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    उत्तराखंड और हिमाचल में भारी तबाही, क्‍या है इसकी बड़ी वजह? जानें सब कुछ

    हिमालयी क्षेत्र में बादल फटने और बाढ़ की बढ़ती घटनाओं का कारण जलवायु परिवर्तन और मानवीय हस्तक्षेप है। उत्तराखंड जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में हाल ही में हुई तबाही इसका उदाहरण है। अवैध निर्माण अनियमित बारिश और ग्लेशियरों के पिघलने से खतरा बढ़ रहा है। केदारनाथ त्रासदी के बाद भी जरूरी कदम नहीं उठाए गए जिससे भविष्य में भी ऐसी आपदाएं हो सकती हैं।

    By Jagran News Edited By: Vrinda Srivastava Updated: Mon, 25 Aug 2025 10:05 AM (IST)
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    पहाड़ी इलाकों में क्‍यों हो रही इतनी घटनाएं (Image Credit- Jagran)

     लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। धराली से थराली तक हिमालयी इलाके से हर दिन आ रही दुखद खबरें साफ बताती हैं कि अब बादल फटने और बाढ़ आने जैसी घटनाएं सिर्फ पारंपरिक संवेदनशील क्षेत्रों तक सीमित नहीं रह गई हैं। बदलते मौसम और जलवायु ने नए खतरे वाले इलाके बना दिए हैं। इस विनाश के पीछे मानवीय हस्तक्षेप के साथ-साथ यहां की पहाड़ी बनावट और जल-प्रवाह से जुड़ी परिस्थितियां भी बड़ी वजह हैं।

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    5 अगस्त को उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में जो हुआ, वह सिर्फ प्राकृतिक आपदा नहीं थी, बल्कि विज्ञान, पर्यावरण और इंसानी लापरवाही का मिला-जुला असर था। इसके बाद 14 अगस्त को जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ इलाके में मचैल माता मंदिर जाने वाले रास्ते पर बसे चिसोटी गांव को बादल फटने ने तबाह कर दिया।

    अभी लोग इन घटनाओं से संभल ही रहे थे कि 17 अगस्त को कठुआ जिले में बादल फटने और भूस्खलन से कई लोगों की जान गई और कई घायल हो गए। ये हादसे राजबाग और जंगलोट के जोध घाटी गांवों में भारी बारिश के बीच हुए। इसी तरह हिमाचल प्रदेश के मंडी में भी बादल फटने से तबाही हुई। बचाव कार्य चल ही रहे थे कि शुक्रवार को उत्तराखंड के चमोली जिले के थराली गांव में भी बादल फटने से लोग दहशत में आ गए।

    ये घटनाएं सिर्फ प्राकृतिक त्रासदी नहीं हैं, बल्कि इंसानों की गलतियों और जलवायु परिवर्तन के खतरनाक संकेत भी हैं। पश्चिमी हिमालय में हाल की घटनाओं ने साफ कर दिया है कि जलवायु परिवर्तन अब भविष्य की चेतावनी नहीं बल्कि वर्तमान का संकट है। बादल फटना एक प्राकृतिक घटना है, लेकिन जब पानी निकलने के रास्तों पर अवैध निर्माण हो जाते हैं, तो पानी का बहाव रुकता है और तबाही बढ़ जाती है। यह इंसानों की लापरवाही से खुद आपदा को न्योता देने जैसा है।

    बढ़ता खतरा

    हिमालयी क्षेत्रों में तापमान बढ़ने और अनियमित बारिश के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इससे नई झीलें बन रही हैं और उनके टूटने से बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है। साल 2025 तक भारत में ऐसे 300 से ज्यादा स्थान चिन्हित किए गए हैं जहां हिमनद झील के फटने की आशंका है।

    इसके अलावा सड़कों का चौड़ीकरण, मशीनों से कटाई, सहारा देने वाली दीवारों (रिटेनिंग वाल) की कमी और नदियों में मलबा डालने जैसी इंसानी गतिविधियां भी प्राकृतिक आपदाओं के खतरे बढ़ा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद निर्माण कार्यों पर रोक नहीं लग पाई है। इसी वजह से यह क्षेत्र लगातार जलवायु जोखिम का हॉटस्पॉट बन गया है।

    बार-बार चूक

    सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश में बढ़ते अंधाधुंध पर्यटन और लापरवाही को लेकर चिंता जताई है। अदालत ने यह भी कहा कि हर आपदा के लिए सिर्फ प्रकृति को दोष देना गलत है। कोर्ट ने चेतावनी दी कि अगर यह हालात ऐसे ही चलते रहे तो हिमाचल प्रदेश मानचित्र से गायब हो सकता है।

    केदारनाथ त्रासदी के बाद भी हिमालय की सुरक्षा के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए गए। सरकारें विज्ञान आधारित नीतियों और भूगर्भ विशेषज्ञों की चेतावनियों को नजरअंदाज करती रही हैं, जिससे भविष्य में भी ऐसी आपदाएं दोहराई जा सकती हैं।

    पुरानी समझ, नई लापरवाही

    पहले समय में हिमालयी क्षेत्रों के लोग प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर रहते थे। उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक यात्राएं भी प्रकृति को समझने का जरिया थीं। लेकिन अब पर्यटन के बढ़ते रुझान ने न सिर्फ पुरानी परंपराएं बदलीं बल्कि प्राकृतिक आपदाओं और मानव सुरक्षा के खतरे भी बढ़ा दिए। भूगर्भशास्त्रियों की चेतावनियों के बावजूद सरकारें पर्यटन को प्राथमिकता देती हैं और क्षेत्र की संवेदनशीलता को नजरअंदाज करती हैं।

    (लेखक हैं विशेष सचिव, उत्तर प्रदेश शासन)

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