बिंदेश्वर पाठक ने की 'दिल की बात', कहा - सुलभ मेरा काम नहीं, 'प्रेमिका' है
सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक ने पटना दैनिक जागरण के कार्यालय में दिल की बात श्रृंखला के अंतर्गत बातचीत करते हुए कहा कि सुलभ इंटरनेशनल से मेरा लगाव इस हद तक है कि मैं कहता हूं कि सुलभ सिर्फ मेरा काम या सपना नहीं है, मेरी प्रेमिका है।
शौचालय को लेकर बातें तो कइयों ने की मगर काम सबसे पहले डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने किया। वो भी आज से लगभग 50 साल पहले। हां, वही बिंदेश्वर पाठक, सुलभ शौचालय वाले। दैनिक जागरण कार्यालय में आयोजित 'दिल की बात' कार्यक्रम में आए डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने सचमुच दिल खोलकर बात की।
सुलभ के बारे में बातचीत के दौरान ये देखना भी आश्चर्य से भी कम नहीं था कि 73 वर्ष की उम्र में भी उन्हें 40-50 साल पहले मिले लोगों के नाम जुबानी याद हैं। वे प्रसंग ऐसे सुना रहे थे, मानो फिर से उसे जी रहे हों। उनको सुनना और जानना रोचक के साथ प्रेरक भी है। जानिए, डॉ. बिंदेश्वर पाठक से 'दिल की बात'...
पटना। अगर आप सिर्फ सुलभ शौचालय के लिए डॉ. बिंदेश्वर पाठक के योगदान को सराह रहे हैं, तो ये आपकी भूल है। डॉ. बिंदेश्वर पाठक के योगदान को समझने के लिए आपको उन्हें और नजदीक से जानना होगा। आपको उन महिलाओं से मिलना होगा, जो कल तक मैला ढोती थीं और आज फेशियल कर रही हैं।
आपको उन परिवारों से मिलना होगा, जिन्हें कल तक अछूत समझा जाता था मगर आज वे एक साथ बिरादरी भोज में शरीक हो रहे हैं। डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने जब 'दिल की बात' की तो उनके शख्सियत के ऐसे ही कई चेहरे सामने आए। वे सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक से ज्यादा एक समाजशास्त्री लगे।
डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने बातचीत की शुरुआत 48 साल पहले से की, जब वे पटना विवि से स्नातक की पढ़ाई पूरी कर बिहार गांधी सेनटेनरी सेलिब्रेशन कमेटी से जुड़े थे। उन्होंने बताया कि इस दौरान उन्होंने खूब यात्राएं कीं और मैला ढोने वाले लोगों के दर्द को नजदीक से समझा। इसके बाद 1970 में उन्होंने सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की।
1974 में पहली बार पटना में सार्वजनिक शौचालय का निर्माण किया। पटना नगर निगम ने जमीन दी और कहा- पब्लिक से पैसा लीजिए और शौचालय चलाइए। डॉ. पाठक कहते हैं, उस समय शौचालय के लिए पैसा देने की बात कहने पर लोग मजाक उड़ाते थे। आज उसी सुलभ शौचालय के कांसेप्ट पर पूरी दुनिया में शौचालय बन रहे हैं। आज करीब 1.5 करोड़ लोग सुलभ शौचालय की सेवा ले रहे हैं।
खुद के घर में भी नहीं था शौचालय
डॉ. पाठक कहते हैं, वैशाली के मेरे पैतृक निवास में नौ कमरे थे। पूजा घर था, मगर शौचालय नहीं था, जबकि उनका परिवार काफी समृद्ध था। बाद में सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना के बाद उन्होंने अपने पैतृक आवास में भी शौचालय का निर्माण कराया।
एक बार बचपन में उन्होंने मैला ढोने वाली औरत को छू लिया तो उनकी दादी ने न केवल स्नान कराया, बल्कि गाय का गोबर और गोमूत्र भी पिलाया। शादी के बाद जब डॉ. पाठक के ससुर को पता चला कि वे मैला ढोने वाले लोगों के लिए काम करते हैं, तो यहां तक कह दिया कि वे उनका मुंह कभी नहीं देखेंगे। तब डॉ. पाठक ने नम्रता से जवाब दिया था- 'मैं इतिहास का पन्ना पलटने चला हूं। या तो पन्ना पलट दूंगा या खो जाऊंगा।
अहिंसा से होने वाला बदलाव ही स्थाई
वे कहते हैं, मैं शुरू से ही गांधी जी और अंबेडकर के विचारों का पक्षधर रहा हूं। गांधी जी की तरह ही अहिंसा के रास्ते पर चलकर बदलाव का प्रयास कर रहा हूं। मेरा मानना है कि अङ्क्षहसा के माध्यम से होने वाला बदलाव ही स्थायी होता है। गांधीजी का भी सपना था कि मैला ढोने की प्रथा समाप्त हो।
डॉ. भीम राव अंबेडकर ने कहा था- 'शूद्रो के साथ भेदभाव तभी खत्म होगा जब तक वे सभी के साथ मंदिर जाएंगे। एक ही तालाब में साथ नहाएंगे। एक ही कुएं से साथ पानी भरेंगे और एक साथ खाना खाएंगे' मैं वही करने की कोशिश कर रहा हूं। मैं अपने भोज में सबको साथ खिलाता हूं। एक बार कुछ लोगों ने विरोध किया कि हम इनलोगों के साथ नहीं खाएंगे। मैंने हाथ जोड़कर कहा- आप खाइए या न खाइए, ये तो यहीं साथ खाएंगे।
सरकार के साथ आगे आएं एनजीओ
डॉ. पाठक ने कहा कि आज एनजीओ बदनाम हो गए हैं। उन्हें विश्वास जीतना होगा। सुलभ इंटरनेशनल इसलिए आज यहां है, क्योंकि हमने लालच या धोखाधड़ी नहीं की। अगर शुरुआत में सौ-हजार के चक्कर में रहते तो आज इस मुकाम पर नहीं होते।
उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार शौचालय को लेकर काम कर रही है, मगर ये बिना एनजीओ की मदद के पूरा नहीं हो सकता। राज्य सरकारों को भी इसमें सहयोग करना होगा, क्योंकि काम उन्हें ही कराना है। सामाजिक बदलाव सामूहिक प्रयास से ही संभव है। हमने सुलभ मॉडल बनाया है, मगर इसका पेटेंट नहीं कराया। हम चाहते हैं कि सरकार सुलभ मॉडल दूसरे एनजीओ दे और उनसे भी काम कराए।
अपना शौचालय खुद साफ करें
डॉ. पाठक गर्व से कहते हैं, आज देखकर अच्छा लगता है कि सुलभ ने कई लोगों की जिंदगी बदल दी। जिन मैला ढोने वाली महिलाओं को लोग छूते नहीं थे, पैसे तक दूर से फेंक कर देते थे, आज महिलाएं उनके हाथों से फेशियल और मसाज करा रही हैं। लोग उनके हाथों का बना पापड़ और अचार खा रहे हैं। वे कहते हैं, इस पहल को और आगे ले जाने की जरूरत है।
आज भले ही मैला ढोने की प्रथा खत्म हो गई हो, मगर शौचालय साफ कराए जा रहे हैं। ये नहीं होना चाहिए। अपना शौचालय खुद साफ करना चाहिए। गांधी जी भी यही कहते थे। मैंने कई स्कूलों में इसे लागू कराया है। वहां शिक्षक व छात्र मिलकर शौचालय साफ करते हैं। स्कूलों में भी एक्सेस सोशियोलॉजी की पढ़ाई होनी चाहिए। नौ विवि इसमें रुचि भी दिखा रहे हैं।
डॉ. पाठक से सवाल-जवाब
जब शुरुआत की थी तो क्या अंदाज था कि सुलभ यहां तक पहुंचेगा?
- सुलभ सफल होगा, ये भरोसा तो था मगर बिहार के बाहर तक नाम होगा, ये कभी नहीं सोचा था। अगर न्यूयॉर्क का मेयर यह कहे कि शौचालय को लकर बात तो कई महान लोगों ने की मगर काम आपने किया इसलिए 14 अप्रैल का दिन बिंदेश्वर पाठक दिवस के रूप में मनाया जाएगा तो गर्व तो होता है। लगता है, कुछ हुआ है।
बिहार से सुलभ की शुरुआत हुई, मगर यहां वह उतना नहीं दिखाई देता?
- हमने शुरुआत में बिहार में काफी काम किया। सुलभ शौचालय की स्थापना सबसे पहले यही हुई। बाद में बाहर विस्तार हुआ। 90 के दशक में यहां बायोगैस से बिजली भी चलाई गई। बाद में राजनीतिक कारणवश यहां काम नहीं कर सका। फिर से पटना और बिहार में कई योजनाओं पर काम शुरू होने वाला है। मधुबनी में एक योजना पर निजी कंपनी से बात हो रही है।
कोई सपना जो अभी भी आंखों में पल रहा है?
- सपना तो शौचालय निर्माण का ही है। देश में करीब 12 करोड़ शौचालय की जरूरत है। इसके लिए काफी पैसा चाहिए। दो करोड़ एनआरआइ से सहयोग की अपेक्षा है। सरकार भी अपने स्तर से काम रही है। एनजीओ को भी आगे आना होगा। शौचालय बिजनेस नहीं है, ये कमिटमेंट का काम है।
शौचालय के अलावा सुलभ स्वच्छ पानी मुहैया कराने का काम भी कर रहा है। मायापुर और मुर्शिदाबाद में 50 पैसे प्रति लीटर पानी तैयार किया जा रहा है। दिल्ली में एक रुपये प्रति लीटर में पानी सप्लाई दी जा रही है। मैला ढोने वाली महिलाओं को स्वरोजगार से जोड़ा जा रहा है। जल्द ही वे कैटवॉक करतीं भी नजर आएंगी।
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'अगर कोई कहता है, कि पाठक जी आपका सुलभ शौचालय इस्तेमाल किया, बहुत गंदा था तो लगता है जैसे मेरे शरीर पर कोई स्क्रैच लग गया हो। बहुत तकलीफ होती है। सुलभ इंटरनेशनल से मेरा लगाव इस हद तक है। मैं अपनी पत्नी, परिवार और बच्चों से भी ज्यादा प्यार सुलभ को करता हूं। मैं तो पत्नी को कह भी चुका हूं कि सुलभ सिर्फ मेरा काम या सपना नहीं है, मेरी प्रेमिका है। ठीक वैसे जैसे भगवान कृष्ण की प्रेमिका राधा थी।'
- बिंदेश्वर पाठक (संस्थापक, सुलभ इंटरनेशनल)
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