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    Jugnuma Review: 'जुगनू जैसी नहीं जगमगाती', 'बागान' की कहानी में कहां चूक गई मनोज बाजपेयी की फिल्म?

    Updated: Fri, 12 Sep 2025 04:02 PM (IST)

    Jugnuma The Fable Review नेटफ्लिक्स (Netflix) पर फिल्म इंस्पेक्टर झेंडे के साथ धमाल मचाने के बाद मनोज बाजपेयी थिएटर में लौट आए हैं। अन्तराष्ट्रीय मंच पर सराहना पाने वाली उनकी मूवी जुगनुमा 12 सितंबर को थिएटर में रिलीज हो चुकी है। कैसी है इस फिल्म की कहानी नीचे पढ़ें पूरा रिव्यू

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    कैसी है मनोज बाजपेयी की फिल्म 'जुगनुमा'/ फोटो- Jagran Graphics

    प्रियंका सिंह, मुंबई। कई फिल्म फेस्टिवल में सराही गई और 38वें लीड्स इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवॉर्ड जीतने वाली पहली भारतीय फिल्म जुगनुमा –द फेबल सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है।

    एक बागान पर आधारित है 'जुगनुमा' की कहानी

    कहानी साल 1989 की है। देव अपने परिवार के साथ हिमालय में रहता है। वह फलों के बागान का मालिक है। अपने बिजनेस को संभालने के साथ देव को उड़ने का भी शौक है। उसके पास चील की तरह विशाल पंख है, जो उसने खुद बनाए हैं। अपने बागानों को कीड़ों से बचाने के लिए वह अपने मैनेजर मोहन (दीपक डोबरियाल) को पेस्टिसाइड्स का छिड़काव करने के लिए कहता है। इस बीच एक दिन उसके बागान का एक पेड़ जला नजर आता है। कुछ दिनों बाद पूरे बागान में आग लग जाती है। आग कौन लगा रहा है, इसकी खोजबीन में कहानी आगे बढ़ती है। 

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    फिल्म की कहानी पहले दस मिनटों में चौंकाती, उसका कारण देव (मनोज बाजपेयी) का किसी पंक्षी की तरह आसमान में उड़ना है। फिर कुछ घटनाएं होती हैं, दिमाग दौड़ता है कि आगे क्या होगा, लेकिन अंत तक फिल्म को समझना कठिन हो जाता है।

    नेशनल अवॉर्ड जीतने के 10 साल बाद लाए फिल्म

    अपनी कन्नड़ फिल्म तिथि के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके निर्देशक राम रेड्डी उसके दस साल बाद यह फिल्म लेकर आए हैं। फिल्म का जोनर मैजिकल रियलिज्म है यानी वास्तविकता में जादुई दुनिया को ऐसे पिरोया जाता है कि दोनों के बीच का अंतर खत्म हो जाता है। ऐसी फिल्मों को फिल्म फेस्टिवल में भले ही तालियां मिलती हों, लेकिन आम दर्शकों के लिए समझना बेहद कठिन होगा। निर्देशक राम रेड्डी इस फिल्म से काफी कुछ कहना चाहते हैं, शायद जैसे पहाड़ों के निवासी कौन हैं? लोग या खुद पहाड़ या प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने का नतीजा क्या हो सकता है। लेकिन कई अधूरे सीन, दर्जन भर अनुत्तरित प्रश्न कुछ समझने नहीं देते।

    कई घटनाक्रम, जैसे देव की बेटी वन्या (हिरल सिद्धू) जंगल में रह रहे कुछ लामाओं में से एक को पसंद करती है, उसे पेपर पर लिखकर कुछ भेजती है, उसमें क्या लिखा है पता नहीं। लामा के साथ बैठकर वह मेडिटेशन क्यों करती है? बागान में काम करने वाले मजदूर की पत्नी राधा (तिलोत्तमा शोम) परियों की कहानी सुनाती है। फिल्म वाकई परियों की कहानी जैसी लगती है, जहां कुछ भी संभव है।

    मनोज बाजपेयी हैं फिल्म के जगमगाते जुगनू

    सिनेमैटोग्राफर सुनील बोर्कर का काम सराहनीय है। उन्होंने बिना किसी कट के कई लंबे-लंबे शॉट्स लिए हैं, जो सीन से जुड़ाव बनाए रखते हैं। कई सीन अंधेरे में जुगनुओं के साथ है, जिसे उन्होंने खूबसूरती से फिल्माया है। पहाड़ों की सुंदरता, शांति को भी उन्होंने दृश्यों में कैद कर उसे अविश्वसनीय बनाया है। पहाड़ों में रह रहे लोगों की सादगी, धीमी जिंदगी, परिवार के साथ बैठकर फिल्में देखना और घास पर लेटकर तारों को निहारना, ये सब वहां होने का अहसास कराता है।

    मनोज अलग तरह की कहानियों का हिस्सा बनते आए हैं। ऐसे में उनके अभिनय में कोई कमी नहीं है। इस्टेट मैनेजर के रोल में दीपक डोबरियाल का काम भी बढ़िया हैं। जब उन्हें देव काम से निकाल देता है और घर पर ताला लगाने के लिए कहता है, बिना कुछ कहे मोहन जैसे प्रतिक्रिया देते है, वह दिल जीत लेता है। प्रियंका बोस देव की पत्नी नंदिनी के रोल में जंचती हैं। हिरल सिद्धू, तिलोत्तमा शोम स्क्रिप्ट के दायरे में ठीक काम करती हैं।

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