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    सिनेमा के असली 'जय-वीरू' थे ये दो दिग्गज, एक ने कहानी तो दूसरे ने कैमरे से लिखी कामयाबी की दास्तां

    Updated: Mon, 15 Dec 2025 08:48 PM (IST)

    आज हम आपको हिंदी सिनेमा के असली जय-वीरू के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने बॉलीवुड में फिल्ममेकिंग की परिभाषा को बदलकर रख दिया। आइए जानते हैं वह ...और पढ़ें

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    सिनेमा के दो दिग्गज फिल्ममेकर (फोटो क्रेडिट- इंस्टाग्राम)

    संदीप भूतोड़िया, मुंबई। समानांतर सिनेमा को सशक्त पहचान देने वाले निर्देशकों में यदि श्याम बेनेगल प्रमुख रहे हैं तो उनकी लीक को आगे बढ़ाया है गोविंद निहलानी ने। इन दोनों निर्देशकों ने भारतीय सिनेमा को एक ऐसा मंच प्रदान किया, जहां गंभीर सामाजिक संवाद संभव हो सका। स्व.श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी (19 दिसंबर) की जन्मतिथि पर संदीप भूतोड़िया का आलेख...

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    सिनेमा की यादगार जोड़ी

    भारतीय सिनेमा में ऐसी रचनात्मक जोड़ियां बहुत कम मिलती हैं, जिनका प्रभाव उतना बुनियादी, दूरगामी और कलात्मक रूप से सामंजस्यपूर्ण रहा हो, जितना श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी का। समानांतर सिनेमा के विकास को समझते समय इन दोनों के नाम अक्सर साथ लिए जाते हैं।

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    यह संबंध केवल निर्देशक और छायाकार की जोड़ी तक सीमित नहीं था, बल्कि सामाजिक सरोकारों वाले सिनेमा की साझा दृष्टि का प्रतीक था। श्याम बेनेगल की मजबूत कथात्मक समझ और गोविंद निहलानी की कठोर,सटीक दृश्य-भाषा ने मिलकर 20वीं शताब्दी के आठवें और नौवें दशक में नया सिनेमाई मुहावरा गढ़ा। ऐसा मुहावरा, जो यथार्थ,नैतिक जिज्ञासा और अपने समय की राजनीतिक नब्ज को केंद्र में रखता था।

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    उपहार में मिला उद्देश्य वर्ष 1934 में हैदराबाद में जन्मे श्याम बेनेगल ऐसे पारिवारिक वातावरण में बड़े हुए, जहां छवियों, कहानियों और जिज्ञासा को विशेष महत्व दिया जाता था। उनके पिता एक प्रतिष्ठित फोटोग्राफर थे। 12 वर्ष की उम्र में पिता द्वारा उपहार में मिले कैमरे से उन्होंने अपनी पहली फिल्म बनाई। बेनेगल ने अपने करियर की शुरुआत विज्ञापन क्षेत्र से की, जहां उन्होंने सैकड़ों प्रायोजित डॉक्यूमेंट्री बनाईं और एक सधी हुई, संक्षिप्त दृश्य-संवेदना विकसित की।

    श्यमा की पॉपुलर मूवीज

    परंतु उनकी रचनात्मक बेचैनी और लगभग एक दशक से मन में पल रही पटकथा ने अंततः ‘अंकुर’ का रूप लिया, जो उनकी पहली फीचर फिल्म थी और जिसने भारत के नए सिनेमा आंदोलन की ठोस नींव रखी। ‘निशांत’, ‘मंथन’ और ‘भूमिका’ के साथ ‘अंकुर’ ने ग्रामीण सत्ता-संबंधों, जातिगत संरचना, लैंगिक हिंसा और मनुष्यों के भीतर के शांत संघर्षों को बिना अतिनाटकीयता के साफ-सुथरी संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया। इन फिल्मों में नैतिक दृढ़ता तो थी, पर उपदेशात्मकता नहीं।

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    बाद के वर्षों में श्याम बेनेगल का करियर कई दिशाओं में फैला। उन्होंने बाल फिल्मों से लेकर संस्थागत डॉक्यूमेंट्री तक और टेलीविजन के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट ‘यात्रा’ तथा नेहरू की ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ पर आधारित ऐतिहासिक श्रृंखला ‘भारत एक खोज’ निर्देशित किए।

    ‘जुनून’ और ‘कलयुग’ जैसी फिल्मों में उन्होंने शशि कपूर जैसे सितारों के साथ काम किया। ‘द मेकिंग आफ द महात्मा’ और ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस: द फारगाटन हीरो’ जैसी जीवनीपरक फिल्मों ने उनके दायरे को और विस्तृत किया। मुस्लिम महिलाओं पर केंद्रित उनकी त्रयी ‘मम्मो’, ‘सरदारी बेगम’ और ‘जुबैदा’ आस्था, इतिहास और समुदाय के प्रश्नों को संवेदनशील और काव्यात्मक ढंग से सामने लाती है।

    कैमरे के उस्ताद गोविंद निहलानी

    साझे ने गढ़ा सिनेमा इन ऐतिहासिक फिल्मों के पीछे कैमरा संभाल रहे थे गोविंद निहलानी, जिनका जन्म बेनेगल से छह वर्ष बाद कराची में हुआ और जिन्होंने बेंग्लुरु में छायांकन का प्रशिक्षण लिया। दिग्गज छायाकार वी.के. मूर्ति के सहायक के रूप में काम कर चुके गोविंद निहलानी, श्याम बेनेगल की शुरुआती फिल्मों में एक गहरी, शांत लेकिन अभिव्यक्तिपूर्ण स्थिरता और डाक्यूमेंट्री जैसी पैनी दृष्टि लेकर आए।

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    ‘निशांत’ में कैमरा बढ़ते आतंक की आहट बन जाता है तो वहीं ‘मंथन’ में वह सामूहिक आंदोलन की ऊर्जा को दर्ज करता है। बेनेगल और निहलानी की साझेदारी ने भारतीय यथार्थवादी सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र को स्थायी रूप से बदल दिया। कैमरे में कैद अविस्मरणीय पल गोविंद निहलानी का सफर, बेनेगल के साथ गहरी साझेदारी के बाद धीरे-धीरे अपनी विशिष्ट दिशा में आगे बढ़ा।

    ‘जुनून’, ‘कलयुग’, ‘आरोहण’, ‘मंडी’ जैसी फिल्मों की सिनेमैटोग्राफी के अलावा उन्होंने रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी ’में भी अनौपचारिक रूप से सेकेंड यूनिट डायरेक्टर की भूमिका निभाई, विशेषकर गांधी जी के अंतिम संस्कार के दृश्य उन्होंने ही फिल्माए। इसके बाद निहलानी निर्देशन में आए। उनकी पहली फिल्म ‘आक्रोश’ जातिगत उत्पीड़न, संस्थागत हिंसा और हाशिए पर पड़े लोगों की आवाज के दमन की तीखी आलोचना थी।

    निहलानी का टोन गहन, तनावपूर्ण और लगभग घुटन भरा था, जो उन्हें बेनेगल की व्यापक सामाजिक दृष्टि से अलग, अधिक मनोवैज्ञानिक तीव्रता की ओर ले गया। उनकी यह विशिष्ट शैली ‘अर्ध-सत्य’ में चरम पर पहुंचती है, जो हिंदी सिनेमा की सबसे प्रभावशाली फिल्मों में से एक मानी जाती है। भ्रष्ट व्यवस्था से जूझते और अपनी विरासत में मिली हिंसा से लड़ते एक पुलिस अधिकारी की कहानी नई नहीं थी, क्योंकि ‘एंग्री यंग मैन’ का दौर तब तक आ चुका था, लेकिन निहलानी के दृष्टिकोण ने इसे बिल्कुल अलग ऊंचाई दी!

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