विश्व फलक तक पहुंचाया मजदूरी करने वाले हाथों का हुनर, चित्रकला से दुनिया में बनी पहचान
भारत सरकार ने 2021 में उन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा। भूरी बाई की कला यात्रा अभी जारी है। इस बीच वे नई पीढ़ी में अपनी कला का बिरवा रोप रही हैं। वे विभिन्न संस्थानों के साथ मिलकर भीली चित्रकला पर कार्यशाला करती हैं। भीली संस्कृति से जुड़े कई संस्थाओं से जुड़कर कला को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं।

विकास वर्मा, नवदुनिया, भोपाल। पद्मश्री भूरी बाई अपनी भीली चित्रकला के माध्यम से दुनियाभर में पहचान बना चुकी हैं। चित्रकला में योगदान के लिए 2021 में पद्मश्री अवार्ड से नवाजा गया। वह गरीब परिवार से थीं और जीवन यापन के लिए मजदूरी करती थीं, लेकिन उनकी कला के प्रति गहरी रुचि और लगन ने उन्हें एक नई दिशा दी। भूरी बाई ने अपनी कड़ी मेहनत और आत्मविश्वास के साथ कला यात्रा शुरू की, जिसने उन्हें न केवल भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान दिलाई।
परंपरा में प्रशिक्षित
मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के पिटोल गांव में 1968 में जन्मी भूरीबाई के माता-पिता मजदूर थे। पढाई लिखाई हुई नहीं। बहुत छोटी उम्र में पड़ोस के गांव में ब्याह दी गईं। पति-पत्नी दोनों आसपास के गांवों-शहरों में मजदूरी कर जीवन यापन करते रहे। भूरीबाई भील आदिवासी समुदाय की भित्ति चित्र परंपरा में प्रशिक्षित थीं।
आदिवासी कलाकार
घर की कच्ची दीवारों पर गेरु और दूसरे प्राकृतिक रंगों से चित्रकारी का यह हुनर उन्हें राजधानी ले आया। 1982-83 के दौरान भोपाल में भारत भवन का निर्माण चल रहा था। सरकार प्रदेश के अलग-अलग अंचलों से आदिवासी कलाकारों को बुलाकर यहां निर्माण में मदद ले रही थी। भूरी बाई के पति को भारत भवन में माली काम मिला और वे भी उनके साथ भोपाल आ गईं।
देवी-देवताओं के चित्र
यहां उन्होंने भारत भवन में मजदूरी करना शुरू किया। यहां उनकी मुलाकात कला गुरु जे. स्वामीनाथन से हुई। भील संस्कृति के देवी-देवताओं को समझने के क्रम में उन्होंने भूरीबाई और उनके पति से बात की। इस दौरान पता चला कि देवी-देवताओं के चित्र घर की दीवारों पर बनाने की परंपरा रही है। जे. स्वामीनाथन ने पहली बार भूरीबाई से देवी-देवताओं के चित्र कागज पर बनाने को कहा।
उंगलियों से बिंदी
भूरीबाई ने पांच दिनों में यह काम किया, जिसके लिए उन्हें पचास रुपये मिले। यहां से उनकी कला यात्रा शुरू हुई तो वह विश्व फलक तक पहुंची। भूरी बाई कहती हैं कि उनके चित्रों में भील जनजाति की सांस्कृतिक धरोहर, जंगल, पशु-पक्षी, और त्योंहार की मुख्य विषय हैं। इन चित्रों में छोटे आयताकार जानवर होते हैं, जिनमें उंगलियों से बिंदी लगाकर उन्हें जीवंत कर दिया जाता है।
अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी
1986 में ही मिला पहला सम्मान भूरी बाई कहती हैं कि उनकी कला को पहला सम्मान 1986 में ही मिला। इसके बाद 1998 में मप्र सरकार ने देवी अहिल्या सम्मान दिया। 2018 में उनके चित्रों की पहली अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी अमेरिका में लगी। बाद में उन्होंने उक्षिण अफ्रीका और जापान जैसे देशों में भी अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाई।

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