The Mehta Boys Review: बिना ड्रामे के दिल छू लेने वाली कहानी है 'द मेहता ब्वॉयज', देखने से पहले पढ़ें रिव्यू
बोमन ईरानी (Boman Irani) ने फिल्म द मेहता ब्वॉयज (The Mehta Boys) के जरिए बतौर निर्देशक करियर की शुरुआत की है। फिल्म बाप-बेटे के रिश्ते को बिना किसी ड्रामे के पेश करती है। एक्टिंग में भी ज्यादातर कलाकारों ने बेहतरीन काम किया है। अगर आप इस फिल्म को देखने का प्लान बना रहे हैं तो पहले रिव्यू जरूर पढ़ लें।

प्रियंका सिंह, मुंबई। उम्र उतनी ही है, जितना महसूस करें। अभिनेता बोमन ईरानी (Boman Irani) इस बात को दिल से महसूस करते हैं। तभी तो 65 साल की उम्र में उन्होंने निर्देशन की दुनिया में कदम रखा है। उनकी निर्देशित पहली फिल्म द मेहता ब्वॉयज पिता-पुत्र के रिश्ते पर बनी है।
द मेहता ब्वॉयज की कहानी
फिल्म की कहानी मुंबई से शुरू होती है। आर्किटेक्ट अमय मेहता (अविनाश तिवारी) को ऑफिस मीटिंग के दौरान अपनी मां के निधन का पता चलता है। वह अपने पिता शिव मेहता (बोमन ईरानी) के घर पहुंचा है। अमय की बहन अनु मेहता (पूजा सरूप) पिता को अपने साथ अमेरिका ले जाना चाहती है। शिव और अमेय के बीच मनमुटाव है। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती हैं कि अनु को अकेले अमेरिका जाना पड़ता है और शिव को दो दिनों के लिए अमय के मुंबई के घर में रहना पड़ जाता है। उन दो दिनों क्या पिता-पुत्र के बीच का मतभेद खत्म होता है? इस पर कहानी आगे बढ़ती है।
बमन ने आस्कर अवार्ड विजेता स्क्रीनराइटर एलेक्जेंडर डीनेलारिस (Alexander Dinelaris) के साथ मिलकर इस फिल्म की कहानी को लिखा है। पिता-पुत्र के रिश्ते पर कई कहानियां हिंदी सिनेमा में बनी हैं। इस कहानी की सादगी ही इसकी खासियत है। कई बार पिता-पुत्र या पारिवारिक कहानियों में ड्रामा बहुत हो जाता है, वह इसमें नहीं है। कहानी शुरू से अंत तक बस चलती रहती है, न बिना वजह के गाने आते हैं, न ही क्लाइमेक्स ऐसा है, जो आपने सोचा न हो। फिल्म दूसरे मौके और जड़ों की ओर लौटने की बात करती है। हालांकि कई ऐसे दृश्य बमन ने फिल्म में रखे हैं, जिसे देखकर मन में सवाल उठते हैं कि उस सीन के जरिए वो क्या कहना चाहते थे? जैसे हैंडब्रेक पर उनके हाथ क्यों रहते हैं? उन्हें बेटे की ड्राइविंग पर क्यों भरोसा नहीं? कमरे की छत जब गिर जाती है, तो बार-बार वह क्यों सवाल करते हैं कि अगल-बगल का हिस्सा क्यों नहीं गिर सकता है।
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एक्टिंग और डायरेक्शन कैसा है?
बमन हर फ्रेम में साबित करते हैं कि वह अच्छे अभिनेता हैं और अब सुलझे हुए निर्देशक भी हैं। पत्नी के निधन के बाद आत्मनिर्भर पति बनने का प्रयास हो, अपने घर की हर एक यादगार चीज छोड़कर अमेरिका जाना हो या फिर मन में बेटे की चिंता के बावजूद चेहरे पर सख्ती बनाए रखने वाले दृश्यों हों, उन्होंने उसे बेहतरीन ढंग से निभाया है। इस फिल्म के असली हीरो वही हैं। अविनाश भी कम शब्दों में अपने अभिनय के रंग दिखा जाते हैं। उन्हें देखकर लगता है कि वह अभिनय में लंबी पारी खेलने के लिए आए हैं। पूजा सरूप छोटे से ही सीन में प्रभावशाली लगीं हैं।
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श्रेया चौधरी को भी स्क्रीन स्पेस कम मिला है, लेकिन जितना है, उसमें वह अपनी मौजूदगी का अहसास कराती हैं। एडिटर चारू श्री राय ने इस धीमी कहानी की गति को अपनी एडिटिंग से संभाला है। कृष मखिजा की सिनेमैटोग्राफी मुंबई की पुरानी बिल्डिंग के छोटे से फ्लैट, बालकनी में तारों की बातें करते पिता-पुत्र और छोटी सी कार के भीतर हैंडब्रेक पकड़कर डरे सहमे बैठे पिता की हर भावना को अपने कैमरे में कैद किया है।
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