प्रियंका सिंह, मुंबई। हिंदी सिनेमा में ऐसी फिल्मों की कमी नहीं है, जिनकी कहानियां किसी वास्तविक घटना से ली गयी हों। मर्डर मिस्ट्री से लेकर आतंकवाद और युद्ध की घटनाओं तक को पर्दे पर दिखाया गया है, मगर इनके बीच कुछ कहानियां ऐसी भी आयी हैं, जो मानवीय भावनाओं के संवेदनशील पहलू को दिखाती हैं। इन कहानियों में भावनाओं का ज्वार ऐसा रहता है कि आंखें छलक उठती हैं। ऐसी ही एक कहानी मिसेज चटर्जी वर्सेज नार्वे इस शुक्रवार सिनेमाघरों में रिलीज हो रही है।
आशिमा छिब्बर निर्देशित मिसेज चटर्जी वर्सेस नार्वे, सागरिका चक्रवर्ती की कहानी से प्रेरित है, जिसके बच्चों की कस्टडी नार्वे की चाइल्ड वेलफेयर सर्विस अपने पास रख लेती है, क्योंकि उनके अनुसार वह अपने बच्चों की सही से देखभाल नहीं कर रही थीं।
बच्चों के लिए मां के संघर्ष की कहानी
फिल्म की कहानी भी इसी दर्दनाक घटना से शुरू होती है, जब नार्वे सरकार के नियमों के मुताबिक चाइल्ड वेलफेयर विभाग वाले देबिका (रानी मुखर्जी) और अनिरुद्ध चटर्जी (अनिर्बन भट्टाचार्य) के दोनों बच्चों शुभ और शुची को उठाकर ले जाते हैं। उन्हें फास्टर होम में रख दिया जाता है। वजह बताई जाती है कि 10 हफ्तों की निगरानी के बाद देखा गया है कि देबिका हाथ से अपने बच्चों को खाना खिलाती है, माथे पर टीका लगाती है, बच्चे को साथ सुलाती है।
यहां से शुरू होती है, देबिका की अपने बच्चों को वापस पाने की जद्दोजहद। अनिरुद्ध नार्वे की नागरिकता पाने में इतना उलझा हुआ है कि उसे देबिका का दर्द नहीं दिखता। सब मिलकर देबिका को मानसिक तौर पर बीमार साबित करने में लग जाते हैं। देबिका, नार्वे से लेकर भारत सरकार तक हर किसी से मदद मांगती है। क्या वह कामयाब होगी, इस पर कहानी बढ़ती है।
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भावुक करते हैं कुछ दृश्य
मेरे डैड की मारुति जैसी कॉमेडी फिल्म बना चुकीं आशिमा छिब्बर ने इस फिल्म को संवेदनशीलता से बनाया है। हालांकि, फिल्म कई जगहों पर भावनाओं का संतुलन नहीं साध पाती है, पर अंत तक उस मुकाम पर पहुंच जाती है, जिसके लिए बनाई गई है। शुरुआत में फिल्म से जुड़ने में समय लगता है, क्योंकि कहानी तेजी से भागती है।
जितनी देर में आप समझेंगे कि मां से बच्चों को छीन लिया गया है, तब तक वह शॉट निकल भी जाता है, जबकि वही सीन फिल्म की नींव है। कई जगहों पर हिंदी के अलावा बांग्ला और नार्वेजियन भाषा का प्रयोग किया गया है, हो सकता है कई लोगों को समझने में दिक्कत हो, हालांकि सीन के बहाव में वह रुकावट नहीं लगता।
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दिल में भारीपन तब महसूस होता है, जब कोर्ट में अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में एक मां अपने भारतीय तौर-तरीकों को भूलकर नार्वे के अंदाज में अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए हर शर्त मानने को तैयार होती है। फिल्म में भारत और नार्वे के कोर्ट में दो ऐसे सीन हैं, जहां पर आंखें नम होंगी।
कथ्य को बल देते हैं संवाद
फिल्म का संवाद, 'मेरे लिए यही सही है कि हम अपने दोनों बच्चा लोग के लिए लड़ूं, ये कोर्ट में, अगला कोर्ट में जिस-जिस जगह हमको न्याय मिलेगा, दुनिया का कोई भी जगह वहां जाकर हम लडूंगा...', एक मां के अटल विश्वास को दर्शाता है कि वह अपने बच्चे पाकर रहेगी। 'मैं कमाता हूं...वह घर का ख्याल रखती है... एक ही काम था बच्चा संभालने का वो भी नहीं हो पाया...,' ऐसे संवादों से आशिमा उन घरों की झलक दिखा जाती हैं, जहां पितृसत्ता है। घरेलू हिंसा का मुद्दा भी वह सतही तौर पर छूती हैं।
रानी ने बताया था कि इस फिल्म को करने से पहले वह सागरिका से नहीं मिली थीं। फिर भी वह सागरिका के दर्द, गुस्से और संघर्ष को महसूस कर पाईं। देबिका के व्यक्तित्व में एक बदलाव है। जैसे जब तक वह सिर्फ एक पत्नी है, वह पति की मार सहती है, लेकिन जब उसके बच्चे उससे दूर होते हैं तो वह किसी घायल शेरनी से कम नहीं होती। जब उसे पति थप्पड़ मारता है, तो वह जोर से घुमाकर थप्पड़ मारती है।
तड़पती मां के किरदार में रानी की दमदार अदाकारी
कमजोर पत्नी से बच्चे के वियोग में गुस्सैल और तड़पती मां का यह शिफ्ट रानी ने विश्वसनीयता से दर्शाया है। नार्वे के वकील डैनियल सिंह सियुपिक की भूमिका में जिम सरभ और भारत की वकील मिस प्रताप की भूमिका में बालाजी गौरी दोनों का ही काम सराहनीय है।
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दोनों के बीच कोर्ट की बहस दिलचस्प है। अनिर्बन भट्टाचार्य स्वार्थी इंसान की भूमिका को सहजता से निभाते हैं। फिल्म के अंत में बांग्ला और हिंदी भाषा में कौसर मुनीर का लिखा और मधुबंती बागची का गाया गाना आमी जानी रे... बेहद खूबसूरत है।
मुख्य कलाकार- रानी मुखर्जी, अनिर्बन भट्टाचार्य, जिम सरभ, बालाजी गौरी।
निर्देशक- आशिमा छिब्बर
निर्माता- मोनिशा आडवाणी, मधु भोजवानी, निखिल आडवाणी।
लेखक- आशिमा छिब्बर, समीर सतीजा और राहुल हांडा
अवधि- 135 मिनट
रेटिंग- तीन
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