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बलिया संसदीय क्षेत्र: कभी नहीं फहरा भगवा व नीला परचम

देश की राजनीति में बलिया की एक अलग पहचान है और उसकी वजह निश्चित तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर हैं। इस संसदीय सीट की एक खासियत और भी है कि अब तक इस क्षेत्र के लोगों ने सोलह बार मतदान किया है, पर एक बार भी भगवा व नीला परचम को फरहाने का अवसर नहीं दिया। मतलब भाजपा व बसपा के खाते में यह सीट गई ही

By Edited By: Published: Sun, 23 Mar 2014 11:05 AM (IST)Updated: Sun, 23 Mar 2014 02:07 PM (IST)
बलिया संसदीय क्षेत्र: कभी नहीं फहरा भगवा व नीला परचम

[शशिकांत ओझा], बलिया। देश की राजनीति में बलिया की एक अलग पहचान है और उसकी वजह निश्चित तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर हैं। इस संसदीय सीट की एक खासियत और भी है कि अब तक इस क्षेत्र के लोगों ने सोलह बार मतदान किया है, पर एक बार भी भगवा व नीला परचम को फहराने का अवसर नहीं दिया। मतलब भाजपा व बसपा के खाते में यह सीट गई ही नहीं। बागी कहे जाने वाले इस जिले के लोगों ने पहले आम चुनाव में ही अपने तेवर को दिखाते हुए यहां कांग्रेस को खारिज कर निर्दल मुरली बाबू (मुरली मनोहर) को उच्च सदन में भेज दिया। हालांकि मुरली बाबू को कांग्रेस ने पछाड़ते हुए दूसरे आम चुनाव में यहां जीत हासिल कर ली, तब से लगातार चार बार कांग्रेसी तिरंगा यहां का सिरमौर रहा पर जब 1977 में एक बार चंद्रशेखर के हाथ में यहां की सत्ता मिली तो सिर्फ 84 के चुनाव को छोड़ जीवन पर्यन्त उनके साथ ही रही।

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बलिया संसदीय सीट पर 1952 में कांग्रेस ने यहां से लोगों की मर्जी के विपरीत पं.मदन मोहन मालवीय के पुत्र गोविंद मालवीय को अपना उम्मीदवार बना दिया। बागी तेवर के धनी यहां के लोगों ने कांग्रेसी लहर में भी गोविंद मालवीय को खारिज कर निर्दल मुरली मनोहर को संसद में भेजा। पहली हार से बौखलाई कांग्रेस ने 1957 के आम चुनाव में मुरली बाबू के खिलाफ राधामोहन सिंह को मैदान में उतारा और मैदान मार लिया। फिर यहां से शुरू हुआ कांग्रेसी परचम का जमाना तो 1971 के चुनाव तक लगातार चला। इस दौरान 1962 में मुरली बाबू, 1967 व 1971 में चंद्रिका लाल ने इस सीट का प्रतिनिधित्व किया। फिर जयप्रकाश नारायण की क्रांति के बाद बने माहौल में यहां की सत्ता संभाली चंद्रशेखर ने जो उनके मरणोपरांत तक वैसे ही रहा। हालांकि इस दौरान इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में हुआ चुनाव अपवाद है। 1984 में कांग्रेस के जगन्नाथ चौधरी एक बार सदन में जाने में सफल रहे थे। चंद्रशेखर ने बतौर सांसद रहते हुए देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक कुर्सी प्रधानमंत्री की भी शोभा बढ़ाई।

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चंद्रशेखर के निधन के बाद बलिया संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में लोगों ने चंद्रशेखर की विरासत उनके कनिष्ठ पुत्र नीरज शेखर को दे दी, जो वर्ष 2009 के आम चुनाव में भी कायम रहा। यूं कहें तो कि अब तक यहां हुए सोलह चुनावों में दस बार चंद्रशेखर व उनका परिवार ही विजयी रहा है। दो बार मुरली बाबू, दो बार चंद्रिका प्रसाद, एक बार राधामोहन सिंह व एक बार जगन्नाथ चौधरी को सफलता मिली। 1952 से 2009 के बीच के चुनाव में जो सबसे बड़ी खासियत रही वह यह कि अब तक यहां भगवा व नीला परचम नहीं फहरा सका।

बाहरी उम्मीदवार नहीं किए बर्दाश्त:

बलिया संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं की शुरू से एक विशिष्टता रही कि उन्होंने अब तक बाहरी उम्मीदवार को बर्दाश्त नहीं किया चाहे व किसी भी राजनीतिक दल से हों।

कांग्रेस ने इसकी शुरुआत पहले आम चुनाव 1952 से की, तब गोविंद मालवीय को पराजय का सामना करना पड़ा। यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। इसी क्रम में 2004 में कपिलदेव यादव बसपा व उपचुनाव 2007 में हरिशंकर तिवारी के पुत्र विनय शंकर तिवारी को ठीक-ठाक परिस्थितियां होते हुए भी हार का सामना करना पड़ा था।

कब, किसने मारी बाजी

वर्ष : सांसद: दल

1952: मुरली मनोहर: निर्दल

1957: राधामोहन: कांग्रेस

1962: मुरली मनोहर: कांग्रेस

1967: चंद्रिका प्रसाद: कांग्रेस

1971: चंद्रिका प्रसाद: कांग्रेस

1977: चंद्रशेखर: जनता पार्टी

1980: चंद्रशेखर: जनता पार्टी

1984: जगन्नाथ चौधरी: कांग्रेस

1989: चंद्रशेखर: जनता दल

1991: चंद्रशेखर: समाजवादी जनता पार्टी (रा)

1996 : चंद्रशेखर: समाजवादी जनता पार्टी (रा)

1998 : चंद्रशेखर: समाजवादी जनता पार्टी (रा)

1999 : चंद्रशेखर: समाजवादी जनता पार्टी (रा)

2004 : चंद्रशेखर: समाजवादी जनता पार्टी (रा)

2007 : नीरज शेखर : समाजवादी पार्टी (उपचुनाव)

2009: नीरज शेखर: समाजवादी पार्टी


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