भारत में बढ़ती ऑटोइम्यून बीमारियां, महिलाओं में क्यों ज्यादा दिख रहा असर?

ऑटोइम्यून रोग महिलाओं को अधिक प्रभावित करते हैं, जिसके पीछे हार्मोनल बदलाव और आनुवंशिक कारण हैं। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के अध्ययन में एक्सिस्ट आरएनए क...और पढ़ें
जागरण न्यू मीडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर के पद पर कार्यरत। दो दशक के करियर में इन्होंने कई प्रतिष्ठित संस्थानों में कार ...और जानिए
नई दिल्ली, अनुराग मिश्र।
ऑटोइम्यून रोग से प्रभावित लगभग 70% लोग महिलाएं हैं। प्रमुख रुमेटोलॉजिस्ट्स का मानना है कि हार्मोनल बदलाव, आनुवंशिक प्रवृत्ति और विशिष्ट जैविक तंत्र महिलाओं को इन रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाते हैं। महिलाओं की प्रतिरक्षा प्रणाली संक्रमणों से लड़ने में अधिक सक्षम होती है, लेकिन कभी-कभी यह अपने ही शरीर के खिलाफ प्रतिक्रिया कर सकती है, जिससे ऑटोइम्यून रोग उत्पन्न होते हैं।
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के हालिया अध्ययन ने भी इस भेद को स्पष्ट किया है। शोधकर्ताओं ने पाया कि महिलाओं के शरीर में Xist RNA नामक विशेष अणु का निर्माण होता है, जो उनके दो X गुणसूत्रों में से एक को नियंत्रित करता है। हालांकि, यह अणु कभी-कभी प्रतिरक्षा प्रणाली को भ्रमित कर देता है, जिससे यह शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं पर हमला कर सकती है। यह एक मुख्य कारण हो सकता है कि ऑटोइम्यून रोग महिलाओं में अधिक देखे जाते हैं।
चिकित्सकों का मानना है कि ऑटोइम्यून रोग विशेष रूप से 20 से 50 वर्ष की उम्र की महिलाओं में अधिक सामान्य हैं, जब हार्मोनल और जीवनशैली संबंधी कारक सबसे सक्रिय होते हैं।
ऑटोइम्यून विकार तब उत्पन्न होते हैं जब शरीर की सुरक्षा प्रणाली, जो आमतौर पर संक्रमणों से बचाती है, गलती से अपने ही ऊतकों पर हमला कर देती है। आम स्थितियों में रूमेटोइड अर्थराइटिस, लुपस, थायरॉइडाइटिस, सोरायसिस और स्ज़ोग्रेन सिंड्रोम शामिल हैं। ये रोग जोड़ों, त्वचा, रक्त वाहिकाओं और हृदय या फेफड़ों जैसे आंतरिक अंगों को प्रभावित कर सकते हैं।
एम्स, नई दिल्ली में रुमेटोलॉजी विभाग की प्रमुख डा. उमा कुमार कहती हैं कि एम्स के मेरे आउट पेशेंट क्लिनिक में ऑटोइम्यून रोग से पीड़ित लगभग सात में से सात मरीज महिलाएं हैं। हम एक स्पष्ट पैटर्न देखते हैं कि महिलाएं अक्सर देर से आती हैं क्योंकि वे लगातार लक्षणों की अनदेखी करती हैं। आनुवंशिक बनावट, प्रजनन आयु और प्रसव के बाद हार्मोनल बदलाव, साथ ही तनाव, मोटापा और पोषण की कमी उन्हें ऑटोइम्यून रोग के प्रति अधिक संवेदनशील बनाते हैं। भारत में हमें ऑटोइम्यून विकारों को एक प्रमुख महिला स्वास्थ्य मुद्दा मानना होगा।
फोर्टिस हॉस्पिटल के रुमेटोलॉजी निदेशक डॉ. बिमलेश धार पांडे का कहना है कि हर हफ्ते मैं महिलाओं से मिलता हूं, जो वर्षों से अज्ञात जोड़ों के दर्द या सूजन से जूझ रही हैं। कई 30 या 40 की उम्र में हैं, परिवार और काम संभालती हैं। जब तक वे हमारे पास आती हैं, रोग उनके जोड़ों या अंगों को नुकसान पहुंचा चुका होता है। हमें जागरूकता बढ़ानी होगी और विशेष रूप से महिलाओं में प्रारंभिक स्क्रीनिंग सुनिश्चित करनी होगी।
भारत में डॉक्टरों के अनुसार समस्या बढ़ जाती है क्योंकि महिलाएं थकान, जोड़ों की अकड़न या सूजन जैसी शुरुआती चेतावनी संकेतों की अनदेखी करती हैं, इन्हें मामूली समस्या, तनाव या उम्र बढ़ने का परिणाम मानती हैं। कई महिलाएं परिवार की जिम्मेदारियों, जागरूकता की कमी या सामाजिक कारणों से डॉक्टरों से मिलने में देरी करती हैं, जिससे रोग चुपचाप बढ़ता रहता है।
सर गंगा राम अस्पताल में रुमेटोलॉजी के उपाध्यक्ष डां नीरज जैन ने कहा कि हमने भी यही प्रवृत्ति देखी है कि अधिकांश ऑटोइम्यून रोगी महिलाएं हैं। स्टैनफोर्ड अध्ययन एक जैविक व्याख्या देता है, लेकिन भारत में सामाजिक और पर्यावरणीय कारक ऑटोइम्यून रोगों की घटनाओं को बढ़ाते हैं। प्रदूषण, संक्रमण और अस्वस्थ जीवनशैली ये सभी प्रतिक्रियाओं को ट्रिगर या बढ़ा सकते हैं।”
डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में प्रोफेसर और रुमेटोलॉजिस्ट डां पुलिन गुप्ता ने कहा कि मेरे प्रैक्टिस में लगभग 70% ऑटोइम्यून रोगी महिलाएं हैं, और कई वर्षों तक गलत इलाज झेल चुकी हैं। हमें शुरुआती संकेतों की पहचान करनी होगी ताकि महिलाओं को जल्द ही रुमेटोलॉजिस्ट के पास भेजा जा सके। प्रारंभिक निदान दीर्घकालिक विकलांगता रोक सकता है।
इंद्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल्स की वरिष्ठ कंसल्टेंट डॉ. रोहिणी हंडा ने कहा कि ऑटोइम्यून रोग मधुमेह या हृदय रोग जितने सामान्य हैं, फिर भी इन्हें कम ध्यान मिलता है। जब प्रभावितों का 70% हिस्सा महिलाएं हैं, इसे लिंग-तटस्थ मुद्दा नहीं मान सकते। जागरूकता अभियान, महिला-विशिष्ट शोध और पूरे भारत में रुमेटोलॉजी सेवाओं की बेहतर पहुंच की आवश्यकता है।
अपर्याप्त नींद और खराब लाइफस्टाइल प्रमुख कारक
बढ़ता प्रदूषण, स्थिर जीवनशैली, अस्वस्थ आहार, तनाव और अपर्याप्त नींद इसके मुख्य कारक हैं। कुछ अध्ययन बताते हैं कि वायु प्रदूषक और औद्योगिक रसायनों के संपर्क से हार्मोनल और प्रतिरक्षा तंत्र प्रभावित होते हैं, जिससे जोखिम और बढ़ जाता है। डॉक्टर्स मानते हैं कि समय पर निदान और उपचार महत्वपूर्ण है। जबकि ऑटोइम्यून रोग पूरी तरह से ठीक नहीं हो सकते, दवा, व्यायाम, संतुलित आहार और तनाव नियंत्रण के माध्यम से इन्हें प्रभावी ढंग से प्रबंधित किया जा सकता है।
भारत में प्रशिक्षित रुमेटोलॉजिस्ट की कमी है। एक अरब से अधिक आबादी के लिए 1,000 से कम विशेषज्ञ उपलब्ध हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि प्राथमिक स्वास्थ्य चिकित्सकों को शुरुआती लक्षण पहचानने और रोगियों को उचित रूप से रेफर करने के लिए प्रशिक्षित किया जाए। सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों में भी ऑटोइम्यून रोगों को महिला स्वास्थ्य पहलों के तहत शामिल किया जाना चाहिए, जैसे प्रजनन और कैंसर स्क्रीनिंग को बढ़ावा दिया जाता है।
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