अलविदा धरम: हजार चेहरों वाला नायक, जिसे दुनिया रखेगी याद...धर्मेंद्र की एक कहानी ऐसी भी...!
Dharmendra Death: धर्मेंद्र...इस नाम ने हिंदी सिनेमा को अनगिनत यादें दी हैं। धर्मेंद्र के जाने के बाद अब उनकी उपलब्धियों को लोग गिनने बैठ रहे हैं, तो वो उंगलियों पर वो गिनी नहीं जा पा रही हैं। ना जाने कितने उम्दा किरदार...ना जाने कितनी यादें और हमेशा सबकी मदद। मिट्टी से जुड़े धरम की उसी कहानी के अंश आज हम आपके सामने पेश कर रहे हैं...

हजार चेहरों वाले हीरो थे धर्मेंद्र...
आशुतोष शुक्ल, नई दिल्ली। धर्मेंद्र की मोहक मुस्कान, आकर्षक व्यक्तित्व और बेहतरीन अभिनय ने न सिर्फ सिनेप्रेमियों को अपना दीवाना बनाया, बल्कि उनके बात-व्यवहार में भी कुछ ऐसी खास बात थी कि वे छोटी-सी मुलाकात में भी हृदय पर अमिट छाप छोड़ जाते थे। धर्मेंद्र की अभिनय यात्रा और व्यक्तित्व के विशिष्ट पहलुओं को रेखांकित कर रहे हैं आशुतोष शुक्ल।
सत्यकाम का एक दृश्य है जिसमें संजीव कुमार अपने मित्र धर्मेंद्र को जीवन की व्यवहारिकता सिखा रहे हैं लेकिन धर्मेंद्र अडिग हैं। सत्यनिष्ठ नायक का हताशाजनित क्रोध और भ्रष्टाचार के आगे न झुकने का संकल्प धर्मेंद्र के एक-एक संवाद और उनके चेहरे की हर रेखा में मुखर है...और दृश्य के अंत में उनकी वो व्यंग्यात्मक मुस्कान।
हर किरदार में जान फूंकते थे धर्मेंद्र
धर्मेंद्र की मर्दाना सौन्दर्य और हीमैन इमेज इतनी बड़ी हो गई कि उनके अभिनय के अनंत विस्तार और स्वाभाविकता पर उसकी छाया आ पड़ी जबकि, जीवन के हर रंग को पर्दे पर बखूबी उतार देने वाले धर्मेंद्र ने जैसे सत्यकाम में सत्यप्रिय को जिया, वैसे ही फूल और पत्थर में शाका, शोले में बीरू और प्रतिज्ञा में अजीत की भूमिका में प्राण डाल दिए। अनुपमा, शर्मिला टैगोर की फिल्म थी लेकिन अपने सहज अभिनय (Dharmendra Actiobn) की बदौलत दर्शकों को याद रह जाते हैं तो धर्मेंद्र।
वह अपने पात्रों में इतनी जीवंतता भर देते कि उत्सवधर्मी भारतीय मन उनमें अपने को देखने लगता, फिर वह धर्मवीर और तुम हसीं मैं जवान हो या प्यार ही प्यार, दोस्त और यकीन। चरित्रों को जीने की उनकी सहज ईमानदारी ही उन्हें भारतीय सिनेमा के सर्वकालिक आठ-दस नामों में एक बना गई। कल्पना करें उनके सिनेमाई करिश्मे की कि चाचा भतीजा, धर्मवीर, शोले और प्रतिज्ञा में उनकी जगह और कौन अभिनेता हो सकता था। हर बार आपका उत्तर होगा-कोई नहीं।
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धर्मेंद्र ने नहीं की किसी की नकल
धर्मेंद्र जब फिल्मों में आए तो वह दौर दिलीप कुमार का था और राजेंद्र कुमार हों या मनोज कुमार सब पर दिलीप कुमार हावी थे लेकिन धर्मेंद्र ने किसी की नकल नहीं की। उन्होंने अपनी लकीर खींची और उसे ही बड़ा करते गए। न उन्होंने चाल टेढ़ी की और न कभी गर्दन झटकी।
हजार चेहरों वाले नायक थे धर्मेंद्र
1987 में हुकूमत के सुपरहिट होने के बाद 'रविवार' के संपादक उदयन शर्मा ने धर्मेंद्र पर कवर स्टोरी की और नाम दिया-हजार चेहरों वाला हीरो। धर्मेंद्र की असाधारण उपलब्धियों पर यह सबसे असरदार हेडलाइन थी। धर्मेंद्र की रेंज बड़े-बड़े अभिनेताओं के लिए चुनौती है। एक ओर तो सत्यकाम और देवर तो दूसरी ओर फूल और पत्थर और यादों की बारात जहां वो एंग्रीमैन हैं। जेम्स बांड के लिए हीरो अगर भारत से होता तो धर्मेंद्र ही सर्वश्रेष्ठ नाम होते। अब इस बात को उनकी आंखें, कब क्यों और कहां, साजिश, कीमत, यकीन, चरस और शालीमार के नायक से तौलकर देखा जा सकता है। वही दमदार पर्सनाल्टी, वही स्वैग और वही कमाल का एक्शन।
अपने दम पर फिल्म कराते थे हिट
दीवार के उस दृश्य की बहुत चर्चा होती है जिसमें अमिताभ बच्चन एक इमारत में जाकर गोदाम को भीतर से बंद करते हैं और फिर बदमाशों की पिटाई करते हैं। यह दृश्य दीवार से दो साल पहले आयी अर्जुन हिंगोरानी की कहानी किस्मत की से लिया गया था। यादों की बारात के क्लाइमेक्स सीन में दौड़ती ट्रेन के सामने अजीत को खड़ा कर देने वाले धर्मेंद्र की ठंडी आंखों को अगर जॉनी गद्दार के निर्देशक श्रीराम राघवन नहीं भूल पाते तो कारण यह कि धर्मेंद्र अपने हर पात्र को भरपूर जी गए। अनिल शर्मा ने 2007 में देओल परिवार को लेकर 'अपने' बनाई जो फिल्म 72 बरस के धर्मेंद्र की फिल्म थी जो उनके ही कंधों पर चली।
आखों से एक्टिंग तो रोमांस भी कमाल
उनकी स्क्रीन प्रेजेंस कमाल थी। 1983 में आयी कयामत में उनका कैरेक्टर ग्रे था। उसका एक दृश्य है जिसमें वह एक लैम्पपोस्ट के नीचे खड़े हैं, सिर पर कैप है और सामने पूनम ढिल्लों का घर। पूनम उन्हें देखती हैं और डरती हैं जबकि, धर्मेंद्र कुछ कहते नहीं...बस उनकी आंखें आतंक उगलती हैं। 1985 में आयी गुलामी धर्मेंद्र की सबसे अच्छी फिल्मों में है। उनके सामने नसीर और कुलभूषण खरबंदा जैसे कलाकार थे लेकिन धर्मेंद्र का बेहद सधा अभिनय फिल्म की जान बन गया। नीची जाति में जन्म लेने का आक्रोश इतनी सजीवता से धर्मेंद्र ने मुखर कर दिया कि गुलामी पर्दे पर लगे-लगे ही क्लासिक का दर्जा पा गई। उनकी अभिनय की सादगी लेकिन उसका असीमित प्रभाव देखना हो तो उनके केवल तीन गाने देखिए-ब्लैकमेल का 'पल-पल दिल के पास', लोफर का 'आज मौसम बड़ा बेईमान है और जीवन मृत्यु का 'झिलमिल सितारों का आंगन होगा' मुहम्मद रफी की आवाज तो जैसे धर्मेंद्र के लिए ही बनी थी।

कॉमेडी में भी किया खूब कमाल
कामेडी धर्मेंद्र के अभिनय का प्रबल पक्ष रही। उनकी कामेडी कई तरह की है। एक ओर चुपके चुपके व दिल्लगी तो दूसरी ओर प्रतिज्ञा, सीता और गीता और चाचा भतीजा जबकि, नौकर बीवी का इन सबसे अलग जॉनर की कामेडी है और जो केवल धर्मेंद्र के कारण बहुत बड़ी हिट हुई। उनकी कामिक टाइमिंग लाजवाब थी और महमूद के साथ उनकी जोड़ी बहुत जमी। महमूद बहुत जबर अभिनेता थे और सब पर हावी हो जाते लेकिन धर्मेंद्र पर नहीं हो सके और इसे महमूद ने जुगनू की सफलता के बाद धर्मेंद्र की प्रशंसा में माना भी था।
कैमियो रोल करके भी हिट कराईं फिल्में
कल्पना ही की जा सकती है कि लोफर, शराफत, रेशम की डोरी, राजा जानी और नया जमाना के धर्मेंद्र ने क्या गजब ढाये होंगे। निर्माता को जब लगता उसका कोई बड़ा हीरो टिकट खिड़की पर चमत्कार नहीं कर सकेगा तो धर्मेंद्र को अतिथि भूमिका के लिए बुलाया जाता और फिर पोस्टरों पर उनका चेहरा हीरो के बराबर या बड़ा दिखाया जाता। फिर चाहे वह विनोद खन्ना की खुदाकसम रही हो या फिरोज खान की चुनौती। उनके हिस्से यह उपलब्धि भी आएगी कि हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर बन चुकी कई फिल्में उन्होंने ही कीं। वह शोले, हकीकत, मेरा गांव मेरा देश, आंखें, बंदिनी हो या सत्यकाम, गुड्डी, चुपके चुपके, फूल और पत्थर और यादों की बारात।
ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का हीरो यदि ट्विटर (X) और इंस्टा पर अपार लोकप्रिय हो सका तो इसलिए क्योंकि वह जीवन से प्यार करता और उसे उसकी सम्पूर्णता में जीता। उसे अपनी प्रशंसा करना नहीं आया लेकिन अपने काम और सादगी से वह ऐसी जगह छोड़ गया जो कभी भरी नहीं जा सकेगी।

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