सिनेमाघरों में रिलीज होगी Superboys Of Malegaon, रीमा कागती और जोया अख्तर ने बताया सेट पर कैसे करती हैं काम
लेखिका-निर्देशिका रीमा कागती और जोया अख्तर की जोड़ी ने एक साथ काम करते हुए ‘गली ब्वाय’ ‘तलाश द आंसर लाइज विदिन’ और ‘द आर्चीज’ समेत कई फिल्में बनाई हैं। अब रीमा ने फिल्म ‘सुपरब्वायज आफ मालेगांव’ निर्देशित की है जिससे जोया बतौर प्रोड्यूसर जुड़ी हैं जो 28 फरवरी को प्रदर्शित होगी। रीमा और जोया से इस फिल्म पर अपने विचार साझा किए हैं।
एंटरटेनमेंट डेस्क, मुंबई। दीपेश पांडेय। डायरेक्टर रीमा कागती की फिल्म ‘सुपरबॉयज ऑफ मालेगांव’ अब थिएटर में दस्तक देने के लिए तैयार है! इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स में धूम मचाने के बाद, अब ये फिल्म बड़े पर्दे पर रिलीज होने जा रही है। इस बीच फिल्म की निर्देशक रीमा कागती और जोया अख्तर ने इस फिल्म और अपनी कई फिल्म को लेकर दैनिक जागरण के साथ खास बात की है।
मालेगांव सिनेमा इंडस्ट्री की कार्यशैली को दिखाने का विचार
रीमा: नासिर शेख, एक ऐसा इंसान, जिसने सिर्फ फिल्मों के प्रति अपने प्यार के कारण फिल्में बनाईं और फिर आगे बढ़कर वीडियो फिल्मों की एक समानांतर इंडस्ट्री ही बना दी। मेरे हिसाब से ऐसे इंसान पर फिल्म बनाना बहुत प्रेरक लगा। बाकी एक अच्छी फिल्म की कहानी में जो चाहिए, ये बहुत ही मजबूत और बेहतरीन अंडरडाग की कहानी है, सारी विषम परिस्थितियों के बावजूद अपने सपने सच करने की कहानी है। मुझे नहीं लगता है कि कोई भी लेखक या निर्देशक इस कहानी पर फिल्म बनाने से कभी मना करता।
जोया : इस फिल्म के अधिकार तो मेरे ही पास थे। जब मैंने यह कहानी सुनी और नासिर से मिली, तो मुझे उनमें एक कलाकार दिखा, जो बहुत भावुक है। उनकी जिंदगी बहुत भावनात्मक पड़ावों से गुजरी है। वो जिस तरह की फिल्में बनाते हैं, आप उनमें सिनेमा का जादू महसूस कर सकते हैं।
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कहानी लिखते वक्त कैसे होता है काम का बंटवारा
जोया: जब हमारे मन में कोई कहानी आती है, तो हम इसके बारे में दो-तीन सप्ताह सिर्फ बातें करते हैं कि क्या-क्या करना होगा? यह तय करने के बाद एक-एक पंक्ति में यह लिखते हैं कि स्क्रिप्ट में क्या-क्या होगा। उसके बाद कहानी रीमा लिखती हैं, फिर वो मुझे स्क्रिप्ट भेजती हैं। मैं उसमें कुछ लिखती हूं और उन्हें वापस भेजती हूं, वो उसे ठीक करके वापस मेरे पास भेजती हैं।
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रीमा: अगर मुझे कोई सीन समझ में नहीं आ रहा है, या कोई डेडलाइन छूट रही होती है, तो मैं स्क्रिप्ट जोया के पास भेज देती हूं, वो भी लिख देती हैं। हमारे बीच यह चलता रहता है। हम कहानी और स्क्रीनप्ले की एक-एक लाइनें एक साथ लिखते हैं, उसके बाद मैं कहीं भी रह सकती हूं, वो कहीं भी।
हिंदी अच्छी न होते हुए कैसे लिखी ‘गली ब्वाय’ की स्क्रिप्ट
जोया: मैं भी मुंबई से हूं, ‘गली ब्वाय’ जैसे मुंबई के लोगों के बात करने का ढंग, बोलने की शैली, प्रयोग होने वाले क्षेत्रीय शब्दों को जानती हूं। मैं वो चीजें लिख नहीं सकती हूं, लेकिन मुझे पता है कि वो सही हैं या नहीं। स्क्रिप्ट लिखते समय ही हमने तय कर लिया था कि डायलाग में हमें कहां क्या एटीट्यूड और कहां हंसी-मजाक चाहिए। उसके बाद हमने स्क्रिप्ट डायलाग राइटर को दे दी।
‘गली ब्वाय’ के डायलाग विजय मौर्या ने लिखे थे और वो कई भाषाएं जानते हैं। उन्होंने डायलाग का एक सेट लिखा, उसके बाद हमने 18-20 साल के चार रैपर्स को बुलाया। विजय ने उन्हें पूरी स्क्रिप्ट सुनाई, उन्होंने बीच-बीच में सुझाव दिया कि ऐसा नहीं वैसा करना है, हम यह डायलाग ऐसे बोलेंगे। उनकी बातचीत की शैली कुछ और ही थी। वो सब सेट पर भी थे। अगर रणवीर कहीं भटक जाते थे, या उन्हें कुछ सीखना होता था, तो वो उनकी मदद करते थे।
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नागा वम्सी के हिंदी सिनेमा की कहानियों पर विचार
हाल ही में दक्षिण भारतीय निर्माता नागा वम्सी ने हिंदी सिनेमा की कहानियों को सिर्फ बांद्रा और जूहु के बीच की बताकर कहा कि वे जड़ों से जुड़ी नहीं होती हैं...
रीमा: अगर सिर्फ जड़ों से जुड़ी कहानियां ही बनेंगी, तो लोग उससे भी बोर हो जाएंगे। इंडस्ट्री को फिर से पटरी पर लाने के लिए ऐसी कहानियां बननी चाहिए जो लार्जर दैन लाइफ हों, व्यक्तिगत जुड़ाव वाली हों, सब मिली-जुली हों। तब निर्देशक, लेखक और निर्माता वो फिल्में बना पाएंगे, जो वह बनाना चाहते हैं।
जोया: बांद्रा-जुहू से क्या समस्या है? ये भी मुंबई में ही है। जब मैं छोटी थी, तो लोग कहते थे कि साउथ बांबे वालों को कुछ पता नहीं है, अब बोल रहे हैं कि बांद्रा-जुहू वालों को कुछ नहीं आता। ये सब तो चलता रहेगा। यहां की कहानियां बनाने में समस्या क्या है? क्या सारे फिल्मकार एक ही तरह की फिल्में बनाएं। क्या सारी जड़ें दक्षिण भारत से ही जुड़ी हैं! वहां भी पिछले कुछ समय में सैकड़ों फिल्में बनी हैं, जिनमें से बस दो-तीन गिनी-चुनी फिल्में ही सफल हो पाई हैं!
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