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    Dukaan Review: आउटडेटेड है सरोगेसी पर बनी ये 'दुकान', मोनिका पंवार के अभिनय ने साधी कमजोर फिल्म

    Updated: Fri, 05 Apr 2024 12:21 PM (IST)

    सरोगेसी के विषय पर आई कृति सैनन की फिल्म मिमी सफल रही थी। फिल्म में कृति ने सरोगेट मदर का रोल निभाया है। कुछ यही किरदार दुकान में मोनिका पंवार ने प्ले किया है। हालांकि कहानी के विस्तार में काफी अंतर है। दुकान सरोगेसी के व्यावसायिकरण को रेखांकित करती है और इसके अच्छे-बुरे परिणामों को कहानी में साथ लेकर चलती है। पढ़ें पूरा रिव्यू।

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    दुकान सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है। फोटो- इंस्टाग्राम

    स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। सरोगेसी यानी किराए की कोख। इस विषय पर आई कृति सैनन अभिनीत फिल्‍म मिमी भी एक लड़की की कहानी थी, जो पैसों की खातिर मां बनती है। हालात के चलते वह अपने बच्‍चे को खुद पालने का निर्णय लेती है। अब लेखक जोड़ी सिद्धार्थ और गरिमा ने भी इसी विषय को उठाया है।

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    बतौर निर्देशक यह उनकी पहली फिल्‍म है। वह इसके लेखक और निर्माता भी हैं। उनकी यह ‘दुकान’ सरोगसी की है। माता-पिता बनने के सुख से वंचित लोगों के लिए उम्‍मीदों की दुकान है। सरोगेट मां को इसके बदले ढाई से तीन लाख रुपये मिलते हैं। साथ ही उनकी सुख-सुविधा का पूरा ध्‍यान रखा जाता था। इतना पैसा शायद ही इन औरतों के पति कमा सकें।

    क्या है दुकान की कहानी?

    सरोगसी के जरिए मां बनने जा रही ऐसे ही कई महिलाओं की बातचीत से फिल्‍म शुरू होती है। दीया (मोनाली ठाकुर) और उसका पति अरमान (सोहम मजूमदार) पुलिस में जैस्मीन (मोनिका पंवार) के खिलाफ शिकायत दर्ज कराते हैं, जो सरोगेसी से उन्‍हें बच्‍चा देने वाली होती है।

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    इस गांव में सरोगेसी क्‍लीनिक सरेआम चल रहे हैं, पर पुलिकर्मी की अनभिज्ञता पहले ही सीन में चौंकाती है। वहां से जैस्मीन की जिंदगी की परतें खुलनी शुरू होती हैं। पिता के अपनी बेटियों के साथ संबंध अच्‍छे नहीं होते। छुरी जैसी जुबान और दिल में समाज कल्‍याण रखने वाली 17 साल की जैस्मीन अपने से दोगुने आदमी सुमेर (सिकंदर खेर) से शादी करती है, जिसकी पहले से एक बेटी है। जैस्मीन बच्‍चा नहीं चाहती।

    अनिच्‍छा के बावजूद मां बनती है। अचानक से आए भूकंप में उसकी जिंदगी बदल जाती है। पति का निधन हो जाता है। बेटी की शादी के लिए जैस्मीन सरोगेट मां बनना तय करती है, ताकि दहेज के पैसों का इंतजाम कर सके। उसके बाद दीया के आग्रह पर वह सरोगेट मां बनती हैं।

    बच्‍चों से प्‍यार ना करने वाली जैस्मीन को इस बच्‍चे से प्‍यार हो जाता है। वह भाग जाती है। चार साल बाद जैस्मीन को पुलिस पकड़ने में कामयाब रहती है। जेल से वापसी के बाद वह बेटे की वापसी को लेकर लड़ाई लड़ती है।

    आउटडेटेड है ये दुकान, कमजोर स्क्रीनप्ले

    अब सरोगेसी को लेकर कानूनों में बदलाव हो चुका है, लेकिन यह फिल्‍म उस समय की है, जब सरोगेसी का धंधा खूब फलफूल रहा था। सिद्धार्थ और गरिमा ने विषय अच्‍छा चुना है, लेकिन वे ना तो कहानी, ना ही सरोगेसी की दुनिया को समुचित तरीके से चित्रित कर पाए हैं।

    सत्‍य घटना से प्रेरित होने के बावजूद फिल्‍म बनावटी ज्‍यादा लगती है। फिल्‍म की शुरुआत बहुत धीमे तरीके से होती है। गांव में सरोगेसी धड़ल्‍ले से होने के बावजूद वहां के लोग इससे अनभिज्ञ हैं। यह अपच है। सरोगेसी से मां बनने वाली किसी प्रकार की दिक्‍कतों को फिल्‍म नहीं दिखाती।

    ना ही उनकी निजी जिंदगी में जाती है। फिल्‍म में पूरी तरह से जैस्मीन छायी है। बाकी किरदारों की जिंदगी को फिल्‍म बिल्‍कुल नहीं छूती। सरोगेसी करने वाली महिलाओं का पक्ष बहुत सतही दिखाया है। सरोगेसी औरतों को लेकर दिखाया है कि वे खुश हैं। उन्‍हें होने वाले बच्‍चे से कोई लगाव नहीं है।

    आखिर में यह जैस्मीन के जरिए सरोगेट माओं और उनके माता-पिता की लड़ाई बन जाती है, जो अपने जने बच्‍चों को देखना चाहती है। बीच में जैस्मीन का लिव-इन भी दिखाया है, जो गायब हो जाता है। फिल्‍म देखते हुए सरोगेट मांओं का पेट बहुत ही बनावटी लगता है। फिल्‍म का स्‍क्रीनप्‍ले बेहद कमजोर है। संवाद भी महिलाओं की भावनाओं को पूरी तरह उकेर नहीं पाते हैं।

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    मोनिका पंवार ने संभाला अभिनय का मोर्चा

    वेब सीरीज जामताड़ा: सबका नंबर आएगा से लोकप्रिय हुईं मोनिका पंवार के कंधों पर फिल्‍म की जिम्‍मेदारी है। उन्‍होंने जैस्मीन के अल्‍हड़पन, मस्‍तमौला स्‍वभाव और बेफ्रिकी को शिद्दत से जीया है। दिक्‍कत है कमजोर स्‍क्रीनप्‍ले और निर्देशन की। फिल्‍म में एक दृश्‍य में सनी देओल मेहमान भूमिका में सरोगेट मां को सम्‍मान देने की बात करते हैं।

    यह सीन जबरन ठूंसा हुआ लगता है। मोनाली ठाकुर पात्र को निभाते हुए संघर्ष करती नजर आती हैं। उन्‍हें गायिकी पर ही फोकस करना चाहिए। हिमानी शिवपुरी मां की भूमिका में जरूर प्रभावित करती हैं। फिल्‍म का बैकग्रांउड संगीत गुजराती पृष्‍ठभूमि के अनुरुप है।

    हालांकि, फिल्‍म की आतंरिक बुनावट और प्रस्‍तुति की कमी से गीत-संगीत की विशेषता दब गई है। दुकान में निश्चित रूप से एक सामाजिक संदेश है, लेकिन विषय को लेकर गहराई की कमी और गुणवत्ता उसे कमजोर बनाती है।