एस.के. सिंह, नई दिल्ली। मिस्र के शर्म-अल-शेख में आयोजित जलवायु सम्मेलन COP27 ऐतिहासिक बन गया। ऐतिहासिक इसलिए क्योंकि विकासशील और गरीब देश जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए 30 वर्षों से जिस फंड की मांग कर रहे थे, उस पर आखिरकार सहमति बन गई। विकसित देश उन गरीब देशों के लिए अलग लॉस एंड डैमेज फंड बनाने पर राजी हुए जिन्हें इन अमीर देशों के कार्बन उत्सर्जन का नतीजा भुगतना पड़ रहा है। हाल के वर्षों में भीषण बाढ़, सूखा, हीटवेव, अकाल और तूफान जैसी आपदाओं का सामना ये देश बहुत अधिक कर रहे हैं, जबकि जलवायु को प्रदूषित करने में इन देशों का योगदान बहुत कम है।

लेकिन लॉस एंड डैमेज फंड के अलावा अन्य प्रमुख मुद्दों पर बात ज्यादा नहीं बढ़ी। सभी जीवाश्म ईंधनों (कोयला, तेल, गैस) का इस्तेमाल घटाने (फेज डाउन) के भारत के प्रस्ताव का पहले तो विकसित देश ही विरोध कर रहे थे, सम्मेलन में तेल उत्पादक देशों ने भी इसका विरोध किया। ग्लोबल वार्मिंग को प्री-इंडस्ट्रियल समय की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए उत्सर्जन घटाने के मुद्दे पर भी तमाम देश पिछले साल ग्लासगो के COP26 के तय लक्ष्य से आगे नहीं बढ़ पाए। तीनों प्रमुख मुद्दों पर विवाद के चलते सम्मेलन दो दिन ज्यादा चला। दो हफ्ते का यह सम्मेलन शुक्रवार को खत्म होना था, लेकिन यह रविवार तड़के खत्म हुआ।

अभी विकसित देश ही पैसे देंगे

भारतीय समय के अनुसार रविवार सुबह 7:45 बजे समापन सत्र शुरू हुआ, जिसमें चर्चा के बाद लॉस एंड डैमेज फंड को मंजूरी दी गई। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा, “मैं इस फैसले का स्वागत करता हूं। यह काफी नहीं, लेकिन टूटे भरोसे को दोबारा जोड़ने के लिए जिस राजनीतिक संकेत की जरूरत थी, उस दिशा में यह आवश्यक कदम है।” समझौते के अनुसार इस फंड में शुरुआत में विकसित देश, निजी और सरकारी संस्थान तथा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान योगदान करेंगे।

यूरोपियन यूनियन और अमेरिका की मुख्य मांग थी कि चीन और प्रदूषण फैलाने वाले अन्य बड़े देशों को भी इस फंड में योगदान करना चाहिए। उनका यह भी कहना था कि चीन और सऊदी अरब जैसे देशों को 1992 में विकासशील का दर्जा दिया गया था। तीन दशकों में इन देशों ने काफी तरक्की की है। आज चीन, अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी है। साथ ही वह अमेरिका के बाद दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जन करने वाला देश भी है। COP27 समझौते में चीन, भारत और सऊदी अरब जैसे देशों के फंड में योगदान करने की कोई बात नहीं है, लेकिन यह जरूर कहा गया है कि फंडिंग के स्रोत बढ़ाए जाने चाहिए।

एजेंडा में नहीं, फिर भी बनी सहमति

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट इंडिया की क्लाइमेट प्रोग्राम डायरेक्टर उल्का केलकर ने जागरण प्राइम से कहा, “दो सप्ताह पहले जब सम्मेलन शुरू हुआ, तब अमेरिका जैसे देश कह रहे थे कि हम लॉस एंड डैमेज फंड को एजेंडा में भी नहीं रखेंगे। उनका कहना था कि जब तक बड़े विकासशील देश और समृद्ध देश इस फंड में पैसा नहीं देंगे तब तक वे भी इसमें योगदान नहीं करेंगे, लेकिन अंतिम फैसले में यह बात नहीं है। दो हफ्ते में बहुत कुछ बदला। इस लिहाज से देखें तो फंड पर सहमति बनना बहुत बड़ी सफलता है। इसका मुख्य कारण प्रभावित देशों का एकजुट रहना और सिविल सोसाइटी का उनके साथ मिलकर काम करना है।” खबरों के अनुसार कुछ गरीब देशों ने यहां तक कह दिया था कि बिना इस फंड के वे सम्मेलन से नहीं लौटेंगे।

भारत समेत विकासशील और गरीब देश लंबे समय से इस फंड की मांग कर रहे थे। दूसरी तरफ अमेरिका और यूरोपियन यूनियन इसके खिलाफ थे, क्योंकि जलवायु परिवर्तन से होने वाले बड़े नुकसान के लिए सीधे वे जिम्मेदार माने जाएंगे और आर्थिक रूप से उन्हें भरपाई करनी पड़ेगी। गरीब देशों का तर्क है कि हम अमीर देशों में हो रहे ज्यादा उत्सर्जन का परिणाम भुगत रहे हैं, इसलिए इस समस्या से निपटने में उन्हें हमारी मदद करनी चाहिए।

हालांकि अभी यह फंड बनने, उसके नियम तय होने, उसमें पैसे आने और देशों को वितरित होने में समय लगेगा। उल्का केलकर के अनुसार इसमें कम से कम एक साल तो लगेगा। उन्होंने कहा, “अभी कमेटी बनी है। फंड कहां होगा, उसके नियम क्या होंगे, यह सब तय करने में एक साल तो लगेगा। ग्रीन क्लाइमेट फंड और एडेप्टेशन फंड में तो और ज्यादा समय लगा था, लेकिन अब हमारे पास अनुभव है कि कैसे जल्दी से जल्दी इस तरह के फंड बना सकें, उस पर काम शुरू कर सकें। अच्छी बात यह है कि कई देशों ने फंडिंग की घोषणा कर दी है। फंड के नियम जितनी जल्दी बनेंगे, प्रभावित देशों को मदद भी उतनी जल्दी मिलेगी।”

इस फंड से पैसा मुख्य रूप से द्वीप देशों और गरीब देशों को मिलेगा। हालांकि मध्य आय वर्ग वाले देशों के लिए भी विकल्प खुले रखे गए हैं जो जलवायु परिवर्तन से बुरी तरह प्रभावित हैं। भारत को इस फंड से मदद शायद ही मिले। भारत ने इसकी मांग भी नहीं की है। पहले से मौजूद क्लाइमेट एडेप्टेशन फंड यानी आगे की तैयारी के लिए फंड में सबसे अधिक रकम भारत को ही मिलती है। यहां नाबार्ड एडेप्टेशन फंड के प्रस्ताव देता है। देश के कई राज्यों में इसके प्रोजेक्ट चल रहे हैं।

केलकर के अनुसार भारत में बाढ़ या कोई दूसरी प्राकृतिक आपदा आती है तो हम दूसरे देशों से कम ही मदद मांगते हैं, अपने संसाधनों से ही उसे पूरा करते हैं। लॉस एंड डैमेज फंड की भारत को ज्यादा जरूरत नहीं है। दूसरे गरीब देशों को प्राथमिकता मिले, तो इसमें कोई बुरी बात नहीं है। उन्होंने बताया कि भारत ‘जी 77 प्लस चाइना’ समूह को शुरू से इस मामले में समर्थन कर रहा था। शुरू से ये देश एकजुट थे। इसी दबाव के कारण विकसित देशों को आखिरकार मानना पड़ा।

जी 77 प्लस चाइना ग्रुप (इसमें भारत भी है) की अगुवाई पाकिस्तान कर रहा था और इसका नैतिक फायदा मिला, क्योंकि पाकिस्तान में इस साल सितंबर में आई सबसे भीषण बाढ़ में वहां की एक तिहाई आबादी प्रभावित हुई थी। पाकिस्तान की जलवायु मंत्री शेरी रहमान ने कहा, यह हमारी 30 साल की यात्रा का नतीजा है। रहमान ने क्लाइमेट कॉन्फ्रेंस की शुरुआत में ही कहा था, “जो पाकिस्तान में हुआ, वह वहीं तक सीमित नहीं रहेगा।” केलकर के अनुसार उनके इस बयान का काफी सख्त संदेश गया।

जीवाश्म ईंधन पर आगे नहीं बढ़ी बात

लॉस एंड डैमेज फंड के अलावा कॉन्फ्रेंस में अन्य प्रमुख मुद्दों पर बात आगे नहीं बढ़ सकी। ग्लास्गो में आयोजित COP26 में विकसित देशों ने पहले कोयले का इस्तेमाल निश्चित अवधि में बंद करने का प्रस्ताव रखा था। भारत में बिजली उत्पादन के लिए कोयले पर निर्भरता बहुत ज्यादा है। भारत और चीन के विरोध के कारण कोयले का इस्तेमाल बंद करने के बजाय इसका इस्तेमाल कम करने पर सहमति बनी थी। अब भारत चाहता है कि कोयले के साथ तेल और प्राकृतिक गैस को भी शामिल किया जाए। लेकिन COP27 में इस पर सहमति नहीं बन पाई।

उल्का केलकर के अनुसार समझौते में इसे लेकर काफी कमजोर भाषा का इस्तेमाल किया गया है। उसमें तो रिन्यूएबल एनर्जी शब्द का भी उल्लेख नहीं है। इसकी जगह क्लीन एनर्जी शब्द का प्रयोग किया गया है। क्लीन एनर्जी में गैस और न्यूक्लियर पावर भी शामिल हैं। यानी गैस का इस्तेमाल बढ़ सकता है।

केलकर के अनुसार कुल बिजली उत्पादन में रिन्यूएबल एनर्जी का हिस्सा बढ़ रहा है, फिर भी पावर सेक्टर में उत्सर्जन कम नहीं हो रहा है। कारण यह है कि रिन्यूएबल के साथ गैस के इस्तेमाल में भी बढ़ोतरी हो रही है। इसलिए जब तक कोयले के साथ तेल और गैस का इस्तेमाल कम नहीं किया जाएगा, तब तक उत्सर्जन कम नहीं होगा। उन्होंने कहा, “जिस तरह जी-20 में युद्ध के खिलाफ मजबूत बयान दिया गया, उसी तरह क्लाइमेट कान्फ्रेंस में जीवाश्म ईंधन के खिलाफ भी कहा जा सकता था। लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण वह संभव नहीं हो सका। इसलिए अंतिम घोषणा पत्र में डायवर्सिफाइड एनर्जी मिक्स की बात कही गई है।”

उत्सर्जन घटाने पर भी प्रगति नहीं

एक और अहम मुद्दा था ग्लोबल वार्मिंग को प्री-इंडस्ट्रियल युग के औसत की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का। इसके लिए सभी देशों, खासकर विकसित देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में बहुत ज्यादा कटौती करनी पड़ेगी। लेकिन इस पर भी कुछ ठोस बात नहीं बन सकी। यूरोपियन यूनियन के क्लाइमेट चीफ फ्रांस टिमरमैन्स ने कहा, “लॉस एंड डैमेज को कम करने की दिशा में हम ज्यादा आगे नहीं बढ़ सके। इस पर जो सहमति की भाषा बनी वह बहुत कमजोर है। हम उससे काफी निराश हैं।”

केलकर कहती हैं, 1.5 डिग्री का मुद्दा बरकरार रखने का एक अर्थ तो यह है कि हम अभी हारे नहीं, उम्मीदें जिंदा हैं। हम कोशिश करते रहेंगे कि सदी के अंत तक ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रहे। 1992 में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र का फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) बना, तब उसमें इसका उल्लेख नहीं था। तब हमें मालूम भी नहीं था कि कितनी तापमान वृद्धि सुरक्षित है। इसे पेरिस समझौते में शामिल किया गया।

यह यह मुद्दा द्वीप देशों के लिए ज्यादा अहम है क्योंकि उनका कहना है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान तक बढ़ने पर तो हम सर्वाइव कर सकते हैं, लेकिन अगर ग्लोबल तापमान 2 डिग्री बढ़ गया तो हम डूब जाएंगे। विभिन्न देशों ने जो उत्सर्जन घटाने के अपने जो लक्ष्य (एनडीसी) दिए हैं, उसके मुताबिक तो गैप बढ़ता जा रहा है। अगर देश इस लक्ष्य पर पूरी तरह अमल करें, तब भी ग्लोबल तापमान 2.4 डिग्री सेल्सियस तो बढ़ेगा ही। अगर सभी देश एनडीसी के लक्ष्य बढ़ाते हैं तब भी तापमान 1.8 डिग्री बढ़ेगा। 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य का मतलब है कि सभी देशों को उत्सर्जन घटाने का लक्ष्य बहुत अधिक बढ़ाना पड़ेगा।

केलकर के अनुसार, पेरिस समझौते में हर 5 साल में इसे संशोधित करने की बात हुई थी, लेकिन मौजूदा हालात में हर साल इसमें संशोधन करना पड़ सकता है। हालांकि जरूरी नहीं कि सभी देश इसे स्वीकार करें। भारत का कहना है कि विकसित देशों को पहले एनडीसी के लक्ष्य बढ़ाने चाहिए। वे कहती हैं, “इस लिहाज से देखा जाए तो cop26 की तुलना में इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है।”

नई तकनीक से गरीब देशों को मदद

पिछले कुछ वर्षों में जलवायु विज्ञान यानी क्लाइमेट साइंस ने भी काफी तरक्की की है। पांच साल पहले जब बाढ़ आती थी या तूफान आता था तो वैज्ञानिक यह नहीं कह पाते थे कि यह जलवायु परिवर्तन के कारण है या सामान्य है। लेकिन बीते दो वर्षों में इस दिशा में काफी तरक्की हुई है। वर्ल्ड वेदर एट्रीब्यूशन नाम के समूह ने एक तकनीक विकसित की है जिसके आधार पर वे बताते हैं कि कोई प्राकृतिक आपदा सामान्य है या जलवायु परिवर्तन का प्रभाव। इस बार पाकिस्तान में जो बाढ़ आई वह पहले की तुलना में 80 गुना अधिक शक्तिशाली थी। जलवायु में सामान्य परिवर्तन से भी बाढ़ आ सकती है लेकिन इस साल पाकिस्तान में जो बाढ़ आई वह मानव जनित जलवायु परिवर्तन का नतीजा था। केलकर के अनुसार इससे भी गरीब और द्वीप देशों को अपनी बात कहने में मदद मिली, अपनी बात शक्तिशाली तरीके से कह पाए।