'अंतरात्मा को झकझोर दिया', ये कहकर सुप्रीम कोर्ट ने रद की बिहार महिला संरक्षण गृह की पूर्व अधीक्षक की जमानत
सुप्रीम कोर्ट ने यौन शोषण और मानसिक प्रताड़ना के मामले में सरकारी महिला संरक्षण गृह की पूर्व अधीक्षक की जमानत रद्द कर दी। अदालत ने कहा कि रक्षक ही भक्षक बन गया। शीर्ष अदालत ने पटना हाई कोर्ट के जमानत आदेश को रद्द करते हुए आरोपी को निचली अदालत में आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया और पीड़िता को सुरक्षा सुनिश्चित करने का आदेश दिया।

पीटीआई, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने यौन शोषण और मानसिक प्रताड़ना के मामले में सरकारी महिला संरक्षण गृह की पूर्व अधीक्षक की जमानत सोमवार को रद कर दी। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने कहा, यह ऐसा मामला है, जिसमें रक्षक ने ही भक्षक या राक्षस की तरह बर्ताव किया।
इस टिप्पणी के साथ शीर्ष अदालत ने अनुसूचित जाति की एक पीड़िता की याचिका को स्वीकार कर 18 जनवरी, 2024 को पारित पटना हाई कोर्ट के जमानत आदेश को रद कर दिया। शीर्ष अदालत ने आरोपित को चार सप्ताह के भीतर निचली अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया और पटना प्रशासन को पीड़िता को उचित सुरक्षा और सहायता सुनिश्चित करने का आदेश दिया।
आदेश में पीठ ने क्या कहा?
पीठ ने आदेश में कहा, आरोपों ने अदालत के अंतरात्मा को झकझोर दिया है। प्रतिवादी महिला संरक्षण गृह की प्रभारी अधिकारी के रूप में तैनात थी। उस पर वहां रहने वालों की सुरक्षा करने की जिम्मेदारी थी, लेकिन वह उन असहाय और बेसहारा महिलाओं का यौन शोषण करने लगी, जिन्हें उस संरक्षण गृह में रखा गया था।
इस मामले में प्राथमिकी तब दर्ज की गई थी जब हाई कोर्ट ने संरक्षण गृह की पीडि़त महिलाओं की व्यथा बताने वाली एक समाचार पत्र की रिपोर्ट का संज्ञान लिया था। जांच की निगरानी भी हाई कोर्ट ने की थी। पूर्व अधीक्षक पर पीड़िता और अन्य कैदियों को बेहोशी के इंजेक्शन देने का आरोप लगाया गया था। इन पीड़ितों का बाद में संरक्षण गृह के बाहर के लोगों ने यौन उत्पीड़न किया। पीड़ितों को मानसिक यातना भी दी गई थी।
'हाई कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद दर्ज हुई एफआईआर'
फैसला लिखने वाले जस्टिस मेहता ने कहा, अभियुक्त पर गंभीर आरोप हैं। इस मामले में प्राथमिकी हाई कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद दर्ज की गई। जांच की निगरानी भी हाई कोर्ट ने की थी। उसे जमानत देने से मुकदमे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
पीठ ने कहा, सामान्य तौर पर जमानत दिए जाने के बाद उसे रद नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन जहां तथ्य इतने गंभीर हों कि वे न्यायालय के अंतरात्मा को झकझोर दें, और जहां अभियुक्त को जमानत पर रिहा करने से समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, वहां न्यायालय से अपेक्षा की जाती है कि वे कानून द्वारा प्रदत्त अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए ऐसे जमानत आदेशों को रद करें ताकि न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति हो सके। यह मामला बिल्कुल इसी तरह का मामला है।
अदालत ने कहा कि जमानत केवल इस आधार पर रद की जा सकती थी कि पीड़िता को हाई कोर्ट की कार्यवाही में पक्षकार नहीं बनाया गया था, जो कि एससी/एसटी अधिनियम के तहत प्राथमिकी दर्ज होने पर पूर्व शर्त है। इस मामले को असाधारण बताया गया, क्योंकि हाई कोर्ट ने गुप्त तरीके से जमानत दी थी।
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