तालपत्र से डिजिटलीकरण तक, भारत की पांडुलिपि धरोहर को बचाने की बड़ी पहल
भारत की ज्ञानयात्रा मौखिक परंपरा से प्रारंभ हुई और इसने लिपि तथा लेखन से विस्तार पाया। विभिन्न रूपों में उत्कीर्ण सहस्राब्दियों की इस धरोहर को आधुनिक तकनीक से संरक्षित किया जाना क्यों आवश्यक है, बता रहे हैं डॉ. रमेश चंद्र गौड़।

भारतीय संस्कृति की धरोहर हैं पांडुलिपियां (Picture Courtesy: Freepik)
डॉ. रमेश चंद्र गौड़, नई दिल्ली। भारत केवल एक भौगोलिक इकाई या राजनीतिक संरचना नहीं है। यह एक सभ्यता है, जिसकी जड़ें हजारों वर्षों पीछे जाती हैं। यह वही भूमि है, जहां श्रुति और स्मृति की परंपरा ने ज्ञान का प्रवाह आरंभ किया। ऋषि-मुनियों ने अनुभव, साधना और दृष्ट ज्ञान को शिष्यों तक वाणी के माध्यम से पहुंचाया।
यह मौखिक परंपरा सहस्राब्दियों तक चली और पीढ़ी-दर-पीढ़ी भारत के आत्मा को पोषित करती रही। जैसे-जैसे समय बदला, ज्ञान को स्थायित्व और विस्तार की आवश्यकता हुई। तब लिपि और लेखन का उद्भव हुआ और वहीं से शुरू हुई भारत की वह यात्रा जिसने उसे स्मृति से पांडुलिपि तक पहुंचाया। यही पांडुलिपियां आज हमारे सामने भारत की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में विद्यमान हैं।
बौद्धिक इतिहास के साक्ष्य
उपलब्ध पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर भारत की लिपियों का इतिहास यद्यपि सिंधु घाटी की सभ्यता से शुरू होता है, तथापि ब्राह्मी लिपि ने भारत को साझा बौद्धिक पहचान दी। सम्राट अशोक के शिलालेख, गुप्तकालीन ब्राह्मी, कुटिला और नागरी लिपि- ये सब भारत के बौद्धिक इतिहास की साक्षी हैं। लेखन सामग्रियों में पत्र, तालपत्र, भोजपत्र, सांचीपत्र (अगुरु), तुलापत्र, काष्ठफलक, वस्त्र, चर्म तथा इनके अतिरिक्त भी पाषाण, मृण्मयपात्र, ताम्रपत्र, स्वर्णपत्र, रजतपत्र एवं अन्य धातुओं पर लेखन की परंपरा मिलती है। ये केवल लिखने की सामग्री नहीं थे, बल्कि भारत की परिस्थितियों और रचनात्मकता के साक्ष्य हैं।
सांस्कृतिक विविधता का परिचय
पांडुलिपि अर्थात् पुरातन काल से प्रवहमान लेखन की परंपरा। ‘पांडुलिपि’ शब्द केवल हस्तलिखित ग्रंथ का द्योतक नहीं है, बल्कि यह भारत की बौद्धिक और सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक है। आज भारत में अनुमानित एक करोड़ पांडुलिपियां विद्यमान हैं। यह विभिन्न भारतीय भाषाओं, विभिन्न लिपियों तथा विविध विषयों पर आधरित हैं। इनकी भाषायी और विषयगत विविधता देश की सांस्कृतिक विविधता का परिचय देती है।
परिरक्षण करने की बड़ी पहल
पांडुलिपियों के परिरक्षण करने की आवश्यकता को समझते हुए इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र द्वारा पांडुलिपियों को माइक्रोफिल्मों पर उतारने का कार्य सितंबर 1989 में शुरु किया गया था। इसके अंतर्गत वर्तमान तक लगभग तीन लाख पांडुलिपियों की 22 हजार माइक्रोफिल्म्स के साथ-साथ लगभग सभी का डिजिटल कार्य पूरा हो चुका है। यह भी उल्लेखनीय है कि पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा वर्ष 2003 में पांडुलिपियों के लिए राष्ट्रीय मिशन की स्थापना की गई थी। इसके अंतर्गत अभी तक लगभग 45 लाख पांडुलिपियों को चिह्नित कर मेटा डाटा तैयार किया गया है।
2025-26 के बजट भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा ‘ज्ञान-भारतम्’ मिशन की घोषणा करते हुए कहा गया कि भारत की पांडुलिपि धरोहर को संरक्षित करना और उसे आधुनिक तकनीक से जोड़ना नए भारत की पहचान बनेगा। इस मिशन का पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 11-13 सितंबर 2025 तक नई दिल्ली में आयोजित किया गया। मुझे इस कार्यक्रम के समन्वयक के रूप में कार्य करने का सौभाग्य मिला। पांडुलिपियों का संरक्षण और पुनरुद्धार, सर्वेक्षण और प्रलेखन मानक, डिजिटलीकरण उपकरण और प्लेटफार्म, एआई-संचालित नवाचार, पांडुलिपि विज्ञान में क्षमता निर्माण, कापीराइट और कानूनी मुद्दे इत्यादि इस सम्मेलन के विविध विषय थे।
आधुनिक विश्व के लिए कई समाधान
आज दुनिया स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों, पर्यावरणीय विघटन और आर्थिक अस्थिरता से जूझ रही है। ऐसे समय में भारत की पांडुलिपियां विश्व को नए समाधान दे सकती हैं। आयुर्वेद और योग स्वास्थ्य क्षेत्र को नई दिशा दे सकते हैं। शुल्बसूत्र और वैदिक गणित आधुनिक शिक्षा को सशक्त बना सकते हैं। भरतमुनि का नाट्यशास्त्र विश्व रंगमंच को समृद्ध कर सकता है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था को गहन समझ दे सकता है। विज्ञान के क्षेत्र में भी पांडुलिपियां नई क्रांति ला सकती हैं। जब भारत अपनी पांडुलिपियों को आधुनिक तकनीक, वैश्विक साझेदारी और शिक्षा-समाज से जोड़ेगा, तब यह केवल अपनी सांस्कृतिक पहचान को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता को दिशा देने वाला बनकर पुनः प्रतिष्ठित होगा!
(लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में प्रोफेसर एवं कलानिधि विभाग के प्रमुख हैं)

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।