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    एक नजर: इन बड़े-बड़े धुरंधरों को भी जनता ने सिखाया है सबक

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    Updated: Tue, 25 Mar 2014 11:28 AM (IST)

    आपातकाल के बाद 1977 में गांधी-नेहरू परिवार के गढ़ रायबरेली से राजनारायण के हाथों पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हार की चर्चा तो होती रहती है लेकिन ...और पढ़ें

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    लखनऊ [राजीव दीक्षित]। आपातकाल के बाद 1977 में गांधी-नेहरू परिवार के गढ़ रायबरेली से राजनारायण के हाथों पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हार की चर्चा तो होती रहती है लेकिन यह सच भी कम लोगों को विदित है कि पूर्व प्रधानमंत्री व भारतीय जनता पार्टी के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी को भी अपनी संसदीय यात्रा के शुरुआती दौर में तीन चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा। 1957 व 1962 के चुनावों में तो उन्हें सूबे की राजधानी लखनऊ में ही मुंह की खानी पड़ी। हालांकि इस क्षेत्र ने 1991 से लगातार पांच बार उन्हें अपने सिर-माथे बैठाया। 1957 के चुनाव में बलरामपुर से जीत दर्ज कराने वाले अटल 1962 में इस सीट पर कांग्रेस की सुभद्रा जोशी से पराजित हुए।

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    लोकसभा के चुनावी दंगल में शिकस्त खाने वाले दिग्गजों की फेहरिस्त में डॉ.राम मनोहर लोहिया, पंडित दीनदयाल उपाध्याय और कांशीराम सरीखे तपे हुए विचारक भी रहे तो चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर जैसे पूर्व प्रधानमंत्री भी। समाजवाद के प्रणोता डॉ.राम मनोहर लोहिया ने 1957 और 1962 में चंदौली के चुनावी दंगल में पटकनी खायी तो एकात्म मानववाद की लौ जलाने वाले दीनदयाल उपाध्याय 1963 में जौनपुर से उपचुनाव हारे।

    जिन कांशीराम का आशीर्वाद लेकर मायावती ने चार में से तीन बार उप्र की सत्ता संभाली, वह खुद दो बार चुनावी दंगल में चित हुए। 1996 में फूलपुर में उन्हें उनके पुराने चेले रहे सपा के जंग बहादुर सिंह पटेल ने आसमान दिखाया तो 1998 के चुनाव में सूबे में चली भाजपा की आंधी में उन्हें सहारनपुर में हार मिली। किसानों की सियासत को नया आयाम देने वाले चौधरी चरण सिंह 1971 में जाट राजनीति के केंद्र मुजफ्फरनगर में मिली पराजय आजीवन नहीं भूल पाए। बागी बलिया से आठ चुनाव जीतकर अपराजेय समझे जाने वाले चंद्रशेखर को 1984 में इसी सीट पर मिली हार अखरती रही।

    पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को 1977 में अपने गृह जिले इलाहाबाद में पराजय का कड़वा स्वाद चखना पड़ा। 1989 में पहली बार बिजनौर से संसद की देहरी लांघने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती को 1991 की राम लहर से इसी सीट पर शिकस्त खानी पड़ी थी। कांग्रेस के दिग्गज नेता व पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी अविभाजित उप्र में नैनीताल सीट पर 1991 व 1998 में पराजित हुए तो एक और लोकप्रिय पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा को 1984 में इलाहाबाद में सिने स्टार अमिताभ बच्चन के हाथों करारी हार मिली। चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत संभालने वाले उनके पुत्र अजित सिंह ने बागपत सीट पर जीत की दो अलग हैट्रिक तो लगा ली, लेकिन उनकी डबल हैट्रिक में 1998 में भाजपा के सोमपाल शास्त्री रोड़ा बन गए।

    कभी इंदिरा गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी समझे जाने वाले संजय गांधी से आपातकाल की ज्यादतियों का हिसाब चुकता करते हुए अमेठी की जनता ने 1977 में उन्हें नकार दिया था तो उनके निधन के बाद उनकी पत्नी मेनका गांधी को 1984 में यहीं अपने जेठ राजीव गांधी से पराजित होना पड़ा। अपने सियासी जीवन में मेनका को दूसरी हार 1991 में पीलीभीत सीट पर मिली।

    और भी धुरंधरों को मिली है शिकस्त

    -राम नरेश यादव 1989 में बदायूं, 1984 व 1998 में आजमगढ़ से हारे।

    - कल्पनाथ राय 1980 में घोसी से हारे।

    - कृष्ण चंद्र पंत 1977 में नैनीताल से हारे।

    -शरद यादव 1984 व 1991 में बदायूं से हारे।

    - मुरली मनोहर जोशी-1980 व 1984 में अल्मोड़ा, 2004 में इलाहाबाद में हारे।

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