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    दिल्ली-मुंबई के फैशन में छाया कश्मीरी 'फिरन', जानिए कैसे 'चादर' से बना यह स्टाइलिश कुर्ता

    Updated: Thu, 04 Dec 2025 07:18 PM (IST)

    आजकल आपने कई महिलाओं को फिरन पहने देखा होगा। यह एक फैशनेबल विंटर वियर बन चुका है। लेकिन इसकी जड़ें कश्मीर की संस्कृति, मौसम और जीवनशैली से जुड़ी हैं। ...और पढ़ें

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    दिल्ली-मुंबई के फैशन में छाया कश्मीरी 'फिरन' (Picture Courtesy: AI Generated Image)

    लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। कश्मीर की वादियों का नाम आते ही बर्फ से ढके पहाड़ों के बीच लोगों द्वारा पहना जाने वाला पारंपरिक फिरन (Pheran) सबसे पहले याद आता है। यह सिर्फ एक पोशाक नहीं, बल्कि कश्मीर की संस्कृति, मौसम और जीवनशैली की जीवंत पहचान है। 

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    आज यह कश्मीर की घाटियों से निकलकर दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में फैशन स्टेटमेंट बन चुका है। सर्दी के मौसम में कई महिलाएं आपको खूबसूरत फिरन पहने नजर आ जाएंगी। लेकिन क्या आप जानते हैं कि फिरन सिर्फ फैशन से नहीं जुड़ा है, बल्कि इसकी जड़े कश्मीर की संस्कृति और लोगों से बहुत गहराई से जुड़ी है। आइए जानते हैं कि फिरन कैसे बना, वक्त के साथ इसमें कैसे-कैसे बदलाव आए और आज यह क्या महत्व रखता है।  

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    (Picture Courtesy: Instagram)

    फिरन की शुरुआत- चादर से बना कुर्ता

    कश्मीर में सदियों पहले लोग कड़कड़ाती ठंड से बचने के लिए लंबी ऊनी चादर ओढ़ते थे। लेकिन चादर के साथ रोजमर्रा के काम करना मुश्किल था। इसलिए लोगों ने चादर को सिलकर इसे एक लंबी, ढीली-ढाली ट्यूनिक का आकार दिया और इसे फिरन का नाम दिया गया।

    माना जाता है कि इसका नाम फारसी शब्द ‘पराहन’ से निकला है, जिसका मतलब कुर्ता/चोगा होता है। इससे पता चलता है कि इस पर मध्य एशिया और फारस का सांस्कृतिक प्रभाव रहा है। यानी फिरन का इतिहास 15वीं शताब्दी से भी पुराना है। धीरे-धीरे यह कश्मीर की पहचान बन गया। गर्मियों में कॉटन के फिरन पहने जाते थे, जबकि सर्दियों के लिए ऊनी फिरन जरूरी था।

    हालांकि, मॉडर्न फिरन के डिजाइन और कढ़ाई मुगल बादशाह अकबर के काल से प्रभावित है। 16वीं शताब्दी के बाद से फिरन की लोकप्रियता और कढ़ाई की खूबसूरती में और भी निखार आया। 

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    (Picture Courtesy: Instagram)

     

    वक्त के साथ बदला फिरन का रूप

    शुरुआती दौर में पुरुष और महिलाएं लगभग एक जैसे सादे फिरन पहनते थे, लेकिन समय के साथ इसमें कई बदलाव आए। महिलाओं के फिरन में कढ़ाई, तिल्ला वर्क, आरी वर्क जैसे सजावटी काम और रंगीन डिजाइन जुड़ते गए, जबकि पुरुषों के फिरन महिलाओं की तुलना में सादे ही बने रहे। पहले यह फर्श तक लंबा होता था, लेकिन आजकल शहरों में यह थोड़ा छोटा, मॉडर्न और ट्रेंडी कट्स में भी बनाया जा रहा है। युवाओं में डिजाइनर फिरन, स्लिट्स और फ्यूजन स्टाइल के साथ जींस में पहनने का चलन काफी लोकप्रिय हो चुका है।

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    (Picture Courtesy: Instagram)

    फिरन के डिजाइन में अब भले ही बदलाव आ चुका है, लेकिन अब भी इसका मूल डिजाइन अब भी वही है, ढीला ढाला लम्बा कुर्ता जिसमें कड़ाके की ठंड में इंसान आराम से दहकते कोयलों वाली कांगड़ी ताप सके।

    कैसे बनाया जाता है फिरन?

    फिरन का सिलाई प्रक्रिया भी रोचक है। साधारण फिरन को दर्जी लगभग डेढ़ से दो घंटे में तैयार कर देते हैं, जबकि डिजाइनर, कढ़ाईदार या तिल्ला वर्क वाले फिरन में ज्यादा समय और मेहनत लगती है।  

    फिरन की कीमत कितनी है?

    सर्दियों के मौसम में घाटी में मांग इतनी बढ़ जाती है कि कई दर्जी सिर्फ फिरन ही सिलते दिखाई देते हैं। लालचौक के साथ सटे आबीगुजर इलाके में अब्दुल रशीद भट नामक फिरन सिलने में माहिर माने जाने वाले कारीगर ने बताया कि “इस बार खाली फिरन ही सिल रहा हूं। सर्दियों में इसकी डिमांड बढ़ जाती है। सिलाई के दाम भी अच्छे मिलते हैं। लिहाजा मुनाफे को देख मैं सर्दियों में केवल फिरन ही सिलता हूं।”

    इसकी कीमत भी काम और डिजाइन पर निर्भर करती है। साधारण कॉटन या सादा ऊनी फिरन 200 से 700 रुपये में मिल जाता है, जबकि ऊनी सर्दियों वाला फिरन 1000 से 1700 रुपये तक जाता है। कढ़ाईदार और तिल्ला वर्क वाले डिजाइनर फिरन 2200 से 3000 रुपये या उससे ज्यादा तक भी बिकते हैं। कढ़ाई और डिजाइन के आधार पर इसकी कीमत में बड़ा फर्क आता है।

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    (Picture Courtesy: Instagram)

    आज भी उतना ही खास है फिरन

    कश्मीरी जीवन में फिरन का महत्व सिर्फ गर्म कपड़े तक सीमित नहीं है। इसकी चौड़ी और ढीली बनावट के कारण इसके नीचे आसानी से कांगड़ी यानी छोटी मिट्टी की अंगीठी रखी जा सकती है, जो घंटों शरीर को गर्म रखती है। कड़ाके की सर्दी, खासकर ‘चिल्लई कलां’ के दौरान, फिरन और कांगड़ी घाटी के लोगों के लिए जीवन का सहारा बन जाते हैं। यही वजह है कि कश्मीर में हर साल 21 दिसंबर को ‘फिरन डे’ मनाया जाता है, जिससे पारंपरिक संस्कृति को सम्मान मिलता है।

    कश्मीर के हिंदू और मुस्लिम, दोनों समुदायों में फिरन की सांस्कृतिक मौजूदगी गहरी है। शादी–ब्याह में आज भी पंडित दुल्हनें कढ़ाईदार भारी फिरन पहनती हैं और दूल्हों के लिए भी पारंपरिक फिरन का महत्व बना हुआ है। तिल्ला, सोजनी और आरी जैसी कढ़ाई न सिर्फ कपड़े को सुंदर बनाती है, बल्कि कश्मीर की कला और कारीगरी को भी जीवित रखती है।

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    (Picture Courtesy: Instagram)

    फैशन का पर्याय बना फिरन

    आधुनिक दौर में फिरन फैशन, कम्फर्ट और सांस्कृतिक गर्व, तीनों का मेल बन चुका है। अब यह सिर्फ कश्मीरियों तक सीमित नहीं है; दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे बड़े शहरों में भी इसे सर्दियों के स्टाइलिश विंटर वियर के रूप में अपनाया जा रहा है। कैफे, कॉलेज और क्रिएटिव स्पेसेज में महिलाएं इसे ट्रेंडी आउटफिट की तरह पहनते दिखाई देते हैं।

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    (Picture Courtesy: Instagram)

    (खबर के लिए जम्मू-कश्मीर की संवाददाता रज़िया नूर के इनपुट के साथ)