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    LED और स्मार्टफोन ने बदल डाली नींद की परिभाषा, आधुनिक चकाचौंध से कन्फ्यूज हुए शरीर के प्राकृतिक संकेत

    Updated: Mon, 27 Oct 2025 08:55 AM (IST)

    क्या आपने कभी सोचा है कि हमारी नींद, मूड और यहां तक कि महिलाओं का मासिक धर्म चक्र (Menstrual Cycle) चंद्रमा की चाल से क्यों जुड़ा हुआ लगता है? जवाब है- हमारे शरीर की आंतरिक 'लूनर क्लॉक' (Internal Lunar Clock)। जी हां, यह एक ऐसी अंदरूनी ताल है जो लगभग 29.5 दिन के लूनर साइकिल के साथ तालमेल बिठाती है। यह सिर्फ इंसानों में नहीं, बल्कि कई जानवरों में नींद, प्रजनन और प्रवास जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं को भी नियंत्रित करती है।

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    आधुनिक चकाचौंध में खो गई शरीर की 'चंद्र घड़ी' (Image Source: Freepik)

    एजेंसी, नई दिल्ली। हम सबके भीतर एक अदृश्य घड़ी चलती है, जो न तो मोबाइल की बैटरी पर चलती है, न किसी ऐप पर। यह है 'लूनर क्लॉक', जो हमारे शरीर की कई प्रक्रियाओं को चांद की 29.5 दिन की लय के अनुसार संचालित करती है, लेकिन आधुनिक युग की चकाचौंध- शहरों की लाइटें, स्क्रीन की चमक और रात को भी दिन बना देने वाले सैटेलाइट ने इस प्राकृतिक तालमेल को गड़बड़ा दिया है।

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    क्या है यह ‘लूनर क्लॉक’?

    जैसे हमारी सर्केडियन रिदम (Circadian Rhythm) पृथ्वी के 24 घंटे के दिन-रात के चक्र से जुड़ी होती है, वैसे ही लूनर क्लॉक चांद के चक्र से जुड़ी है। कई जीव-जंतु, समुद्री प्रजातियां और यहां तक कि मनुष्य भी लंबे समय तक इसी लय पर चलते आए हैं। यह हमारी नींद, प्रजनन, और ऊर्जा के स्तर तक को प्रभावित करती है।

    रोशनी बढ़ने से टूटा तालमेल

    आर्टिफिशियल लाइट के युग ने इस प्राकृतिक तालमेल को बिगाड़ दिया है। एक शोध में पाया गया कि जैसे-जैसे दुनिया में रात का अंधेरा घटता जा रहा है, वैसे-वैसे हमारे जैविक संकेतक भी कमजोर हो रहे हैं। पहले जहां चांद का बढ़ना-घटना हमारे शरीर की प्रक्रियाओं को दिशा देता था, अब वह प्रभाव शहरी चमक में खो गया है।

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    चांद और नींद का गहरा रिश्ता

    2021 में अर्जेंटीना के टोबा समुदाय पर किए गए एक अध्ययन ने दिखाया कि पूर्णिमा से तीन से पांच दिन पहले लोग देर से सोते हैं और कम नींद लेते हैं। यही प्रभाव सिएटल जैसे बड़े शहरों में भी देखा गया, हालांकि कमजोर रूप में। इसका मतलब साफ है: बिजली की रोशनी चांद के प्रभाव को दबा सकती है, मिटा नहीं सकती।

    चांद का असर सिर्फ रोशनी से नहीं, गुरुत्वाकर्षण से भी

    वैज्ञानिकों का मानना है कि हमारी नींद का पैटर्न सिर्फ चांदनी की रोशनी से नहीं, बल्कि चांद के गुरुत्वीय खिंचाव से भी प्रभावित होता है। हर महीने दो बार जब यह खिंचाव सबसे अधिक होता है। पूर्णिमा और अमावस्या के समय तो शरीर की जैविक घड़ी हल्का-सा बदलाव महसूस करती है।

    नींद में बदलाव के वैज्ञानिक प्रमाण

    2013 में किए गए एक प्रयोग में पाया गया कि पूर्णिमा के दौरान प्रतिभागियों को सोने में लगभग पांच मिनट अधिक समय लगा, वे करीब बीस मिनट कम सोए और उनके शरीर में नींद नियंत्रित करने वाला हार्मोन मेलाटोनिन कम उत्पन्न हुआ। यही नहीं, उनके दिमाग की गहरी नींद वाली तरंगें (EEG slow-wave activity) भी लगभग 30% कम थीं।

    महिलाओं के मासिक चक्र और चांद की लय

    पुराने समय में जब न बिजली थी न स्क्रीन, तब कई महिलाओं का मासिक चक्र पूर्णिमा या अमावस्या के आसपास शुरू होता था, लेकिन 2010 के बाद जब एलईडी लाइटिंग और स्मार्टफोन आम हो गए, यह प्राकृतिक सामंजस्य धीरे-धीरे गायब हो गया। केवल कुछ महीनों, खासकर जनवरी के दौरान, इसका हल्का असर अब भी देखा जा सकता है।

    कृत्रिम रोशनी ने बदल दी रात की परिभाषा

    आज की दुनिया में ऐसे शहर हैं- जैसे सिंगापुर या कुवैत, जहां रातें कभी पूरी तरह अंधेरी नहीं होतीं। आसमान तक फैली चमक ने हमारे शरीर के पुराने ‘चांद संकेतों’ को लगभग समाप्त कर दिया है। यही कारण है कि बहुत से लोग बिना किसी वजह के बेचैनी, नींद की कमी या मूड स्विंग्स का अनुभव करते हैं, बिना यह जाने कि असली कारण प्रकृति से टूटा यह रिश्ता है।

    क्या कहता है विज्ञान?

    जेनेटिक अध्ययनों से पता चला है कि मनुष्यों में अब भी एक आंतरिक लूनर क्लॉक मौजूद है। यह कई घड़ी-संबंधी जीन से जुड़ी हुई है, जो संकेत देता है कि चांद का प्रभाव हमारी कोशिकाओं के आणविक स्तर तक फैला हुआ है।

    प्रकृति की लय से वापस जुड़ना है जरूरी

    हम अपने शरीर की इस खोई हुई लय को पूरी तरह मिटा नहीं सकते, लेकिन उसे फिर से महसूस करना संभव है, अगर हम आर्टिफिशियल लाइट से कुछ दूरी बनाएं। रात में मोबाइल स्क्रीन को सीमित करें, बेवजह उजाले में न रहें, और कभी-कभी बिना किसी रोशनी के आसमान की ओर देखें। क्योंकि जब चांद अपनी धीमी लय में चलता है, तो हमारा शरीर भी उसी की भाषा में जवाब देता है।

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