The Diplomat Review: सच्ची घटना पर बनी प्रेरक कहानी, मजेदार संवादों के साथ बताई पड़ोसी मुल्क की हकीकत
The Diplomat Review जॉन अब्राहम ने एक बार फिर से ये साबित कर दिया है कि वह हिंदी सिनेमा के वर्सेटाइल एक्टर हैं। किरदार कोई भी हो वह उसमें रम जाते हैं। होली 2025 में वह एक नई फिल्म द डिप्लोमैट के साथ आ रहे हैं जिसमें वह एक रियल किरदार निभा रहे हैं। पाकिस्तान से लड़की को रेस्क्यू करने की ये कहानी आपको क्यों देखनी चाहिए पढ़ें रिव्यू

स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। फिल्म की शुरुआत में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का कथन है कि 'अगर मुझे विश्वास है कि मैं यह कर सकता हूं, तो मैं निश्चित रूप से इसे करने की क्षमता हासिल कर लूंगा, भले ही शुरुआत में मेरे पास यह क्षमता न हो'। इस कथन को अपने जीवन में साबित करके दिखाया था उज्मा अहमद ने जिन्हें अपने झूठे प्रेम के जाल में फंसाकर पाकिस्तानी नागरिक ने पहले अपने देश बुलाया फिर जबरन शादी की।
मई, 2017 में पाकिस्तान में भारतीय उच्चायोग से मदद मिलने के बाद सुरक्षित स्वदेश लौटी उज्मा के जीवन की इस घटना पर फिल्म द डिप्लोमैट बनी है। उसकी सुरक्षित निकासी में तब पाकिस्तान में सेवारत रहे डिप्टी हाई कमीशनर जे पी सिंह और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की अहम भूमिका रही।
क्या है 'द डिप्लोमैट' की कहानी?
फिल्म के आरंभ में पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा के बुनेर से उज्मा (सादिया खतीब) को ताहिर (जगजीत संधू) और उसका एक साथी भारतीय उच्चायोग लेकर आते हैं। वहां अपना पासपोर्ट दिखाकर वह मदद की गुहार लगाती है। जे पी सिंह (जॉन अब्राहम) मामले की सुध लेते हैं। शुरुआती जांच पड़ताल के बाद धीरे-धीरे उसके जीवन की परतें खुलती है। काम की तलाश में मलेशिया गई उज्मा की मुलाकात ताहिर से होती हैं। दोनों एकदूसरे को पसंद करने लगते हैं।
उज्मा की अपनी पूर्व शादी से एक बेटी भी होती है, जो थैलेसिमिया से ग्रसित है। ताहिर उसे अपने वतन आने को कहता है जहां उसका इलाज भी हो जाएगा और वह उसके परिवार से मिल लेगी। पाकिस्तान जाने पर उज्मा को कड़वी सच्चाई पता चलती है। ताहिर पहले से शादीशुदा होता है। उसकी कई बीवी और बच्चे होते हैं। वह उसका शारीरिक और मानसिक शोषण करता है। फिर जबरन निकाह करता है। सिंह कैसे उसकी स्वदेश वापसी कराते हैं कहानी इस संबंध में हैं।
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फिल्म में नहीं है कोई भी प्रोपेगेंडा
अपने इंटरव्यू के दौरान जॉन अब्राहम ने कहा था कि द डिप्लामैट प्रोपेगेंडा फिल्म नहीं है। वास्तव में यह फिल्म किसी सरकार का महिमामंडन नहीं करती न ही पाकिस्तान को दुश्मन देश के रूप में रेखांकित करती है। वर्तमान की फिल्मों की तरह इसमें अनावश्यक रूप से देशभक्ति की बात नहीं हुई है। अच्छी बात यह है कि उज्मा की कहानी से वाकिफ होने के बावजूद उसकी जिदंगी में क्या मोड़ आने वाला है इसे लेकर फिल्म देखते हुए कौतूहल बना रहता है।
रितेश शाह ने ही फिल्म की कहानी, स्क्रीनप्ले और संवाद लिखा हैं। उन्होंने पड़ोसी मुल्क की हकीकत को बयां करने में चुटकीले संवादों का उपयोग किया है। जैसे यह पाकिस्तान है यहां पर थ्रेट (धमकी) ही काम करता है। फिल्म नाम शबाना का निर्देशन कर चुके शिवम नायर कहानी पर पकड़ बनाए रखते हैं। हालांकि कहीं-कहीं संवेदनाओं को उबारने में थोड़ा चूक जाते हैं।
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उज्मा की अदालत में पेशी के दृश्यों को तनावपूर्ण बनाने की पूरी गुंजाइश रही। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइी से जुड़े पात्र मलिक (अश्वथ भट्ट) को थोड़ा चुस्त करने की आवश्यकता थी। अंत में सुषमा स्वराज, जे पी सिंह और उज्मा की प्रेस कांफ्रेंस के पुराने फुटेज को दिखाकर फिल्म को विश्वसनीयता दी गई है। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी नयमाभिरामी है।
क्या कलाकार कर पाए अपने किरदारों के साथ न्याय?
जेपी सिंह की भूमिका में जॉन अब्राहम के अभिनय में अपेक्षाकृत विकास है। अपनी दूरदर्शी सोच से पटकनी देने के दृश्यों में वह अपनी सीमित भंगिमाओं से बाहर आते हैं। शिकारा, रक्षाबंधन के बाद द डिप्लोमैट में उज्मा की भूमिका में सादिया खतीब को अपनी अभिनय प्रतिभा दिखाने का भरपूर अवसर मिला है। हालांकि, भावनात्मक दृश्यों में वह कहीं कहीं संघर्ष करती नजर आती हैं।
सुषमा स्वराज की भूमिका में रेवती की कास्टिंग सटीक है। सहयोगी भूमिका में आए शारिब हाशमी और कुमुद नागर अपने पात्र साथ न्याय करते हैं। फिल्म का गीत संगीत कहानी के अनुरूप है। सत्य घटना पर आधारित यह फिल्म विदेशी सरजमीं पर कार्यरत भारतीय अफसरों की तत्परता, देश के प्रति समर्पण और दूरदर्शिता को बखूबी रेखांकित करती है।
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