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आसान नहीं है बॉलिवुड का ‘मदर इंडिया’ से ‘मॉम’ का सफर, ऐसे हुई इस सफर की शुरूआत

बात चाहे रीयल लाइफ की हो या रील लाइफ की महिलाओं को हर जगह मुकाम बनाने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। बॉलिवुड में भी बहुत कठिन रहा है नायिकाओं का सफर।

By Amit SinghEdited By: Published: Fri, 08 Mar 2019 03:46 PM (IST)Updated: Fri, 08 Mar 2019 07:03 PM (IST)
आसान नहीं है बॉलिवुड का ‘मदर इंडिया’ से ‘मॉम’ का सफर, ऐसे हुई इस सफर की शुरूआत
आसान नहीं है बॉलिवुड का ‘मदर इंडिया’ से ‘मॉम’ का सफर, ऐसे हुई इस सफर की शुरूआत

नई दिल्ली [गौतम चिंतामणि]। विश्व महिला दिवस (International Women's Day 2019) पर जब महिलाओं को पुरुषों के बराबर कानूनी अधिकारी और सम्मान देने की बात हो रही है तो ऐसे में ये भी जानना जरूरी है कि भारतीय सिनेमा का भी इसमें अहम योगदान रहा है। एक दौर ऐसा था भारतीय सिनेमा में अभिनेत्रियों को लीड रोल नहीं मिलते थे या बहुत अच्छा अभिनय करने पर भी उन्हें साथी अभिनेताओं से कम तनख्वाह और सम्मान दिया जाता था। आज स्थिति एकदम बदल चुकी है।

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भारतीय सिनेमा में बात अगर 1950 और 1960 के दशक की करें तो इस दौर में हिंदी सिनेमा में बहुत सी अभिनेत्रियां अपने बेजोड़ अभिनय को लेकर चर्चा में रहीं। बावजूद इस दौर की किसी अभिनेत्री को बहुत कम लीड रोल मिले। इस दौर की चंद चर्चित महिला अभिनेत्रियों को जब लीड रोल मिलना शुरू हुआ तो वह करियर के अंतिम पड़ाव पर थीं।

बावजूद, उनकी इन क्लासिक फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर खूब वाहवाही बटोरी। ये फिल्में थीं, मशहूर अदाकार नरगिस की 1957 में रिलीज हुई ‘मदर इंडिया’, 1972 में रिलीज हुई मीना कुमारी की ‘पाकिजा’ और 1960 में रिलीज हुई मधुबाला की ‘मुगल-ए-आजम’।

इस तरह की कामयाब फिल्मों के बावजूद उस दौर में अभिनेत्रियों को मुख्य धारा की फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाएं नहीं मिलती थीं। यही वजह है कि 1963 में रिलीज हुई नूतन की ‘बंदिनी’ और 1965 में रिलीज हुई वहिदा रहमान की ‘गाइड’ फिल्म में उनके बेहतरीन अभिनय के बाद भी इन अभिनेत्रियों को बॉलिवुड में सर्वश्रेष्ठ अभिनय की सूची में कहीं उच्च स्थान नहीं दिया गया था।

1970 के दशक में भारतीय फिल्म जगत में राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन का स्टारडम चरम पर था। उस वक्त भी हेमा मालिनी ने अपने अभिनय पर किसी अभिनेता की भूमिका को हावी होने दिया था। 1972 में रिलीज हुई हेमा मालिनी की ‘सीता और गीता’ फिल्म ने उन्हें सबसे बड़ा स्टार बना दिया था। इस फिल्म में सुपर स्टार धर्मेंद्र ने हेमा मालिनी के अपोजिट सह कलाकार की भूमिका अदा की थी। इसी दशक में 1972 में रिलीज हुई शर्मिला टैगोर की ‘अमर प्रेम’ भी अद्वितीय फिल्म साबित हुई थी। फिल्म में राजेश खन्ना की मौजूदगी के बावजूद इसकी पूरी कहानी शर्मिला टैगोर के किरदार के आसपास घूमती है। वही इस फिल्म की मुख्य पात्र थीं।

इसके बाद अभिनेत्री श्रीदेवी का दौर आया और उनकी कई फिल्मों में हीरो को बड़े अभिनेताओं को साइड रोल करते देखा गया। 1989 में रिलीज हुई श्रीदेवी ने तमिल फिल्म की रीमेक ‘गुरू’ में डबल भूमिका निभाई थी, जबकि ओरिजनल तमिल फिल्म में दो अलग-अलग हीरोइनों ने काम किया था। 1991 में रिलीज हुई उनकी फिल्म ‘लम्हे’ ने उन्हें एक बड़ी अभिनेत्री के तौर पर स्थापित किया, जिसने सबको पीछे छोड़ दिया और भारतीय सिनेमा में अभिनेत्रियों के प्रति संकीर्ण सोच को बदलकर रख दिया। इस तरह से एक लंबी जद्दोजहद के बाद हिंदी सिनेमा में अभिनेत्रियों की भूमिका का महत्व बढ़ा।

इसके बाद बॉलिवुड में महिला आधारित फिल्मों का दौर शुरू हुआ, जिसमें उन्हें बाजार की मांग की परवाह किए बिना वास्तविक किरदारों में प्रस्तुत किया गया। 2014 में पर्दे पर आयी कंगना रनौत की फिल्म ‘क्वीन’, 2016 में रिलीज हुई तापसी पन्नु, कीर्ति कुल्हारी और एंड्रिया तारियांग की ‘पिंक’ और 2017 में रिलीज हुई विद्या बालन की ‘तुम्हारी सुलु’ जैसी फिल्में बताती हैं बॉलिवुड में अभिनेत्रियों को लेकर किस तरह से नजरिया बदल चुका है। उन्हें अब फिल्मों में शोपीस की तरह नहीं दिखाया जाता, बल्कि उनकी अभिनय की काबिलियत को देखते हुए भूमिकाएं दी जाती हैं।

पिछले कुछ सालों में बॉलिवुड में महिला केंद्रित फिल्मों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। फिल्लौरी, अनारकली ऑफ आराह, नाम शबाना, बेगम जान, मॉम, पिंक, लिपस्टिक अंडर माई बुरका, इंदु सरकार, सिमरन, हसीना और तुम्हारी सुलु जैसी महिला प्रधान फिल्मों को अन्य हीरो प्रधान फिल्मों की तरह ही रिलीज किया गया।

इन फिल्मों को पुरुष अभिनेताओं की गैर मौजूदगी की वजह से अब दरकिनार नहीं किया जाता है, जो बॉलिवुड में अभिनेत्रियों के लिए एक बड़ी सफलता का परिचायक है।

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