सनातन आस्था का आदिवासी पर्व है राजा दशहरा, राम-रावण से नहीं, बल्कि देवी दंतेश्वरी से जुड़ा है नाता
बस्तर में आयोजित होने वाले इस पर्व का नाम भले ही दशहरा है लेकिन इसका संबंध रावण-दहन या राम कथा से बिल्कुल नहीं है। माता दंतेश्वरी के भिन्न शक्ति रूपों का आशीर्वाद पाने के लिए 75 दिनों तक चलने वाले इस आयोजन में सनातन गौरव भाव से शामिल होते हैं आदिवासी।

अनिमेष पाल, नई दिल्ली। जब देशभर में दशहरा रावण दहन और विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है, तब छत्तीसगढ़ का बस्तर अपनी विशिष्ट परंपरा से अलग पहचान बनाता है। यहां का दशहरा राम-रावण की कथा से नहीं जुड़ा है। 75 दिनों तक चलने वाला यह पर्व जनजातीय आस्था, सदियों पुरानी संस्कृति तथा प्रकृति से आदिवासी समाज के गहरे संबंध को अभिव्यक्त करता है, जो जनजातीय जीवन और सनातन विश्वास का जीवंत प्रमाण है।
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फिर क्यों पड़ा यह नाम
यह बड़ा सवाल है कि जब 'बस्तर दशहरा' का रावण से कोई संबंध नहीं, तो इसे 'दशहरा' क्यों कहा जाता है? राज परिवार के सदस्य कमलचंद्र भंजदेव बताते हैं, 'आदिवासी इसे अपनी स्थानीय बोली में 'राजा दशहरा' कहते थे। यह नाम शायद त्योहार की अवधि या इसके महत्वपूर्ण अनुष्ठानों की ओर इशारा करता था।' दरअसल, ब्रिटिश शासन के दौरान जब 19वीं शताब्दी के अंत में प्रशासनिक रिकार्ड तैयार अधिकारियों ने इसे 'दशहरा' नाम दिया, क्योंकि यह समय देश के बाकी हिस्सों में मनाए जाने वाले दशहरा के साथ मेल खाता था। यहां 'दशहरा' धार्मिक कथा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और भौगोलिक संयोग का प्रतीक बन गया।'
स्थानीय देवी-देवताओं को समर्पित
बस्तर दशहरा बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी और अन्य स्थानीय देवी-देवताओं को समर्पित है। इसका आरंभ 1412 ईस्वी में चालुक्य वंश के राजा पुरुषोत्तम देव ने किया था। राजा जब जगन्नाथपुरी की यात्रा से लौटे, तो उन्हें 'रथपति' की उपाधि मिली और तबसे रथयात्रा शुरू हुई। धीरे- धीरे यह भव्य वार्षिक उत्सव बन गया, जो आज भी राजपरिवार और पुजारियों के मार्गदर्शन में आयोजित होता है।
75 दिनों की इस लंबी आध्यात्मिक यात्रा में सबसे पहले पाट जात्रा का आयोजन होता है। इसमें रथ बनाने के लिए जंगल से लकड़ी लाने के लिए माचकोट, राजूर, लेंड्रा जैसे कई गांवों के जनजातीय समुदाय जाते हैं। बेड़ाउमरगांव और झारउमरगांव के 150 से अधिक कारीगर सिरहासार भवन में रुककर रथ का निर्माण करते हैं। रथ खींचने के लिए सियाड़ी बेल की छाल से रस्सी बनाई जाती है। हर रस्म में आदिवासी परंपराओं के अनुसार देसी महुए की शराब, मोंगरी मछली, अंडा और बकरे की बलि देकर देवी से अनुमति ली जाती है।
काछिन देवी और जोगी की तपस्या
रथ तैयार होने के बाद नवरात्र से एक दिन पहले काछिनगादी रस्म होती है। इसमें कुंवारी आदिवासी कन्या, जिन्हें रण की देवी काछिन देवी का अवतार माना जाता है, बेल- कांटे के झूले पर झूलकर त्योहार शुरू करने की अनुमति देती है। यह रस्म आदिवासियों की प्रकृति और देवी-देवताओं में अटूट आस्था को दर्शाती है। नवरात्र के दौरान जोगी बिठाई की रस्म होती है। आमाबाल गांव की हल्बा जनजाति का युवक तलवार लेकर सिरहासार भवन में चार फीट गहरे गड्ढे में नौ दिन केवल जल ग्रहण कर तपस्या करता है। पहले यह कार्य राजा करते थे, लेकिन अब यह जिम्मेदारी जोगी परिवार को मिली है।
जनजाति के सहारे पूरी होती रथ यात्रा
नवरात्र की द्वितीया से सप्तमी तक फूल रथ की परिक्रमा शुरू होती है। मां दंतेश्वरी के छत्र को मंदिर से रथ पर बैठाकर जनता के बीच लाया जाता है ताकि सबको उनका आशीर्वाद मिले। रथ खींचने का कार्य माड़िया जनजाति के लोगों को सौंपा गया है। मुरिया जनजाति रथ की सुरक्षा करती है। आखिरी रथ परिक्रमा को ' बाहर रैनी' कहा जाता है। पहले राजा रथ पर योगी के रूप में सवार होते थे। अब प्रधान पुजारी रथ पर आरूढ़ होते हैं। कुटुंब जात्रा के साथ देवी की विदाई होती है।
निशा जात्रा और मावली परघाव
महाअष्टमी तिथि को आधी रात्रि में निशा जात्रा और बलि पूजा होती है। अनुपमा चौक स्थित स्तंभेश्वरी देवी के मंदिर में मां दंतेश्वरी और मां मानिकेश्वरी देवी का वास माना जाता है। राजमहल से पालकी में सवार राजा, सिरहा और पुजारी निशा- जात्रा स्थल पहुंचते हैं। आदिवासी वाद्य यंत्रों की ध्वनि रहस्यमयी वातावरण बनाती है। अब केवल 11 बकरों की बलि दी जाती है। दूसरे पहर दंतेवाड़ा से मां दंतेश्वरी जगदलपुर रवाना होती हैं।
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