एस.के. सिंह, नई दिल्ली। पढ़ाई में तेज 16 साल की अनन्या की एक परीक्षा क्या खराब हुई, वह काफी सुस्त रहने लगी। एक दिन उसने अपनी मां को मैसेज भेजा, “तुम मुझसे बेहतर बेटी की हकदार हो।” संकेत स्पष्ट था, लेकिन उसकी मां तब समझ नहीं पाई। अगले दिन अनन्या ने अपने कमरे में फांसी लगा ली। कोविड के दौरान 17 साल की तान्या के व्यवहार में काफी बदलाव आ गया था- अकेले रहना, मूड स्विंग, चिड़चिड़ापन। लेकिन घरवालों ने इन बातों को गंभीरता से तब लिया जब वह सुसाइड करने के लिए बिल्डिंग की छत पर चली गई। गनीमत थी कि वह खुद लौट आई। रौशनी पसंद काव्या को भी धीरे-धीरे अंधेरा पसंद आने लगा था। वह अकेले रहने के साथ दुख भरे गाने सुनने लगी थी। उसके घरवालों को भी यह समझने में 6 महीने लग गए कि बेटी डिप्रेशन में है। (तीनों बच्चियों की मां की जुबानी लेख के अंत में)

अनन्या तो अब इस दुनिया में नहीं रही, लेकिन तान्या और काव्या का इलाज चल रहा है और वे काफी बेहतर हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि आत्मघाती कदम उठाने से पहले बच्चे हमेशा कुछ न कुछ संकेत देते हैं। अगर उन संकेतों को समझा जाए तो बच्चों को ऐसा करने से रोका जा सकता है। आत्महत्या का कभी कोई एक कारण नहीं होता, कई कारण साथ काम कर रहे होते हैं। उन पर गौर करना भी जरूरी है।

हाल में छात्र आत्महत्या की कई घटनाएं सुर्खियों में आई हैं। उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद ने पिछले महीने, 25 अप्रैल को दसवीं और बारहवीं के नतीजे जारी किए। इसके 24 घंटे के भीतर कम से कम सात छात्र-छात्राओं ने खुदकुशी कर ली। इसी तरह, आंध्र प्रदेश बोर्ड की तरफ से इंटरमीडिएट परीक्षा के नतीजे घोषित करने के 48 घंटे में कम से कम नौ छात्र-छात्राओं ने जान दे दी। दो और बच्चों ने कोशिश की थी, लेकिन उन्हें बचा लिया गया। इससे पहले आईआईटी मद्रास में 14 फरवरी से 21 अप्रैल तक सवा दो महीने में चार छात्रों के आत्महत्या करने की खबरें आईं। फरवरी में आईआईटी बॉम्बे में बीटेक फर्स्ट ईयर के छात्र दर्शन सोलंकी का मामला तो कई दिनों तक चर्चा में रहा। प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की कोचिंग के लिए मशहूर कोटा और दिल्ली में भी इस साल छात्र आत्महत्या की कई घटनाएं हो चुकी हैं।

ऐसा नहीं कि यह सब अचानक होने लगा है। केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री सुभाष सरकार ने पिछले दिनों राज्यसभा में बताया कि 2018 से मार्च 2023 के मध्य तक आईआईटी, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एनआईटी) और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (आईआईएम) में इस दौरान कुल 61 छात्रों ने आत्महत्या की। इनमें से 33 आईआईटी के छात्र थे।

इंडियन साइकियाट्रिक सोसायटी की पत्रिका इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री में एक रिपोर्ट के लिए मेडिकल कॉलेज के स्टूडेंट्स का सर्वे किया गया। फरवरी और मार्च 2022 के दौरान की गई स्टडी में 787 छात्र शामिल हुए जिनकी औसत उम्र 21.08 वर्ष थी। इनमें से 293 अर्थात 37.2% छात्रों ने कहा कि उनके मन में आत्महत्या के विचार आते हैं, 86 छात्रों यानी 10.9% ने कहा कि वे आत्महत्या करने की सोच रहे थे, 26 छात्रों यानी 3.3% ने बताया कि वे पहले कभी न कभी आत्महत्या की कोशिश कर चुके थे। प्रमुख कारणों में ठीक से न सोना, परिवार में साइकियाट्रिक बीमारी का इतिहास, बुलिंग, अवसाद और अत्यधिक तनाव शामिल हैं।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े देखें तो 2018 से हर साल 10 हजार से ज्यादा छात्रों (छात्राओं समेत) ने किसी न किसी वजह से जान दी है। वर्ष 2021 में आत्महत्या के कुल 1,64,033 मामलों में छात्रों की संख्या 13,089 थी। खतरनाक बात यह है कि कुल आत्महत्या में छात्रों का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है। एनसीआरबी के पास 1995 से छात्र आत्महत्या के आंकड़े उपलब्ध हैं। 1995 में कुल सुसाइड में छात्र 7% से कम थे। बाद के वर्षों में इसमें गिरावट भी आई, लेकिन 2020 और 2021 में यह आंकड़ा 8% को पार कर गया। 2011 और 2021 के आंकड़ों की तुलना करें तो इस दौरान कुल आत्महत्याएं 21% बढ़ीं, लेकिन छात्र आत्महत्या में 70% वृद्धि हुई। 2011 में हर दिन 21 छात्रों ने खुदकुशी की तो 2021 में यह संख्या 36 हो गई, यानी हर दो घंटे में तीन। 2021 में 18-30 आयु वर्ग में सबसे ज्यादा 56,543 सुसाइड के मामले सामने आए।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार हर साल दुनिया में लगभग आठ लाख लोग खुदकुशी करते हैं। इससे भी डराने वाला आंकड़ा यह है कि हर आत्महत्या की तुलना में 20 लोग इसका प्रयास करते हैं। अर्थात हर साल 1.6 करोड़ लोग सुसाइड करने की कोशिश करते हैं। भारत में आत्महत्या दर (प्रति एक लाख आबादी में) विश्व औसत से ज्यादा है। डबल्यूएचओ के अनुसार 2019 में ग्लोबल आत्महत्या दर 9 थी। एनसीआरबी के मुताबिक उस साल भारत में यह दर 10.4 थी, जो 2020 में 11.3 और 2021 में 12 हो गई।

बेहतर रिपोर्टिंग से बढ़े मामले

सीनियर साइकोथेरेपिस्ट और बेंगलुरू की संस्था द एबल माइंड की संस्थापक एवं क्लिनिकल हेड रोहिणी राजीव बताती हैं, “10 साल पहले की तुलना में अब काफी अधिक रिपोर्टिंग होने लगी है। अक्सर बच्चे कोई जहरीला पदार्थ खा लेते हैं। उन्हें लगता है कि इसे खाने से उनकी जान चली जाएगी, लेकिन ज्यादातर मामलों में बच्चे का सिर्फ पेट खराब होता है। पहले मां-बाप घर पर ही बच्चे का इलाज करवाते थे। अगर बच्चे को अस्पताल लेकर गए तो डॉक्टर से कहते थे कि नींद में गलती से जहर पी लिया। वे बस इतना चाहते थे कि पुलिस में मामला दर्ज न हो।” मां-बाप को लगता है कि अगर यह बात सबको पता चलेगी तो लोग उनके परवरिश के तरीके पर सवाल उठाएंगे। अब स्थिति में काफी बदलाव आया है, क्योंकि माता-पिता को लगता है कि मदद के रास्ते उपलब्ध हैं।

बेहतर रिपोर्टिंग की बात स्वीकार करते हुए बेंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज (NIMHANS) में साइकियाट्री विभाग में प्रोफेसर डॉ. वी. सेंथिल कुमार रेड्डी वर्दर इफेक्ट (Werther Effect) की बात कहते हैं। “जब आत्महत्या के मामले अधिक प्रकाश में आते हैं तो पहले से विभिन्न समस्याओं से जूझ रहे लोगों में सुसाइड के प्रति एक तरह का ट्रिगर पैदा होता है। ऐसा खास तौर से छात्रों तथा उन लोगों में होता है जो आसानी से किसी बात में आ जाते हैं। उन्हें लगता है कि समस्याओं से निजात पाने का यही सबसे अच्छा तरीका है।”

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए डॉ. रेड्डी कहते हैं, “सुसाइड की रिपोर्टिंग बहुत संवेदनशील तरीके से की जानी चाहिए, क्योंकि मीडिया में की गई रिपोर्टिंग दूसरों को भी प्रभावित कर सकती है। कई बार तो डॉक्टरों के किसी नतीजे तक पहुंचने से पहले ही मीडिया किसी घटना को सुसाइड बता देता है।” डॉ. ओम प्रकाश कहते हैं, “सुसाइड बहुत ही जटिल घटना होती है, इसलिए इनकी रिपोर्टिंग करते समय संजीदगी बरतनी चाहिए।”

दिल्ली के इहबास अस्पताल में मनोचिकित्सा विभाग के प्रोफेसर एवं मेडिकल उप-अधीक्षक डॉ. ओम प्रकाश के अनुसार, “कानून में बदलाव (मेंटल हेल्थकेयर एक्ट 2017 में आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से हटाया गया) के बाद लोगों में जागरूकता आई है। फिर भी, हमारे पास उन्हीं मामलों के रिकॉर्ड हैं जो अस्पतालों में आते हैं। उम्मीद है कि आधार तथा डिजिटाइजेशन से डाटा में और सुधार आएगा।”

दिल्ली स्थित काउंसलिंग संस्था सुमैत्री की डायरेक्टर नलिनी भी जागरूकता की बात मानती हैं। वे कहती हैं, “25 साल पहले जब मैं नई-नई वॉलंटियर बनी थी, तब किसी को साइकियाट्रिस्ट या काउंसलर के पास भेजने में बहुत मुश्किल आती थी। अगर सीधे किसी से साइकियाट्रिस्ट के पास जाने के लिए कहती तो उसका सवाल होता था कि क्या मैं पागल हूं। 10 साल पहले तक यह स्थिति थी। लेकिन अब लोग हमारे पास आने से पहले साइकियाट्रिस्ट और थेरेपिस्ट के पास जा रहे होते हैं। कई बार बच्चे मां-बाप को बताए बिना खुद ऑनलाइन काउंसलर से संपर्क कर लेते हैं। इस लिहाज से देखें तो जागरूकता काफी बढ़ी है जो अच्छी बात है।”

आत्महत्या/स्ट्रेस के कारण

सुसाइड का कोई एक कारण नहीं होता, कई कारण साथ काम कर रहे होते हैं। एक समय ऐसा आता है जब कई फैक्टर एक साथ हावी हो जाते हैं, तब व्यक्ति अपने आप को खत्म करने की कोशिश करता है। NIMHANS में क्लिनिकल साइकोफार्मेकोलॉजी एवं न्यूरोटॉक्सिकोलॉजी विभाग में सीनियर प्रोफेसर तथा चार दशक से अधिक का अनुभव रखने वाले डॉ. चित्तरंजन अंद्रादे डिप्रेशन तथा तनाव (स्ट्रेस) को आत्महत्या का प्रमुख कारण मानते हैं। वे कहते हैं, “छात्रों के जल्दी तनाव में आने के दो कारण हैं- एक तो उन पर कई तरह का दबाव होता है और दूसरा, उस दबाव से निपटने के लिए वे परिपक्व नहीं होते।”

डॉ. अंद्रादे के अनुसार छात्रों में कई तरह का स्ट्रेस होता है- बढ़ती उम्र के साथ शरीर में होने वाले बदलाव (इसमें यौन परिपक्वता भी शामिल है), ब्वॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड के साथ रिलेशनशिप में समस्या, सहपाठियों से बेहतर प्रदर्शन का दबाव, बुलिंग (साइबरबुलिंग समेत), परीक्षा का दबाव, माता-पिता की उम्मीदें, करियर की चिंता आदि। परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताने और खेल-कूद के बजाय छात्र ऑनलाइन ज्यादा समय बिताते हैं, इसलिए उन्हें साथियों की मदद भी नहीं मिलती है।

डॉ. रेड्डी कहते हैं, “संभव है कि छात्र में बायोलॉजिकल कमजोरी हो, परिवार में पहले भी कोई डिप्रेशन का शिकार हुआ हो। मां-बाप के बीच रिश्ते अच्छे न होने पर भी बच्चा खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करता है। इन सबसे कठिन परिस्थितियों से जूझने की बच्चे की क्षमता प्रभावित होती है। ऐसे में संभव है कि वह ड्रग्स लेना शुरू कर दे। उसमें मूड डिसऑर्डर भी दिख सकता है।”

उनका कहना है, आजकल बच्चे इंटरनेट पर काफी समय बिताते हैं। हो सकता है बच्चा वहां किसी से मदद मांगे। सोशल मीडिया पर अक्सर लोग सिर्फ सकारात्मक पक्ष को दिखाते हैं। इससे बच्चे को लगता है कि सब लोग अच्छी जिंदगी बिता रहे हैं, सिर्फ उसके जीवन में समस्या है। इस तरह जहां वह मदद मांगने गया था, वहां वह और अकेला महसूस करने लगता है।

यह भी संभव है कि बच्चा पढ़ाई पर अधिक फोकस करने की सोचे। वह अपने आप से बहुत अधिक उम्मीदें पाल लेता है और दबाव में आ जाता है। हो सकता है कि उसने अपने लिए जो बेंचमार्क तय किया है, वह उसकी क्षमता से बाहर हो। उस बेंचमार्क तक नहीं पहुंचने पर वह खुद को नाकाम मान लेता है। इससे भी उसके मन में हताशा पनप सकती है।

डॉ. ओम प्रकाश कुछ अन्य कारण बताते हैं, “स्कूल-कॉलेज हो या कोचिंग संस्थान, हर जगह हमने रेटिंग बना रखी है। घर में भी दो बच्चों में तुलना की जाती है कि कौन पढ़ाई में अच्छा है और कौन कमजोर।” वे कहते हैं, “परिवारों ने छात्रों पर बहुत ज्यादा दबाव पैदा किया है। यह दबाव परिवार के अलावा समाज का भी है। बच्चों के मन में यह बिठा दिया जाता है कि इस टारगेट को हासिल करना ही है। लोग यह नहीं समझते कि हर बच्चे की अपनी क्षमता होती है।”

डॉ. ओम प्रकाश के अनुसार, मध्यवर्गीय तबके में तनाव ज्यादा है। वह निम्न वर्ग वालों से तुलना नहीं करता और नव धनाढ्य वर्ग में जाने की चाहत रखता है। इसका सारा दबाव बच्चे पर आ जाता है। उसे लगता है कि वह परिवार की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रहा है।

वे एक और महत्वपूर्ण बात बताते हैं, “किसी समस्या का सामना करने की बच्चे की क्षमता पर भी गौर करना जरूरी है। मीडिया में रिपोर्ट करते वक्त लिख दिया जाता है कि टीचर के डांटने या किसी के कुछ कहने पर बच्चे ने खुदकुशी कर ली। लेकिन टीचर ने तो और बच्चों को भी डांटा, तो आत्महत्या सिर्फ एक ने क्यों की? इसका मतलब है कि टीचर का डांटना समस्या नहीं थी, बच्चा वह डांट सहन नहीं कर सका। बच्चों में झुंझलाहट, बेचैनी, तनाव, डिप्रेशन जैसी बातें एक साथ चल रही होती हैं। इस जटिल प्रक्रिया को न समझ कर हम किसी एक कारण पर चले जाते हैं।”

रोहिणी भी कहती हैं, “आत्महत्या का कभी कोई एक कारण नहीं होता, कई कारण मिलकर व्यक्ति को इस अंजाम तक पहुंचाते हैं। ऐसा नहीं होता कि कोई छात्र किसी एक परीक्षा में फेल हो जाए या किसी ने उसका एक बार मजाक बना दिया तो वह आत्महत्या कर लेगा। उसके पीछे कई कारण काम कर रहे होते हैं। यह देखना जरूरी है कि किसी खास वक्त पर उनके मन की स्थिति कैसी है, उनका सपोर्ट सिस्टम कैसा है।”

उनका कहना है, युवा अपनी परेशानियों को अपने भीतर ही दबा कर रखते हैं, किसी से जल्दी साझा नहीं करते। उन्हें लगता है कि लोग उनका मजाक उड़ाएंगे, उन्हें साइको कहकर बुलाएंगे। जागरूकता बढ़ने से बड़े शहरों में तो बच्चे अब धीरे-धीरे खुलने लगे हैं, लेकिन टियर 2-टियर 3 शहरों में अब भी वे झिझकते हैं।

नलिनी के अनुसार, “किसी से अपनी परेशानी साझा न करने की एक वजह होती है गोपनीयता खोने का डर। बच्चे को लगता है कि दोस्तों से बताया तो वे सब उसे ‘जज’ करेंगे। कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जो वह सबके साथ साझा नहीं कर सकता। जैसे, रिलेशनशिप की समस्या के बारे में वह मां-बाप से बात नहीं करना चाहेगा। किसी से साझा न करने के कारण समस्या धीरे-धीरे इतनी बड़ी हो जाती है कि वह अपने आप को संभाल नहीं पाता है।”

क्या कोविड-19 महामारी का भी असर है, यह पूछने पर नलिनी बताती हैं, “महामारी से पहले हमारे पास जितनी कॉल आती थीं, उनमें 20% से 25% कॉल छात्रों की होती थीं। अब 30% से 35% फोन छात्रों के होते हैं। बोर्ड नतीजों के समय कॉल संख्या बहुत बढ़ जाती है। मार्च-अप्रैल में लगभग आधे फोन छात्रों के ही होते हैं। उम्मीद के मुताबिक नंबर नहीं आने या फेल हो जाने के कारण छात्र तनाव में होते हैं।”

कोविड के और असर भी हैं। उस समय लोगों को लंबे समय तक घर में बंद रहना पड़ा। हर वर्ग के लोगों के सामने आर्थिक समस्या आई। पहले वे अपनी क्षमता के अनुसार जिन स्कूलों में बच्चों को पढ़ा रहे थे, वहां से निकाल कर कम खर्च वाले स्कूलों में डालना पड़ा। इन सब बातों का भी बच्चों के दिमाग पर असर हुआ।

नलिनी के अनुसार, “हमारे पास छात्रों की जो कॉल आती हैं, उनमें सबसे बड़ी समस्या रिलेशनशिप की होती है। आर्थिक समस्या भी एक कारण है। सेक्सुअल आइडेंटिटी (गे/ लेस्बियन) को लेकर भी अब लोग बात करने लगे हैं। ऐसे लोगों में अकेलापन अधिक होता है क्योंकि वे इस बारे में किसी से बात नहीं कर सकते।”

वे एक और कारण बताती हैं, “पहले परिवार संयुक्त होते थे और सोशल मीडिया नहीं था। घर में हर इंसान एक दूसरे से बात करता था। अब वह माहौल नहीं है। न्यूक्लियर परिवार में अगर मां-बाप दोनों नौकरी कर रहे हैं तो बच्चा घर पर अकेला होता है। उसे सोशल मीडिया पर ही दूसरे लोग मिलते हैं। सोशल मीडिया पर भी लोग जो दिखाते हैं वास्तव में वैसे होते नहीं। उससे बच्चों में एंजायटी का स्तर बढ़ जाता है।”

बच्चे में डिप्रेशन/तनाव के लक्षण

अचानक मूड बदलना, अपने आप में सिमटकर रहना, दूसरों से बातचीत कम कर देना, जीने की इच्छा खत्म होने की बात करना। डॉ. अंद्रादे के अनुसार, “दुर्भाग्यवश माता-पिता को अक्सर पता ही नहीं चलता है कि बच्चे के साथ कोई समस्या है। कई बार माता-पिता से पहले सहपाठियों या ऑनलाइन दोस्तों को अवसाद या खुदकुशी के बारे में सोचने का संकेत मिल जाता है।”

रोहिणी बताती हैं, “आमतौर पर बच्चा सीधे मरने की बात नहीं कहता, वह परोक्ष रूप से अपनी बात कहने की कोशिश करता है। जैसे, ‘अगर मैं आप लोगों जिंदगी में नहीं होता तो आपकी जिंदगी बेहतर होती’। वह कुछ दिनों तक दोस्तों से न मिले और अचानक उनसे मिलकर ‘गुडबाय’ बोले। दादा-दादी या नाना-नानी से बात नहीं करने वाला बच्चा अचानक उन्हें फोन करके कहे कि अपना ख्याल रखिएगा।”

वे कहती हैं, “आम धारणा है कि खुदकुशी की बात करने वाले वास्तव में ऐसा नहीं करते, जबकि ऐसा नहीं है। अगर बच्चा सीधे मरने की बात कहता है तो उसका स्पष्ट मतलब है कि वह मदद मांग रहा है। जवाब में हमें यह नहीं कहना चाहिए कि मजाक करना बंद करो।”

संकेत मिलने पर क्या करें

डॉ. अंद्रादे बताते हैं, “माता-पिता को बच्चे के साथ अधिक बातचीत करनी चाहिए, उनके साथ ज्यादा समय बिताना चाहिए, भावनात्मक मदद के साथ बच्चे की काउंसलिंग करानी चाहिए। माता-पिता को यह देखना चाहिए कि बच्चे की उम्मीदें न खत्म हों। उम्मीद ही कुंजी है, इसके बिना जीवन का कोई मतलब नहीं।”

वे कहते हैं, “कुछ आत्महत्याएं बिल्कुल अप्रत्याशित होती हैं क्योंकि व्यक्ति किसी आवेग में, जैसे संबंधों में अचानक समस्या आने या परीक्षा में खराब नतीजों के कारण ऐसा कदम उठाता है। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि माता-पिता अपने बच्चों के साथ तमाम विषयों पर बात करते रहें। इसकी शुरुआत कम उम्र से ही करनी चाहिए।”

डॉ. रेड्डी के अनुसार, “माता-पिता को घर में ऐसा माहौल रखना पड़ेगा जिससे बच्चा अपनी हर समस्या उनसे साझा कर सके। डांट या आलोचना की डर से कई बार बच्चे मन की बात नहीं कह पाते। मां-बाप को बिना जजमेंटल हुए बच्चे की बात सुननी चाहिए। अक्सर मां-बाप बच्चे की समस्या सुनकर उसे खारिज कर देते हैं और कहते हैं कि हमने तुमसे अधिक संघर्ष किया है, तुम्हारी जिंदगी काफी आसान है। ऐसा करने पर बच्चा धीरे-धीरे आपसे अपनी बात साझा करने से बचेगा।”

वे बताते हैं, “बच्चे को अपनी समस्या का समाधान खुद निकालने का तरीका सिखाना चाहिए। यह सीख उन्हें भविष्य में भी दूसरी समस्याओं से निपटने में मदद करेगी। बच्चों को टेक्नोलॉजी और इंटरनेट से पूरी तरह दूर करने के बजाय उनमें इनके भले और बुरे, दोनों पक्षों को समझने की क्षमता विकसित करनी चाहिए।”

इसलिए नलिनी कहती हैं, “सुमैत्री संस्था में हम किसी को कुछ करने की सलाह नहीं देते। लोग सलाह सुन तो लेते हैं, उस पर अमल शायद ही करते हैं। इसलिए हम बच्चों को इतना सक्षम बनाने की कोशिश करते हैं कि वे अपनी समस्या का हल खुद निकाल सकें।” वे कहती हैं, “हमने कई आईआईटी में भी काउंसलिंग की है। हमने देखा है कि 20 साल से अधिक उम्र के छात्र-छात्राओं में बहुत तनाव है। हम उनसे कहते हैं कि अगर आप ऐसा महसूस करते हैं तो किसी न किसी से अपने मन की बात जरूर कहिए। चाहे वह परिवार का सदस्य हो या दोस्त। अगर आपको ऐसा कोई नहीं मिलता तो किसी हेल्पलाइन नंबर पर कॉल करके मदद ले सकते हैं।”

डॉ. ओम प्रकाश एक गंभीर बात कहते हैं, “आत्महत्या का विचार आना एक इमरजेंसी है। जिस तरह किसी को दिल का दौरा पड़ने पर तत्काल अस्पताल ले जाने की सलाह दी जाती है, उसी तरह कोई बच्चा आत्महत्या करने की बात कहता है तो हमें तत्काल उसे डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए। कोशिश करनी चाहिए कि कुछ दिनों के लिए वह अस्पताल में भर्ती हो। ऐसे बच्चों को सहारे की जरूरत होती है। उसे कोई सुनने वाला चाहिए।”

सोच बदलना जरूरी

करीब साल भर पहले बेटी अनन्या को खोने के बाद उसके नाम से काउंसलिंग संस्था चलाने वाली स्नेहा राव (देखें बॉक्स) बताती हैं, “अनेक माता-पिता मुझसे कहते हैं कि मैं अपने बच्चे को आईआईटी या अमुक स्कूल में दाखिल कराना चाहता हूं। मैं कहती हूं, आप बच्चे को सबसे अच्छी शिक्षा दीजिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हर बच्चे को 95% से ऊपर नंबर लाने पड़ेंगे। हर बच्चे की प्रतिभा अलग होती है। मां-बाप के साथ बच्चों को भी यह समझना चाहिए हर कोई आइंस्टाइन या अब्दुल कलाम नहीं बन सकता।”

वे कहती हैं, “अगर आपके बच्चे में तनाव के लक्षण दिखते हैं, तो किसी भी स्टिग्मा या टैबू को छोड़कर तत्काल विशेषज्ञ की सलाह लें, क्योंकि उनमें बच्चे को उस मानसिक अवस्था से बाहर निकालने की विशेषज्ञता होती है। माता-पिता के लिए यह समझना जरूरी है कि बच्चे के जीवन में क्या चल रहा है। कई बार उनकी खामोशी भी चीख कर कहती है कि मुझे मदद चाहिए, लेकिन अपने व्यस्त जीवन में हम उन संकेतों की अनदेखी कर देते हैं।”

80-85 प्रतिशत बच्चे दो-तीन सिटिंग के बाद सामान्य हो जाते हैं, 15% बच्चों को ही कई सिटिंग की जरूरत होती है। दो-तीन सिटिंग के बाद कई बार काउंसलर को अहसास होता है कि मां-बाप को भी काउंसलिंग की जरूरत है। तब यह फैमिली थेरेपी बन जाती है। स्नेहा के अनुसार, “मेरे पास एक बच्ची आई, जिसे समझाने में बहुत मुश्किल हुई। बच्ची को लगता था कि पहले उसके माता-पिता को काउंसलिंग की जरूरत है। दरअसल, वह सही कह रही थी। उसके उसके मां-बाप की पेरेंटिंग स्टाइल ठीक नहीं थी। यहां तक कि दादा-दादी को भी साइकियाट्रिस्ट के पास जाने की जरूरत पड़ सकती है। मेरे पास एक ऐसा बच्चा आया था जिसके दादाजी ने उससे कुछ ऐसी बात कही जो उसके मन में बैठ गई थी। दादाजी तो गुजर गए, लेकिन बच्चा उससे बाहर नहीं निकल पा रहा था।”

पढ़ाई के तरीके में बदलाव

निमहैंस के डॉ. रेड्डी कहते हैं, “कम्युनिटी, संस्थान, नीति निर्माता, शिक्षण संस्थान, शिक्षक और माता-पिता सबको इस बात पर गौर करना चाहिए कि इस समस्या को दूर करने के लिए क्या बदलाव किए जा सकते हैं। लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा पहले भी थी, लेकिन आज यह बहुत अधिक है। हमें ऐसा शिक्षण पाठ्यक्रम तैयार करने की जरूरत है, जिसमें नॉलेज के ‘रिप्लिकेशन’ के बजाय उसके ‘एप्लीकेशन’ पर फोकस हो।”

वे कहते हैं, “पढ़ाई का ऐसा तरीका विकसित करने की जरूरत है जिसमें ग्रुप लर्निंग को प्रोत्साहित किया जाए। छात्रों को व्यक्तिगत असाइनमेंट देने के बजाय ऐसे प्रोजेक्ट दिए जाने चाहिए, जिनमें कई छात्र मिलकर काम करें। इससे उनके बीच बेहतर कोऑर्डिनेशन होगा और स्वस्थ वातावरण बनेगा। यह लाइफ स्किल ट्रेनिंग के तौर पर काम करेगा। कई देशों में समस्या का समाधान निकालने (कोपिंग स्ट्रैटजी) को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। नीति निर्माताओं को इस पर विचार करना चाहिए ताकि इस तरह की नीति उचित समय पर और सही तरीके से अमल में लाई जा सके।”

डॉ. ओम प्रकाश के अनुसार, “स्कूल पाठ्यक्रम में, मीडिया में, घर-घर में इस पर चर्चा होनी चाहिए ताकि लोगों में जागरूकता बढ़े। बच्चा डिप्रेशन या तनाव में न जाए, छोटी-मोटी समस्याओं से विचलित न हो, इसके लिए उसे मानसिक रूप से मजबूत बनाना जरूरी है। उसे छोटे-छोटे काम करने का अवसर दें। जैसे, उसे सब्जी या कोई और सामान लाने के लिए भेजें, घर के किसी सदस्य को कहीं छोड़ आने के लिए कहें।”

अच्छी बात है कि इस दिशा में प्रयास शुरू हुए हैं। देश के सभी 23 आईआईटी की शीर्ष कोआर्डिनेशन बॉडी आईआईटी काउंसिल की 18 अप्रैल को भुवनेश्वर में 55वीं बैठक हुई। इस मौके पर केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा, “हाल में विभिन्न आईआईटी कैंपस में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जो कभी नहीं होनी चाहिए थीं। यह सभी फैकल्टी, डीन और डायरेक्टर की जिम्मेदारी है कि वे ऐसा वातावरण सुनिश्चित करें जिससे किसी भी कैंपस में भेदभाव ना हो।”

सभी आईआईटी से मेंटल हेल्थ से जूझ रहे छात्रों के बीच में पढ़ाई छोड़ने तथा आत्मघाती कदम उठाने के पीछे विशिष्ट कारणों से संबंधित रिपोर्ट सौंपने को भी कहा गया है। हाल के महीनों में कई छात्रों के सुसाइड करने के बाद आईआईटी मद्रास ने छात्रों के लिए ‘वेलनेस सजेशन सीरीज’ का आयोजन किया। इसमें मेंटल हेल्थ के बारे में जानकारी देने के साथ तनाव कम करने के तरीके बताए जाते हैं। खबरों के अनुसार आईआईटी बॉम्बे अंडर ग्रेजुएट कक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम कुछ कम करने पर विचार कर रहा है। जल्दी ही अकादमिक प्लान का लाइट वर्जन जारी किया जाएगा।

लेकिन अभी लंबा सफर तय करना है। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि 29 साल की उम्र तक के लोग सबसे अधिक खुदकुशी कर रहे हैं। सुसाइड के कुल मामलों में इनकी संख्या 41% से ज्यादा है। देश में सड़क दुर्घटना से ज्यादा मौतें खुदकुशी से होती हैं। एनसीआरबी के अनुसार 2021 में सड़क दुर्घटनाओं में 1,55,622 लोगों की जान गई जबकि 1,64,033 लोगों ने आत्महत्या की। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने टेली-मानस वेबसाइट पर बताया है कि देश के 15% वयस्कों में मेंटल हेल्थ की समस्या है और उन्हें मदद की जरूरत है।

इसलिए स्नेहा कहती हैं, “समाज के रूप में हम नाकाम हुए हैं। आज अगर हमारे सामने अवसाद में डूबे बच्चे हैं, तो कल पूरा देश इस अवसाद में डूबा होगा, क्योंकि बच्चे ही तो भविष्य हैं। इसलिए हमें इसे भी एक महामारी की तरह लेना चाहिए। अगर हम अभी कदम उठाएंगे तब भी हालात सामान्य होने में तीन पीढ़ियां लग जाएंगी। इस महामारी से लड़ने के लिए पूरे समाज को साथ आना होगा। अगर हम कल अपने देश को स्वस्थ देखना चाहते हैं तो हमें मेंटल हेल्थ और बच्चों के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा।”