कर्मचारियों में काम के दौरान बढ़ता तनाव मौजूदा वक्त में कामकाजी दुनिया की एक बड़ी समस्या

दफ्तर कितने बजे खुलें वहां कितनी देर कामकाज हो कर्मचारियों के काम के घंटे हफ्ते में कितने हों और उन्हें प्रति सप्ताह कितने अवकाश मिलें? नए श्रम कानूनों के संदर्भ में एक बार फिर इसकी चर्चा शुरू हुई है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 04 Jul 2022 01:29 PM (IST) Updated:Mon, 04 Jul 2022 01:29 PM (IST)
कर्मचारियों में काम के दौरान बढ़ता तनाव मौजूदा वक्त में कामकाजी दुनिया की एक बड़ी समस्या
कर्मचारियों में काम के दौरान बढ़ता तनाव मौजूदा वक्त में कामकाजी दुनिया की एक बड़ी समस्या है। फाइल

अभिषेक कुमार सिंह। विश्व भर में दफ्तर के कायदों को लेकर काफी कुछ कहा-सुना जाता रहा है। दफ्तर कितने बजे खुलें, वहां कितनी देर कामकाज हो, कर्मचारियों के काम के घंटे हफ्ते में कितने हों और उन्हें प्रति सप्ताह कितने अवकाश मिलें? इन्हें लेकर काफी माथापच्ची होती रही है। एक तरफ काम और जीवन में संतुलन (वर्क-लाइफ बैलेंस) की बात होती है तो दूसरी तरफ इस पर विचार होता है कि कैसे उत्पादकता बढ़ाई जाए। इधर ऐसी ही एक चर्चा भारत में नए श्रम कानूनों (लेबर कोड) के तहत उठी है। बताया जा रहा है कि केंद्र सरकार बहुत जल्द सरकारी दफ्तरों के कामकाज के घंटों में परिवर्तन करने जा रही है।

अभी सरकारी दफ्तर आठ से नौ घंटे खुलते हैं, लेकिन हो सकता है कि नए नियमों के तहत काम के 12 घंटे तय कर दिए जाएं। इसका फायदा यह होगा कि कर्मचारियों को अवकाश के लिए हफ्ते में तीन दिन मिल सकेंगे। ऐसा बदलाव लेबर कोड के नए नियमों के तहत किया जा सकता है, जिसमें कर्मचारियों को आराम के लिए ज्यादा समय देने की बात कही गई है। हालांकि केंद्र सरकार ने इन बदलावों को लेकर फिलहाल कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया है, लेकिन माना जा रहा है कि इस परिवर्तन से देश में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और निवेश को भी बढ़ावा मिलेगा।

कुछ निजी कंपनियों के कर्ताधर्ता तो काम के घंटे बढ़ाने संबंधी विचार पहले ही व्यक्त कर चुके हैं। खासतौर से कोरोना महामारी के चलते कंपनियों को हुए घाटे की भरपाई और मुनाफे में बढ़ोतरी के मद्देनजर काम के घंटे बढ़ाने के बारे में सोचा जा रहा है। आइटी कंपनी इन्फोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति ने कुछ ही समय पहले काम के घंटे बढ़ाकर एक हफ्ते में 60 घंटे करने की बात कही थी। टेस्ला कंपनी के सीईओ एवं चर्चित कारोबारी एलन मस्क भी कामकाज के घंटों को बढ़ाने के बारे में दलीलें दे चुके हैं। उन्होंने हाल में एक प्रकार से चेतावनी देते हुए कहा है कि टेस्ला के कर्मचारी या तो हर हफ्ते कम से कम 40 घंटे दफ्तर में रहें या फिर इस्तीफा दें। मस्क का निशाना खासतौर से उन कर्मचारियों पर था, जो दफ्तर के बजाय घर या किसी अन्य स्थान से काम कर रहे थे। मस्क का कहना था कि अगर कर्मचारी कंपनी के हेड आफिस में उपस्थित नहीं होते हैं यानी दफ्तर में नहीं दिखाई देते हैं तो मान लिया जाएगा कि उन कर्मचारियों ने इस्तीफा दे दिया है। मस्क की तरह दुनिया के सबसे बड़े कारोबारियों की सूची में शामिल रहे चीन की ई-कामर्स कंपनी अलीबाबा के संस्थापक जैक मा ने भी कुछ समय पहले कहा था कि महज आठ घंटे की परंपरागत शिफ्ट में काम करने वालों की उनकी कंपनी में कोई जगह नहीं है। उन्होंने ‘996 फामरूला’ दिया था, यानी उनके वर्कर सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक, हफ्ते में छह दिन काम करें।

शोषण का हथियार तो नहीं: बेशक, कारोबारियों के लिए यह एक फायदे की बात है कि बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई के डर से लोग औसत घंटों से ज्यादा काम करने को तैयार हो जाएं, लेकिन इसके नकारात्मक प्रभावों का सामना करने के लिए भी उन्हें तैयार रहना होगा। असल में मौजूदा वक्त में कामकाजी दुनिया की सबसे बड़ी समस्या कर्मचारियों में काम के दौरान बढ़ते तनाव और नींद की कमी के रूप में पैदा हो गई है। इससे युवा कर्मचारियों तक की सेहत पर असर पड़ रहा है और वे हार्ट की बीमारियों, डायबिटीज और हाई ब्लड प्रेशर की चपेट में आ रहे हैं। नींद की कमी से तनाव, चिड़चिड़ापन और रोगों से लड़ने की शक्ति में कमी होना आम हो गया है। जो लोग दिन में सात-आठ घंटे से ज्यादा काम करते हैं, डाक्टरों के मुताबिक उनके शरीर के साथ-साथ दिमाग पर भी बुरा असर पड़ता है। ऐसे लोगों के तनाव का लेवल ज्यादा होता है, थकान और चिड़चिड़ापन के कारण परिवार को समय नहीं दे पाते हैं। उनके लाइफ स्पैन यानी लंबे समय तक जीवित रहने की संभावना कम हो जाती है।

कामकाज के घंटों का मानक: अब सवाल यह है कि आखिर किसी नौकरी में काम के घंटे का आदर्श पैमाना क्या है? इस मामले में दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग मानक निर्धारित हैं। जैसे तीन साल पहले वर्ष 2019 में न्यूजीलैंड की एक कंपनी ने अपने करीब 250 कर्मचारियों को हफ्ते में सिर्फ चार दिन आठ घंटे की शिफ्ट में काम करने को कहा। बताया गया कि इससे कर्मचारियों के तनाव में 16 प्रतिशत की कमी आई, वर्क-लाइफ बैलेंस में 44 प्रतिशत सुधार हुआ और कर्मचारियों की क्रिएटिविटी, काम के प्रति लगन आदि में इजाफा हुआ। उल्लेखनीय यह है कि इससे कंपनी की उत्पादकता में कोई गिरावट नहीं आई। दुनिया के अन्य देशों के उदाहरण भी यही बताते हैं कि वहां कर्मचारियों से प्रतिदिन औसतन आठ घंटे काम करने की अपेक्षा की जाती है। हालांकि इसके बदले में भी उन्हें कई सहूलियतें देने की कोशिशें होती रहती हैं। जैसे तीन साल पहले यूरोपियन कोर्ट आफ जस्टिस ने एक फैसले के तहत आफिस आने-जाने में लगने वाले समय को भी वर्किग टाइम में शामिल कर लिया था, ताकि कर्मचारियों की सेहत और सुरक्षा का ख्याल रखा जा सके। भारत और चीन जैसे देशों में बड़ी बेरोजगारी है। ऐसे में इन देशों में लोग मजबूरन 996 वर्क कल्चर बर्दाश्त करने को मजबूर हो सकते हैं। सवाल है कि क्या एक दिन यानी 24 घंटे में 10-12 घंटे और हफ्ते में चार या छह दिन काम करने से उत्पादकता वास्तव में बढ़ेगी? इसका जवाब नए लेबर कोड के लागू होने के बाद ही मिलेगा।

वहीं जापान जैसे देश में तो खुद जनता पर ही काम का जुनून सवार रहता है। जुनून भी इस हद तक है कि वहां इसके कारण यानी ज्यादा काम करने से लोगों की मौत तक हो जाती है। वहां इसके लिए एक शब्द इस्तेमाल किया जाता है ‘कारोशी’, जिसका मतलब है ‘काम के बोझ से मौत’। जापान का स्वास्थ्य मंत्रलय वर्ष 1987 से ऐसी मौतों का बाकायदा हिसाब रखता रहा है। वहां ‘कारोशी’ से मरने वाले व्यक्ति के परिवार को सालाना 20 हजार डालर घर खर्च के लिए मिलते हैं और जिस कंपनी का वह कर्मचारी होता है, वह कंपनी भी उसके परिवार को 16 लाख डालर का मुआवजा देती है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2015 में जापान में काम के बोझ से मरने वालों की तादाद 2,310 जा पहुंची थी। यह आंकड़ा वहां के स्वास्थ्य मंत्रलय का है। नेशनल डिफेंस काउंसिल फार विक्टिम्स आफ कारोशी के मुताबिक अब जापान में हर साल 10 हजार लोग कारोशी से मारे जाते हैं। कारोशी से जुड़ा एक चर्चित मामला टोक्यो के केंजी हमाडा का है, जो एक सिक्योरिटी कंपनी के कर्मचारी थे। वह 15 घंटे काम करते थे और वर्ष 2009 में महज 42 की उम्र में ड्यूटी पर ही चल बसे थे। उनकी मौत की वजह काम का बोझ ही थी।

विरोध में हैं श्रमिक संगठन: कामकाज के बढ़ते बोझ के मद्देनजर ज्यादातर मजदूर यूनियन ड्यूटी की शिफ्ट आठ के बजाय 10 या 12 घंटे करने के प्रस्ताव के विरोध में हैं। आशंका है कि ऐसे नियमों का हवाला देकर खास तौर से असंगठित क्षेत्र के कामगारों का शोषण किया जा सकता है। ट्रेड यूनियनों और श्रमिक मामलों के विशेषज्ञों के मुताबिक किसी बहाने काम के घंटे बढ़ाना कामगारों के अधिकारों के खिलाफ होगा। इसका सबसे ज्यादा असर उन कर्मचारियों और मजदूरों पर पड़ेगा, जो ठेके पर काम करते हैं। इससे कामगारों पर शारीरिक और मानसिक दबाव बढ़ेगा। साथ ही स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी बढ़ेंगी। ध्यान रहे कि लगभग पूरी दुनिया में काम के घंटों का सामान्य मानक आठ घंटे तय है। दुनिया के कई देशों में तो कंपनियों में फाइव डे वर्किग (हफ्ते में पांच दिन काम) यानी हफ्ते में 40 घंटे काम करने का नियम लागू है। इसके अतिरिक्त काम करने यानी ओवर टाइम करने पर उसका अलग से पैसा दिया जाता है।

मुमकिन है कि नए लेबर कोड के लागू होने से देश के सरकारी कर्मचारियों को एक अतिरिक्त छुट्टी का लाभ मिल जाए, लेकिन इससे निजी क्षेत्र की कई कंपनियों को अपने कर्मचारियों से ज्यादा काम लेने का तर्क मिल जाएगा। ऐसे में सरकारी कर्मचारियों के फायदे की नीति निजी क्षेत्र के कर्मचारियों की जिंदगी को कठिन करने की दिशा में मुड़ सकती है। इसलिए यह ख्याल रखना होगा कि 12 घंटे की शिफ्ट और हफ्ते में चार दिन काम की नीति कर्मचारियों के शोषण का हथियार न बन जाए। ऐसी किसी भी नीति को काफी सोचसमझकर ही लागू किया जाना चाहिए।

कामकाज का वक्त बदलने और हफ्ते में एक अतिरिक्त छुट्टी के कुछ ऐसे फायदे हैं, जो प्रत्यक्ष नहीं दिखते, लेकिन उनका असर बहुत सकारात्मक हो सकता है। जैसे हफ्ते में तीन दिन का अवकाश मिलने पर कर्मचारी परिवार सहित पर्यटन स्थलों के भ्रमण पर जा सकते हैं। इससे उस टूरिज्म और होटल इंडस्ट्री को बेशुमार लाभ हो सकता है, जिसने कोरोना महामारी में भारी घाटा उठाया है। इसी तरह हफ्ते में तीन दिन दफ्तर बंद रखने से बिजली की खपत में भी कमी आ सकती है।

इस समय भारत समेत पूरी दुनिया में ऊर्जा की खपत एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है, क्योंकि रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण कोयला, गैस और तेल की आपूर्ति का गणित गड़बड़ हो गया है। इसकी कीमत भी बढ़ गई है। एक फायदा यह है कि खास तौर से बड़े शहरों में जब सरकारी दफ्तर हफ्ते में चार दिन जल्दी खुलेंगे और देर से बंद होंगे तो सड़कों पर ट्रैफिक का दबाव घट जाएगा। अभी प्राय: आठ से 10 बजे सुबह और पांच से सात बजे शाम को शहरों की सड़कों पर ट्रैफिक व्यवस्था चरमरा जाती है। एक तय वक्त पर दफ्तरों में कामकाज शुरू होकर खत्म होने का अनुशासन सड़कों पर तो अराजकता ही पैदा कर देता है। सुबह आठ से दस बजे तक और शाम पांच से सात बजे तक न तो सड़कें खाली मिलती हैं और न ही लोकल ट्रेनों या मेट्रो में पैर रखने की जगह मिलती है। कुल मिलाकर यह एक सामाजिक और आर्थिक समस्या है, जिसके निदान के लिए स्थानीय जरूरतों के मुताबिक दफ्तरों की समय सारिणी में तब्दीली पर विचार किया जा सकता है। एक केंद्रित नजरिये से भी ऐसी समस्याओं का व्यावाहारिक हल तत्काल निकालने की जरूरत है, ताकि देश में तेज होते शहरीकरण के सामने पेश होने वाली दिक्कतों के समाधान समय रहते सुझाए जा सकें।

[संस्था एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध]

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