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Bheema Koregaon Battle: जानें- क्या है दलित योद्धाओं से जुड़ा इसका गौरवमयी इतिहास

Battle of Bhima Koregaon दलितों का 200 साल पुराना इतिहास है, जो उन्हें बहादुर योद्धाओं की तरह गौरवांवित करता है। इस युद्ध में उन्होंने मराठाओं के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दिया था।

By Amit SinghEdited By: Published: Tue, 01 Jan 2019 03:57 PM (IST)Updated: Wed, 02 Jan 2019 10:35 AM (IST)
Bheema Koregaon Battle: जानें- क्या है दलित योद्धाओं से जुड़ा इसका गौरवमयी इतिहास
Bheema Koregaon Battle: जानें- क्या है दलित योद्धाओं से जुड़ा इसका गौरवमयी इतिहास

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। Battle of Bhima Koregaon साल 2019 के स्वागत में जहां चारों तरफ हंसी-खुशी और बधाईयों का तांता लगा हुआ है, वहीं पुणे के भीमा कोरेगांव में तनाव की स्थिति है। किसी अनहोनी की आशंका को देखते हुए पूरे महाराष्ट्र में हाई अलर्ट है। भीमा कोरेगांव में 10 हजार से ज्यादा सुरक्षाकर्मी तैनात कर दिए गए हैं। मालूम हो कि 2018 के नव वर्ष के मौके पर भीमा कोरेगांव में काफी हिंसा हुई थी।

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इस बार यूपी की भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद ने एक जनवरी को भीमा-कोरेगांव की 201वीं वर्षगांठ पर वहां पहुंचने की घोषणा की है। हालांकि प्रशासन ने उन्हें रैली की इजाजत नहीं दी है। इसी के मद्देनजर वहां अलर्ट लागू किया गया है। इस मौके पर आइए जानते हैं क्या है भीमा कोरेगांव और उससे जुड़ा दलितों का गौरमयी इतिहास।

दलितों ने अंग्रेजों का साथ दे पेशवा को हराया था
भीमा-कोरेगांव को 201 साल पहले एक जनवरी 1818 को पेशवाओं के नेतृत्व वाले मराठा साम्राज्य और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुए युद्ध के लिए जाना जाता है। इस युद्ध में अनुसूचित जाति के महार समुदाय ने पेशवाओं के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दिया था। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने महार रेजिमेंट की बदौलत ही पेशवाओं को हराया था। महारों की इस विजय की याद में ही यहां ‘विजय स्तंभ’ की स्थापना की गई है, जहां प्रतिवर्ष एक जनवरी को हजारों लोग विशेषकर दलित समुदाय के लोग, युद्ध में शहीद हुए लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित करने पहुंचते हैं। इस स्तम्भ पर 1818 के युद्ध में शहीद होने वाले महार योद्धाओं के नाम अंकित हैं।

इसलिए मराठाओं से नाराज थे दलित
युद्ध में मराठाओं को हराने की वजह से अनुसूचित जातियों के लिए इस जगह को खास सम्मान मिला हुआ है। भीमराव अंबेडकर का समर्थन करने वाले अनुसूचित जाति के लोग इस लड़ाई को राष्ट्रवाद बनाम साम्राज्यदाव की लड़ाई नहीं मानते हैं। दलित इस लड़ाई को अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचार करने वाले पेशवाओं पर जीत की तरह देखते हैं। इतिहासकारों के अनुसार भीमा-कोरेगांव में हुई लड़ीई में अंग्रेजों की ओर से लड़ने वाले ज्यादातर सैनिक महाराष्ट्र की अनुसूचित जाति (महार) के थे। इससे पहले महार, शिवाजी के समय से ही मराठा सेना का हिस्सा हुआ करते थे। बाजीराव द्वितीय ने अपनी ब्राह्मणवादी सोच की वजह से दलितों को सेना में भर्ती करने से इंकार कर दिया था। इस वजह से दलित मराठों से खफा थे।

दलितों के योद्धा होने का प्रतीक
इतिहासकारों के अनुसार भीमा-कोरेगांव दलितों के सामाजिक आंदोलन के लिए इसलिए महत्वपूर्म है, क्योंकि इससे उन्हें पता चलता है कि वो भी कभी योद्धा थे। इतिहास में उनकी इस पहचान को लगभग मिटा दिया गया था। उन्हें हमेशा दबे-कुचले और अछूतों के तौर पर पेश किया गया। वहीं ज्यादातर दलितों का मानना है कि ऊंची जातियों के द्वारा हमेशा उनका शोषण किया गया है या उनके कष्ट का कारण रहे हैं। यही वजह है कि दलित समुदाय अब सेना में चमार रेजिमेंट बहाल करने की मांग करने लगा है, ताकि वह अपनी पारंपरिक शैली को तोड़ते हुए अपने गौरवशाली इतिहास के सहारे खुद को समाज में मजबूती से खड़ा कर सकें।

दलितों पर ऐसे हुआ था जुल्म
पेशवाओं ने महारों के साथ जिस तरह का बर्ताव किया, इतिहासकार उसके बारे में भी बताते हैं। शहर में घुसते वक्त महारों को अपनी कमर पर झाड़ू बांधकर रखनी होती थी, ताकि उनके कथित अपवित्र पैरों के निशान इस झाड़ू से मिटते चले जाएं। इतना ही नहीं महारों को अपनी गर्दन में एक बर्तन भी लटकाना होता था ताकि उनका थूका हुआ जमीन पर न पड़े और कोई सवर्ण अपवित्र न हो जाए।

ये प्राचीन भारत से चले आ रहे वो नियम थे, जिसके खिलाफ समय-समय पर आवाजें उठती रहीं, लेकिन इन दलित विरोधी व्यवस्थाओं को बार-बार स्थापित किया गया। इसी व्यवस्था में रहने वाले महारों के पास सवर्णों से बदला लेने का अच्छा मौका था और इसीलिए महार अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी में शामिल होकर लड़े। एक तरफ वो पेशवा सैनिकों के साथ लड़ रहे थे दूसरी तरफ इस क्रूर व्यवस्था का बदला भी ले रहे थे।

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