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    'दमादम मस्त कलंदर' जिन्होंने दुनिया को पढ़ाया प्रेम का पाठ

    By Kamal VermaEdited By:
    Updated: Sun, 19 Feb 2017 08:06 AM (IST)

    'दमादम मस्त कलंदर' के जिस गीत को सुनकर आज भी झूमने का मन करता है उसकी बाबा कलंदर की शोहरत सिंध और हिंद में एक बराबर है।

    'दमादम मस्त कलंदर' जिन्होंने दुनिया को पढ़ाया प्रेम का पाठ

    नई दिल्ली (जेएनएन)। पाकिस्तान के सिंध प्रांत में स्थित लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह हर किसी के लिए जानी पहचानी लगती है। सिंध से लेकर हिंद तक इसको एक बराबर ही सम्मान दिया जाता है। भले ही आज की युवा पीढ़ी ने इस दरगाह से नावाकिफ हो लेकिन 'दमादम मस्त कलंदर' के गीत से वह भी भलीभांति परिचित है। इस गीत को रूना लैला ने फिल्म ' एक से बढ़कर एक' (1974) में गाया था। आज भी यह गीत इतना ही पसंद किया जाता है जितना कि पहले था। दरगाह हो या टैलेंट हंट का कोई मंच हर जगह यह सुनाई दे जाता है।

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    हर खास और आम में कायम है 'बाबा' का रुतबा

    सिंध के सहवान कस्बे में स्थित लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह पर आने वाले लोगों की तादाद देखकर इस बात का अंदाजा हो जाता है कि इस दरगाह का हर खास और आम में कितना रुतबा है। हर कोई यहां पर सजदा करता है और अपनी खुशियों की मन्नत मांगता है। जिस दमादम मस्त कलंदर का जिक्र कभी महान सूफी कवि अमीर खुसरो ने अपने गीत में किया था उसको बाद में बाबा बुल्ले शाह ने कुछ बदलाव के साथ दोबारा पेश किया। लेकिन इन सभी के पीछे मकसद महज इतना ही था कि दुनिया के वाशिंदे उस नूर के बारे में जानें जिसको सिर्फ महसूस किया जा सकता है देखा नहीं जा सकता।

    हर कोई झुकाता है सिर

    यही वहज है कि सिंध की शाहबाज कलंदर की दरगाह हो या फिर अजमेर में गरीब नवाज का दर या फिर सलमी चिश्ती की दरगाह, सभी जगहों पर आने वाले लोग उसके दर सज्दे करते हैं जिसने हम सभी को बनाया है। लेकिन उस नूर को आतंकियों के बम और उनकी सोच नहीं देख पाती है। यह वह केवल गोला बारूद की आवाज पसंद करते हैं और लोगों का खून और उनकी चीख पुकार उन्हें अच्छी लगती है।

    सच को दबाने की नापाक कोशिश: हंस राज हंस

    मशहूर गायक हंस राज हंस ने कहा कि नकारात्मक शक्तियां हमेशा ही अच्छाई को दबाने में लगी रहती हैं। सच को दबाने के लिए उनके हौसले पस्त करने के लिए यह हमला किया गया है जिसकी जितनी निंदा की जाए उतनी कम है। सूफी किसी एक मजहब को नहीं मानते बल्कि सभी की प्रशंसा करते हैं। 'कलंदर' सूफीइज्म में बहुत बड़ा ओहदा है और दुनिया में तीन ही कलंदर हुए हैं। इनमें भी शाहबाज कलंदर का नाम बहुत बड़ा है, उन्हें ही झूलेलाल भी कहा जाता है। हर मजहब ने उनका कलाम गाया है। उनके स्थान पर ये सब होना बहुत दुखदायी है। मुझे याद है जब मैं वहां गया था तो वहां के रक्स यानी शाहबाज कलंदर के मस्तों की धमाल (सूफी डांस) ने मन मोह लिया था। दुनिया इस मस्तों के रक्स के दीवानी है। ऐसी पाक जगह पर नापाक हमला बेहद दुखदायी है।

    अब कैसे गा पाऊंगी दमादम मस्त कलंदर : ममता जोशी

    सूफी गायकी में जाना माना नाम डॉक्टर ममता जोशी का भी है। चंडीगढ़ में रहने वाली डॉक्टर जोशी ने सूफी गायकी में पीएचडी की है। इनका कहना है कि सूफी पंथ जो यही सिखाता है कि हम सब एक हैं, जिनका संदेश ही शांति का है, उनकी जगह पर ऐसी घिनौनी हरकत करने का कोई सोच भी कैसे सकता है? ऐसी हरकत के बारे में किसी इंसान का दिल सोच भी कैसे सकता है? यह काम केवल हैवान ही कर सकते हैं। मैं इस हादसे से इतनी आहत हूं कि समझ नहीं पा रही आखिर अगली बार 'दमा दम मस्त कलंदर ' कैसे गा पाऊंगी? मेरी आंखों के आगे यह खौफनाक मंजर तैर जाया करेगा। मुझे याद है कि एक बार दक्षिण अफ्रीका में मैंने यह कलाम गाया था तो भले ही वहां के लोगों को बोल समझ न आए हों लेकिन शाहबाज कलंदर जी की इस धमाल में इतनी मस्ती है कि श्रोता झूम उठे थे। मेरे लिए इस शर्मनाक हरकत को शब्दों में बयां करना कठिन हो रहा है।

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    अमीर खुसरो ने लिखा था 'शाहबाज कलंदर'

    अमीर खुसरो के शाहबाज कलंदर में कुछ बदलाव कर बाबा बुल्ले शाह ने इसको 'झूलेलाल कलंदर' कहा था। कुछ नाम बदला लेकिन अंदाज और इसकी तासीर भी वही रही। सिंध के सहवान कस्बे की इस शाहबाज कलंदर की दरगाह पर हर वर्ष एक मेला आयोजित किया जाता है, जिसमें लाखों की भीड़ उमड़ती है। शाहबाज कलंदर दरअसल में उन लोगों की उम्मीदों में बसते हैं जिन्होंने अपनी खुशियों को उनमें देखा है और जाना है।


    मरवंद से मिला मरवंदी

    सूफी दार्शनिक और संत लाल शाहबाज कलंदर का असली नाम सैयद मुहम्म द उस्मानन मरवंदी था। लाल रंग के कपड़े पहनने की वजह से उनके नाम के साथ लाल जोड़ दिया गया। बाबा कलंदर गजवनी और गौरी वंशों के साथ-साथ फारस के महान कवि रूमी के भी समकालीन थे। जिस दौर में महमूद गजनवी की दहशत समूचे दक्षिण एशिया में फैल रही थी उसी दौर में शाहबाज कलंदर भी थे। फर्क सिर्फ इतना था कि एक खून का प्यासा था और प्रेम का भूखा था।

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    बगदाद से ताल्लुक रखते थे बाबा के पूर्वज

    बाबा कलंदर के पूर्वज बगदाद से ताल्लुलक रखते थे लेकिन बाद में ईरान के मशद में और फिर मरवंद चले गए। इसलिए उनके नाम के साथ मरवंदी भी जुड़ गया। शुरुआती दौर में बाबा कलंदर कई देशों में घूमे और उस नूर के बारे में दुनिया को बताया जिसके दम पर हम सभी सांस लेते हैं, जिसके दम पर हवाएं चलती हैं और जिसके दम पर ही सब चीज है। काफी भ्रमण करने के बाद वह सहवान में बस गए थे और यहीं के होकर रह गए। तकरीबन 98 साल की उम्र में 1275 में उनका निधन हुआ।

    संस्कृत के अच्छे जानकार थे 'कलंदर बाबा'

    उनकी मौत के बाद 1356 में उनकी कब्र के पास दरगाह का निर्माण कराया गया। उनके मकबरे के लिए ईरान के शाह ने सोने का दरवाजा दिया था। इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि बाबा कलंदर भारत भी आए थे। लेकिन इसके कोई पुख्ता सबूत नहीं मिलते हैं। लेकिन चूंकि वह संस्कृत भाषा के भी अच्छे जानकार थे, इस लिहाज से उनके भारत में आने को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है।

    'जहां मिले थे चार-यार'

    संत लाल शाहबाज कलंदर न सिर्फ इस्लाम के बेहतर जानकार थे बल्कि कई भाषाओं का ज्ञान भी रखते थे। उन्हें पश्तोन, फारसी, तुर्की, अरबी, सिंधी और संस्कृत का भी ज्ञान था। स हसवान में आने के बाद उन्होंने यहां के मदरसों में दीनी शिक्षा भी दी और कई किताबें भी लिखीं। उनकी लिखी किताबों में मिज़ान-उस-सुर्फ, किस्मन-ए-दोयुम, अक्दा और जुब्दांह का नाम लिया जाता है। मुल्तान में उनकी दोस्ती तीन और सूफी संतों से हुई, जो सूफी मत के 'चार यार' कहलाए।

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