Chhaava जैसी ऐतिहासिक फिल्में बनाने के दौरान मेकर्स के सामने आती हैं चुनौतियां, बजट बन जाता है मुसीबत
इस वक्त बॉक्स ऑफिस पर एक ही फिल्म राज कर रही है छावा। इस ऐतिहासिक फिल्म के जरिए ऑडियंस को छत्रपति संभाजी महाराज के बारे में काफी कुछ जानने को भी मिला। हाल ही में विक्की कौशल से लेकर फिल्मी जानकार ने बताया कि सिनेमा इतिहास की पुस्तक की तरह होता है। इसके साथ ही बताया कि ऐतिहासिक फिल्मों को बनाते हुए उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या होती है।
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। छत्रपति संभाजी महाराज के शौर्य पर आधारित फिल्म छावा को देखने के लिए सिनेमाघरों में अभी तक दर्शकों की भीड़ उमड़ रही है। तान्हाजी- द अनसंग वारियर, केसरी, बाजीराव मस्तानी और पद्मावत जैसी फिल्मों के प्रति भी दर्शकों का उत्साह जबरदस्त था।
इन सभी फिल्मों में एक समानता रही कि ये भारतीय इतिहास के ऐसे नायकों की कहानियां हैं, जिनके विषय में पाठ्य पुस्तकों में बहुत मामूली उल्लेख है। देश के गौरवशाली इतिहास से परिचित कराती इन कहानियों को पर्दे पर लाने को लेकर फिल्मकारों के सोच व चुनौतियों की पड़ताल की गई।
छावा की शूटिंग के दौरान विक्की कौशल को पता लगी ये बातें
हाथी, घोड़े, तोप, तलवारें, फौज तो तेरी सारी है, पर जंजीर में जकड़ा राजा मेरा अब भी सब पे भारी है...। फिल्म छावा में कवि कलश की कही ये लाइनें वह दृश्य सामने ले आती हैं कि क्या खौफ रहा होगा, जब मुगल शासक औरंगजेब की सल्तनत में बंदी बनकर खड़े रहने के बावजूद छत्रपति संभाजी महाराज ने मुगलों की नींव हिला दी थी।
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छत्रपति संभाजी महाराज के शौर्य को पर्दे पर जीवंत करते अभिनेता विक्की कौशल स्वीकारते हैं कि छावा करने से पहले वह संभाजी के त्याग और बलिदान से परिचित थे, लेकिन इतनी गहराई से नहीं जानते थे। वह कहते हैं कि मैं मुंबई में पला-बढ़ा हूं। स्टेट बोर्ड से पढ़ाई हुई है। हमारे इतिहास की किताबों में छत्रपति शिवाजी महाराज और संभाजी महाराज के बारे में पाठ था, लेकिन ज्यादा उल्लेख शिवाजी महाराज के बारे में था।
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देश में और देश के बाहर भी लोगों को छत्रपति शिवाजी महाराज के बारे में पता है, लेकिन संभाजी महाराज के शौर्य, त्याग और बलिदान के बारे में वे ज्यादा नहीं जानते हैं। मुझे उनके शौर्य के बारे में पता था, लेकिन इंसान, पति, पिता, दोस्त और योद्धा के तौर पर वह कैसे थे वो जब पता चला तो लगा कि हम कमाल की कहानी बताने जा रहे हैं।
वीर योद्धाओं की कहानियों को सामने लाना जरूरी
फिल्मी जानकारों का मानना है कि गहन शोध के उपरांत इतिहास को खंगालती कहानियां नई पीढ़ी के लिए पुस्तकों की तरह हैं। युवाओं के समक्ष अपनी संस्कृति व इतिहास को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए फिल्मों के माध्यम से ऐसी कहानियों को सामने लाना आवश्यक है। ये नायक गुमनाम रह गए, लेकिन ऐसा क्यों हुआ। जानबूझ कर हमारे वीर नायकों को गुमनाम रखा गया है। इतिहास में झांकने की आवश्यकता है।
ये जानना चाहिए कि उन्होंने कितना त्याग किया था। अपनी चतुराई और सूझबूझ से देश को बाहरी खतरों से मुक्त किया। फिल्म परमाणु: द स्टोरी आफ पोखरण देश में हुए सफल परमाणु परीक्षण पर आधारित थी, लेकिन इस परीक्षण को करने के पीछे कितनी मेहनत रही, किस प्रकार अमेरिकी सैटेलाइट को गुमराह किया गया, उसे फिल्म में बखूबी दिखाया गया।
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गुमनाम सितारों की कहानी बताने का सबसे बेहतरीन प्लेटफॉर्म है
परमाणु के निर्देशक अभिषेक शर्मा कहते हैं कि दर्शक ऐसी कहानियों से जुड़ाव महसूस करते हैं। किसी ने इतना महान काम किया, लेकिन उसे पहचान नहीं मिली तो स्वाभाविक तौर पर उनकी कहानी जानने की जिज्ञासा होती है। बुद्धिमत्ता और साहस की कहानियां हमें प्रेरित भी करती हैं। बतौर फिल्मकार हमें भी लगता है कि जिन कहानियों के बारे में बताया नहीं गया है, उन्हें दुनिया को बताने का बेहतरीन माध्यम सिनेमा है। जब परमाणु परीक्षण हुआ था तो उसके पीछे सुरक्षा से जुड़े कारण थे। ये अहम मुद्दा था। मैं चाहता था कि दुनिया इस कहानी को जाने कि भारतीयों ने किस प्रकार अमेरिकी सैटेलाइट को धता दी।
ऐतिहासिक नायकों का चित्रण चुनौती
इतिहास के गुमनाम नायकों पर विश्वसनीय कहानियां बनाना चुनौतीपूर्ण होता है। लेखक और निर्देशक अभिजीत देशपांडे अपनी फिल्म हर हर महादेव फिल्म में छत्रपति शिवाजी महाराज के सैनिक वीर मराठा योद्धा बाजीप्रभु देशपांडे की कहानी को लेकर आए थे। बाजीप्रभु ने 300 सैनिकों के साथ 12000 मुगलों से लड़ाई लड़ी थी। अभिजीत देशपांडे अपनी अगली फिल्म छत्रपति शिवाजी महाराज पर लेकर आएंगे, जो बड़े सितारों के साथ बनेगी। अभिजीत कहते हैं कि इतिहास और सिनेमा दोनों का अपना महत्व है। इनका जब गठबंधन होता है तो वह इतिहास का सिनेमाई चित्रण होता है। वह ऐसा होना चाहिए जो दर्शकों को बांधकर रख सके।
ऐसे पहलू दिखाने पड़ते हैं, जो गौरवशाली ऐतिहासिक व्यक्तित्व को दर्शाएं। कई बार हम अपने नायकों को इंसान के तौर पर नहीं दिखाते, बल्कि उनकी पूजा करने लग जाते हैं। हमारे लिए चुनौती यही होती है कि जब किसी ऐतिहासिक व्यक्तित्व को पर्दे पर चित्रित करूं तो कैसे उसे इंसान के तौर पर दिखाऊं। लोग उसे स्वीकार करते हैं। चूंकि यह सिनेमा है तो उसे मनोरंजक होना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के लिए इतिहास के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकते हैं।
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बजट का भी रखना पड़ता है ध्यान
अभिजीत देशपांडे ने कहा, "मुझे लगता है कि बतौर फिल्मकार हम सार्थक मानवीय कहानी दिखाएं, जो मनोरंजक हो, वास्तविक हो। तीसरा, इन्हें बनाने में बजट की दिक्कत होती है। एक्शन, सेट, कास्ट्यूम में काफी धन खर्च करना पड़ता है। ऐतिहासिक फिल्म को बनाने के लिए वही परिदृश्य पर्दे पर रचना पड़ता है। इस संदर्भ में विक्की कहते हैं कि वीर योद्धाओं की कहानियां किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं होतीं। उन पर तो जितनी अधिक भारतीय भाषाओं में फिल्में आ सकें, उतना अच्छा है। ऐसी कहानियां गर्व की अनुभूति कराती हैं"।
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