मैला ढोने वाली औरत को छूने पर पीना पड़ा था गोमूत्र, ससुर ने तोड़ दिया रिश्ता; मगर नहीं रुकी ’सुलभ’ की रफ्तार
जिन मैला ढोने वाली महिलाओं को लोग अछूत समझते थे और दूर से पैसे फेंक कर देते थे। आज उन्हीं महिलाओं के हाथों का बना पापड़ और अचार का स्वाद चख रहे हैं। ऐसा मुमकिन केवल सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ.बिंदेश्वर पाठक की जिद अडिग भावना हठ संकल्प और दृढ़निश्चय से मुमकिन हो पाया है। वह न केवल एक सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक थे बल्कि उससे ज्यादा एक समाजशास्त्री थे।

नई दिल्ली, ऑनलाइन डेस्क। Bindeshwar Pathak: बचपन में बिंदेश्वर पाठक ने एक मैला ढोने वाली औरत को छू लिया था। यह बात जब उनकी दादी को पता चली तो उन्होंने न केवल उन्हें नहलाया, बल्कि गाय का गोबर और गोमूत्र तक पिला डाला। जब पाठक के ससुर को ये पता चला की वे मैला ढोने वाले लोगों के लिए काम करते हैं, तो उन्होंने उनसे रिश्ता तोड़ने की बात कह दी। इसी पर पाठक ने अपने ससुर को जवाब दिया था, 'मैं इतिहास का पन्ना पलटने चला हूं। या तो पन्ना पलट दूंगा या खो जाऊंगा।'
सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक की जिद
53 साल पहले जिन मैला ढोने वाली महिलाओं को लोग अछूत समझते थे और दूर से पैसे फेंक कर देते थे। आज उन्हीं महिलाओं के हाथों का बना पापड़ और अचार का स्वाद चख रहे हैं। ऐसा मुमकिन केवल सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक की जिद, अडिग भावना, हठ, संकल्प और दृढ़निश्चय से मुमकिन हो पाया है।
भले ही वह इस दुनिया को अलविदा कह गए हैं, लेकिन उनके काम के बारे में जब मैला ढोने वाली महिलाओं और उससे जुड़े लोगों से पूछेंगे तो आपको गहराई से पता चलेगा की वह न केवल एक सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक थे बल्कि उससे ज्यादा एक समाजशास्त्री थे।
pic credit: sulabhinternational.org
शुलभ शौचालय ही क्यों?
अगर आप ये सोचते है कि शुलभ शौचालय का कॉनस्पेट आजकल का है तो आप बहुत बड़ी गलतफहमी में है क्योंकि इसकी शुरूआत 70 के दशक में ही हो चुकी थी। ठीक 53 साल पहले यानी 1970 में सार्वजनिक शौचालय का निर्माण किया जा चुका था। इसका सारा क्रेडिट एक ही शख्स को जाता है और वो है डॉ. बिंदेश्वर पाठक।
जी हां, जब उन्होंने 1968 में अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी की तो उन्होंने कुछ दिनों तक बतौर शिक्षक पढ़ाने का काम किया। इसके बाद वे बिहार गांधी सेनटेनरी सेलिब्रेशन कमेटी से जुड़ गए। इस दौरान उन्होंने खूब यात्राएं कीं और मैला ढोने वाले लोगों के दर्द को नजदीक से समझा। इसी के बाद पाठक के नेतृत्व में कम लागत में सार्वजनिक शौचालय बनवाने की पहल की शुरुआत हुई।
जब शौचालय के लिए पैसे देने पर उड़ता था मजाक
ठीक 4 साल बाद यानी 1974 में पहली बार बिहार की राजधानी पटना में सार्वजनिक शौचालय का निर्माण किया गया। डॉ. पाठक को पटना नगर निगम द्वारा जमीन मिली और पब्लिक से पैसा लेकर शौचालय चलाने की सलाह दी गई। 2016 में दैनिक जागरण कार्यालय में आयोजित 'दिल की बात' कार्यक्रम में डॉ. बिंदेश्वर पाठक शिरकत हुए थे।
इस दौरान उनसे कई सवाल भी हुए जिनका उन्होंने दिल खोलकर जवाब दिया। इस बातचीत में उन्होंने बताया था कि 70 के दशक में शौचालय के लिए पैसा देने की बात कहने पर लोग मजाक उड़ाते थे। हालांकि, अब इसमें बदलाव देखने को मिला। अब पूरी दुनिया में सुलभ शौचालय के आइडिया को अपनाया जा रहा हैं। सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना के बाद देश भर में सार्वजनिक जगहों पर सुलभ शौचालय बनाए गए। ये सभी कम लागत में और इको-फ्रैंडली शौचालय हैं।
जब खुद के ही घर में नहीं था सुलभ शौचालय
दैनिक जागरण के दिए एक साक्षात्कार में पाठक बताते है कि 'वैशाली के मेरे पैतृक निवास में नौ कमरे थे। पूजा घर था, लेकिन शौचालय नहीं था।' समृद्ध परिवार से ताल्लुक रखने वाले पाठक ने बाद में अपने पैतृक आवास में शौचालय का निर्माण कराया था। आपको बता दें कि बिंदेश्वर पाठक को सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण के क्षेत्र में क्रांति माना जाता है।
1968 में उन्होंने डिस्पोजल कम्पोस्ट शौचालय का आविष्कार किया था, जो कम खर्च में तैयार किया जाता था। गांधी जी और अंबेडकर के विचारों पर चलने वाले पाठक अंहिसा के रास्ते पर चलकर बदलाव लाना चाहते थे। जिस तरह गांधी जी का सपना था कि मैला ढोने की प्रथा समाप्त हो, वैसे ही पाठक भी उसी रास्ते में काम करते चले गए।
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जब अमेरिका को पड़ी पाठक की जरूरत
- सुलभ इंटरनेशनल ने 2011 में अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना के लिए शौचालय तैयार की थी।
- इससे पहले सुलभ इंटरनेशनल द्वारा काबुल में शौचालय तैयार किया जा चुका था।
- यह भारत के लिए गौरवान्वित पल था कि पहली बार अमेरिकी सेना ने खुद शौचालय बनाने का आग्रह पाठक से किया था।
- अमेरिकी सेना ने पाठक से बायो गैस से संचालित शौचालय की मांग की थी।
- 'सुलभ इंटरनेशनल' ने भारत के अलावा दक्षिण अफ्रीका, चीन, भूटान, नेपाल और इथोपिया समेत 10 अन्य देशों में शौचालय की तकनीक दे चुका था।
- डॉ. पाठक ने न केवल सुलभ शौचालय के निर्माण को लेकर काम किया बल्कि इंगलिश मीडियम पबल्कि स्कूल को स्थापित किया।
- गरीब परिवारों, विशेष रूप से सफाईकर्मियों के बच्चों को ट्रेनिंग देने के लिए पूरे देश में नेटवर्क स्थापित किया।
- 1991 में उन्हें उनके काम के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
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हाथ से मैला ढोने वाली प्रथा पर लगाई रोक
- हाथ से मैला ढोने की प्रथा पर रोक लगाने के लिए 1993 में एक कानून पारित किया गया था।
- महिलाओं की इसमें संख्या सबसे ज्यादा थी, जिसको देखते हुए पाठक के नेतृत्व में एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाया गया।
- डॉ. पाठक के हस्तक्षेप से 20,0000 से अधिक महिलाओं को शौचालयों की मैन्युअल सफाई से मुक्ति मिली।
- इसकी सफलता राजस्थान के दो शहरों अलवर और टोंक में देखा जा सकता है।
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