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    'मां भारती ने मुझे चुना...', परमवीर चक्र विजेता योगेंद्र सिंह यादव की जुबानी कारगिल की अनसुनी कहानी

    Updated: Mon, 21 Jul 2025 06:07 PM (IST)

    26 जुलाई 1999 को 8780 फीट ऊंची पहाड़ियों पर जब भारतीय जांबाज लोहे का सीना लेकर चढ़े और तिरंगा फहराया तो दुश्मन के इरादे और हौसले पस्त हो गए थे। आज भी वो यादें ताजा हैं उस युद्ध के जवानों के जेहन में। ‘आपरेशन विजय’ का हिस्सा रहे सूबेदार मेजर (मानद कैप्टन) योगेंद्र सिंह यादव ने आरती तिवारी के साथ शेयर किए हैं उस युद्ध से जुड़े अपने अनुभव...

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    Kargil Vijay Diwas 2025: आज भी ताजा हैं कारगिल युद्ध की यादें (Image Source: Freepik)

    जागरण न्यूज, नई दिल्ली। Kargil Vijay Diwas 2025: एक-चौथाई शताब्दी बीत गई मगर कल की ही बात लगती है। श्रीनगर-लेह को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग 1ए को खतरा पहुंचाने के लिए दुश्मनों ने घुसपैठ कर दी थी। पाकिस्तानी सेना नियंत्रण रेखा पर खाली पड़ी चोटियों से निशाना साध रही थी। भारतीय जवान जान हथेली पर रख दुश्मनों को सबक सिखाने चल पड़े, ताकि ऐसी हिमाकत दोबारा न हो सके।

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    कारगिल युद्ध में अदम्य साहस और वीरता के लिए सबसे कम उम्र (19 साल) में परमवीर चक्र से सम्मानित सूबेदार मेजर (मानद कैप्टन) योगेंद्र सिंह यादव भारतीय सेना से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। आपरेशन विजय के दौरान ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव को टाइगर हिल के तीन बंकर की जिम्मेदारी दी गई थी।

    मां भारती ने मुझे चुना

    सूबेदार मेजर योगेंद्र सिंह यादव बताते हैं, ‘कारगिल की दुर्गम पहाड़ियों पर हुए उस युद्ध में हमारे 527 जवानों ने प्राणाहुति दी। जब भी उस युद्ध की बात होती है तब उनका वो बलिदान याद आता है। दो रात और तीन दिन की चढ़ाई पूरी कर हम टाइगर हिल पर पहुंचे थे। पांच घंटे लगातार चली उस आमने-सामने की लड़ाई में करीब 30-40 दुश्मन सिपाही थे और हम सिर्फ सात।

    मैं लहूलुहान था, मेरा एक साथी मुझे फर्स्टएड कर रहा था कि एक गोली उसके सिर में आकर लगी, अगली गोली मेरे बगल में बैठे साथी के सीने में लगी और तीसरी गोली मेरे एक और साथी की गर्दन पर। उन पलों को मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा। दुश्मनों ने तीन गोलियां मेरे सीने पर भी चलाईं मगर यह मां भारती का मेरे लिए दुलार था कि उन्होंने मुझे संरक्षण दिया। मेरे पर्स में रखे पांच रुपये के चंद सिक्कों से गोली टकराकर क्षीण हो गई। तब मैंने दुश्मनों पर ग्रेनेड से हमला कर उनकी ही राइफल लेकर चार-पांच जगह लुढ़क–लुढ़ककर फायरिंग की और कई दुश्मनों को मौत के घाट उतार दिया।

    मैं महज 19 साल का था और मेरी दो साल की सर्विस थी। न उम्र और न ही अनुभव, सिर्फ जोश और जुनून था कि मैं वहां लड़ता रहा। उसी अवस्था में साथियों तक पहुंचा और दुश्मनों का पता–ठिकाना बताया। जिसके बाद टाइगर हिल पर विजय पताका फहराई और सीज फायर घोषित हुआ।’

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    देश हो सर्वोपरि

    आपरेशन विजय के पराक्रम को याद करते हुए सूबेदार मेजर योगेंद्र सिंह कहते हैं, ‘देश को सदा याद रखना चाहिए कि भारतीय सेना ने ऐसी दुर्गम पहाड़ियों पर युद्ध लड़ा और जीता भी। यह शौर्य और पराक्रम का दिवस है। आज हर हाथ में मोबाइल है, मगर बेहतर होगा कि हम रील में समय न गंवाकर देशसेवा में जुटें। बीते दिनों गद्दार यूट्यूबर्स के कई मामले सामने आए। यह हमारी जिम्मेदारी है कि यदि हमारे आस-पास कोई ऐसा देशद्रोह कर रहा है तो उसके प्रति सतर्क रहें। हमें लोभ-लालच त्यागकर देश को सर्वोपरि रखना होगा।’

    यह तकनीक का जमाना है

    आपरेशन विजय से लेकर आपरेशन सिंदूर तक में आए बदलाव को लेकर वे कहते हैं, ‘लड़ाई लड़ने के तरीकों ने इन 25 सालों में विकास किया है। आज तकनीक का युद्ध है। आपरेशन सिंदूर में हमने महज 22 मिनट में पाकिस्तान को घुटनों पर ला दिया। भारतीय सेना द्वारा ड्रोन हमले ने पाकिस्तान के 11 एयरबेस और नौ आतंकी अड्डों को नष्ट कर दिया और उनके एक भी हमले को सफल नहीं होने दिया। यह एक नया दौर है, एक नया भारत है!’

    राष्ट्रभक्ति का दें संस्कार

    16 महीने अस्पताल में रहकर और 25 साल सेना में सेवा करके बीते ढाई वर्ष में अब तक लाखों बच्चों व युवाओं तक स्कूल-कालेज के माध्यम से राष्ट्रप्रेम की ज्योति जागृत करने में सतत लीन हैं सूबेदार मेजर योगेंद्र सिंह यादव। वे कहते हैं, ‘यह हम सबका कर्तव्य है कि हम इस पीढ़ी को राष्ट्र के प्रति समर्पण व देश का सम्मान करना अवश्य सिखाएं। जो बलिदान हो चुके हैं उनके शौर्य को जीवित रखना हमारी जिम्मेदारी है।

    बच्चों में देशसेवा और राष्ट्रभक्ति के संस्कार रोपित किए जाने चाहिए। जिस प्रकार बाकी विषयों में पास होने के लिए अंक मिलते हैं, ठीक वैसे ही सैन्य शिक्षा में भी व्यवस्था हो। हर किसी को फौजी ट्रेनिंग नहीं दे सकते, मगर एनसीसी या एनएसएस के माध्यम से वह अनुशासन व राष्ट्रभक्ति जागृत की जा सकती है। यह ट्रेनिंग जीवन की कठिनाई, वास्तविकता और चुनौतियों से डटकर मुकाबला करने के बारे में सिखाती है।’

    अभी बाकी है दूरी

    कारगिल पर बनी फिल्मों को लेकर योगेंद्र सिंह कहते हैं, ‘सिनेमा वास्तविकता तो नहीं दिखा सकता, हां, वह उसके निकट पहुंच पाता है। युद्ध को चलचित्र पर लाना कठिन है, लेकिन हां, ये फिल्में राष्ट्रभक्ति की अलख अवश्य जगा जाती हैं।’

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