Earth And Environment: पृथ्वी को चाहिए पुराना सम्मान, संसाधनों के दोहन से संकट में सबका जीवन
विकास के नाम पर मनुष्य ने इतना दोहन किया है पृथ्वी के संसाधनों का कि अब संकट में है सबका जीवन। यदि मानव प्रजाति को बचाना है तो दुनिया के सभी देशों को अपनी उन प्राचीन परंपराओं की ओर लौटना होगा जो पृथ्वी की स्तुति ही नहीं बल्कि रक्षा भी करती थीं। आइए इस आलेख में इसे विस्तार से जानते हैं। बता दें लेखक पद्मभूषण से सम्मानित पर्यावरण कार्यकर्ता हैं।

अनिल प्रकाश जोशी, नई दिल्ली। मानव सभ्यता की प्रारंभिक अवस्था में पृथ्वी पूर्णतः संतुलित थी। आवश्यकता और वहन क्षमता के मध्य सामंजस्य था। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप जो कुछ भी चाहता था, पृथ्वी उसे बिना किसी बोझ के सह लेती थी।
यह वह कालखंड था जब हम वनवासी थे और वनों से ही अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। वन्यजीवों के साथ हमारा सहअस्तित्व था और प्रकृति के साथ गहरा संतुलन विद्यमान था।
परंतु, लगभग दस हजार वर्ष पूर्व एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया, जब मनुष्य ने वनवासी जीवन त्यागकर कृषक के रूप में एक नई सभ्यता की नींव रखी।
यह सुविधा की ओर पहला कदम था, क्योंकि अब वनों में भटकने या प्राकृतिक आपदाओं के कारण भोजन की अनिश्चितता से मुक्ति मिलनी थी।
मनुष्य ने कृषि को अपनाया और यही वह प्रथम चरण था जिसने पृथ्वी के पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ना शुरू कर दिया। क्योंकि धीरे-धीरे यही सुविधाएं विलासिताओं में परिवर्तित होती गईं।
घर-बार, सड़क, ढांचागत विकास, ठाठ-बाट धीरे-धीरे मनुष्य की प्रवृति का हिस्सा बन गई। इसी क्रम में समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया-शहर और गांव, अर्थात प्रबंधन और उत्पादन भी अलग-अलग हो गए।
पृथ्वी स्तुति की पवित्र प्रथाएं
इन परिवर्तनों के बीच, जब नई सभ्यताएं विकसित हो रही थीं, तब भी पृथ्वी की आराधना जारी थी। सूर्य, नदी, आकाश, भूमि के प्रति दैवीय भाव था। इनके नमन से ही दिन की शुरुआत होती थी।
यह प्रथाएं आज भी दुनिया में जनजातियों के बीच जीवित हैं क्योंकि आज भी इनकी प्रकृति पर प्रत्यक्ष निर्भरता स्पष्ट है। यह जनजातियां ही इसकी आज तक सच्ची पहरेदार भी हैं।
पूर्व में, विश्व की सभी जनजातियां पृथ्वी की स्तुति करती थीं। स्थिति यह थी कि भूमि पर कोई भी कार्य करने से पहले उसे नमन किया जाता था, जिसकी परंपरा आज भी सीमित रूप में विद्यमान है।
सनातन धर्म में प्रातः उठकर पृथ्वी पर चरण रखने से पूर्व क्षमा याचना ‘समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले। विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे॥’ की प्रथा आज भी विद्यमान है।
‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ के सिद्धांत को हम इसलिए मानते थे क्योंकि पृथ्वी के कारण ही हमारा अस्तित्व और जीवन संभव है।
आज भी भूमि पूजन, नदी, कुएं और तालाबों को प्रणाम करना ग्रामीण संस्कृति का अभिन्न अंग है। यही क्यों, अमेरिका के रेड इंडियंस जब भी कृषि कार्य के लिए उद्यत होते थे, वे सदैव पृथ्वी की पूजा करते थे।
यह परंपरा आज भी विश्व की अनेक जनजातियों में देखी जा सकती है, क्योंकि उनका सीधा संबंध पृथ्वी, जल और वनों से था। इन्हीं से उनका जीवन चलता था, इसलिए इन्हें प्रणाम करना उन्हें अपना पहला कर्तव्य लगता था।
प्राचीन ज्ञान ही बचाएगा प्राण
हम पृथ्वी भाव से तब अधिक दूर हो गए जब गांव खाली होने लगे और शहरों का विस्तार होने लगा। अब गांव हो या शहर, सभी सुविधा और नए उत्पादों के उपभोक्ता बन गए हैं, और यहीं से असंतुलन का आरंभ हुआ।
इसके बावजूद आज भी पृथ्वी और प्रकृति के महत्व की समझ गांवों में ही बची है। इसके विपरीत, शहर भोगवादी सभ्यता के अनुयायी हो गए हैं क्योंकि उन्हें नदियों, तालाबों या वनों से प्रत्यक्ष लाभ नहीं दिखता; उनके लाभ उद्योगों, नौकरियों और अन्य सुविधाओं से जुड़े हैं, जो वैज्ञानिक क्रांति की देन रही।
प्रश्न यह है कि भविष्य में सब कुछ साथ लेकर कैसे चलें? यदि पृथ्वी को बचाना है, तो दुनिया के सभी देशों को अपनी उन प्राचीन परंपराओं की ओर लौटना होगा जो पृथ्वी की स्तुति ही नहीं, बल्कि रक्षा भी करती थीं।
इनमें वो मौलिक ज्ञान है जो पृथ्वी में संतुलन की भाषा को समझा सकता है। यह सब दुनिया के हर धार्मिक ग्रंथ और परंपरा में किसी न किसी रूप में उपलब्ध है।
अपने ही देश में ऋषि-मुनियों, गीता और रामायण जैसे ग्रंथों में प्रकृति के संरक्षण और उससे उचित व्यवहार की समीक्षा के पर्याप्त उदाहरण हैं। श्रीरामचरितमानस में भी इंगित है ‘छिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम सरीरा॥’ अब यदि कहीं बचाव संभव है, तो हमें ग्रामोन्मुखी होना होगा, और गांव के प्रकृति-आधारित विज्ञान को ही अपना मार्गदर्शक बनाना होगा।
अपने देश के संदर्भ में तो यह और भी अधिक महत्वपूर्ण है कि जहां हमने एक ओर पश्चिमी सभ्यता के विकास माडल को अपनाया वहीं दूसरी ओर हमारे विज्ञान और उद्योग उसी दिशा में समर्पित रहे जिससे जीवन को बेहतर बनाया जा सके।
संपन्नता के बदले समीकरण
सत्रहवीं शताब्दी में वैज्ञानिक क्रांति से पहले विश्व में दक्षिणी गोलार्ध को सर्वाधिक संपन्न और समृद्ध माना जाता था क्योंकि एशिया, अफ्रीका और चीन जैसे देशों में प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध थे।
परंतु वैज्ञानिक क्रांति के पश्चात वे राष्ट्र समृद्ध होने लगे जिन्होंने दूसरों के संसाधनों का प्रबंधन करके नए बाजारों का सृजन किया।
इस प्रकार, एक खास वर्ग की जल, जंगल और जमीन पर सीधी निर्भरता समाप्त होकर मशीनरी, उद्योगों और बाजारों पर केंद्रित हो गई। और ये ही वह शहर-समाज बने जो पृथ्वी के प्रति असंवेदनशील हो गए!
अस्तित्व की कीमत पर कैसी विलासिता
हर व्यक्ति को हवा, मिट्टी, जंगल और पानी चाहिए ही और सभी प्रकार की सुविधाएं भी भोगना चाहता है, ऐसे में दोनों को साथ लेकर चलना ही चुनौती है।
प्रत्येक व्यक्ति और संगठन-समाज को अब पृथ्वी संरक्षण के प्रति समझ विकसित करने की आवश्यकता है। सरकार ने पानी के लिए ‘कैच द रेन’ ‘अमृत सरोवर’ जैसी कुछ योजनाओं का प्रयास किया है, और वन संरक्षण की पुरानी विधियों पर सोचना शुरू किया है।
बड़ी प्रलय पाताल पहुंचा देगी!
मां को समर्पित एक वृक्ष इनमें प्रमुख है लेकिन इन्हें और व्यावहारिक-व्यापक रूप देना आवश्यक है। यह सुनिश्चित करना होगा कि सबको उपभोग और संरक्षण के प्रयासों से जोड़ा जाए, चाहे वह शहर का हो या गांव का।
तभी शायद हम आने वाले समय में पृथ्वी को कुछ दे पाएंगे। और अगर कुछ ना हो सके, तो शहर अपनी विलासिताओं में ही कटौती कर लें जो उनका इस दिशा में बड़ा योगदान भी होगा।
अन्यथा हमने पृथ्वी से इतना अधिक ले लिया है कि वह एक ऐसे असंतुलन की स्थिति में पहुंच चुकी है कि कभी भी एक बड़ी प्रलय हमें पाताल में पहुंचा देगी!
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