इससे जनता का हममें विश्वास मजबूत करने मे काफी मदद मिलेगी।
सुप्रीम कोर्ट ने आदेश में ये भी कहा कि यह सिर्फ न्यायाधीश द्वारा कानूनी बिंदुओं या तथ्यों को समझने में त्रुटि या भूल का मामला नहीं है। हम न्याय के हित में संस्था के सम्मान और गरिमा की रक्षा के लिए जारी किए जाने वाले उचित निर्देशों के बारे में चिंतित थे। कहा कि इस देश में न्याय के लिए कोर्ट पहुंचने वाले 90 प्रतिशत लोगों के लिए उच्च न्यायालय ही अंतिम कोर्ट है।
केवल दस फीसद लोग ही सुप्रीम कोर्ट आते हैं। अदालत आने वाले वादी ये उम्मीद करते हैं कि न्याय प्रणाली कानून के अनुसार काम करे, न कि वे अतार्किक और बेतुके आदेश प्राप्त करें। पीठ ने सीजेआइ के लिखित अनुरोध को देखते हुए अपने चार अगस्त के आदेश से पैराग्राफ 25 और 26 हटा दिया साथ ही कहा कि वह इस मामले को हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस पर छोड़ते हैं।
पीठ ने ये भी कहा कि वे मानते हैं कि हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ही मास्टर आफ रोस्टर होते हैं। लेकिन कोर्ट का आदेश उनके प्रशासनिक अधिकार में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं था। पीठ ने कहा कि जब कोई मामला संस्थागत ¨चताएं उत्पन्न करता है जो कानून के शासन को प्रभावित करती हैं तो यह कोर्ट हस्तक्षेप करने और सुधारात्मक कदम उठाने को बाध्य हो जाता है। कहा कि हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य मे किसी भी उच्च न्यायालय से ऐसे विकृत और अन्याय पूर्ण आदेश देखने को नहीं मिलेगा।
पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालयों का प्रयास हमेशा कानून का शासन बनाए रखने और संस्थागत विश्वस्नीयता बनाए रखने का होना चाहिए। यदि न्यायालय के भीतर ही कानून के शासन को नहीं बनाए रखा गया या संरक्षित किया गया तो देश की संपूर्ण न्याय व्यवस्था का अंत होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी भी स्तर पर न्यायाधीशों से अपेक्षा की जाती है कि वे कुशलतापूर्वक कार्य करें। अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करें और अपनी संवैधानिक शपथ को पूरा करने के लिए सदैव कड़ी मेहनत करें। यह कहते हुए कोर्ट ने केस निपटा दिया और आदेश की प्रति इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भेजने का आदेश दिया है।
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